जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त। ‘‘चतुर्गतौ संसरणं संसार:’ चतुर्गति में संसरण करना-परिभ्रमण करना इसका नाम संसार है। ‘संसार एशां सन्ति ते संसारिण:’ यह संसार जिन जीवों के पाया जाता है, वे संसारी कहलाते हैं। संसार के ५ भेद हैं-द्रव्य संसार, क्षेत्र संसार, काल संसार, भव संसार और भाव संसार। इन्हें परिवर्तन भी कहते हैं। द्रव्य संसार के २ भेद हैं-कर्म द्रव्य परिवर्तन और नोकर्म द्रव्य परिवर्तन।
कर्म द्रव्य परिवर्तन
कर्मबंध के पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इनमें मिथ्यात्व और कषाय प्रधान हैं क्योंकि ये मोहनीय कर्म के दो भेद हैं और कर्मों में मोहनीय कर्म ही प्रधान एवं बलवान् है। मोहनीय के अभाव में संसार परिभ्रमण का चक्र ही रुक जाता है। इन मिथ्यात्व और कषाय के आधीन हुआ संसारी जीव ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को प्रति समय ग्रहण करता है। लोक में सर्वत्र कार्मण वर्गणाएँ भरी हुई हैं, उनमें से अपने योग्य को ही ग्रहण करता है। आयुकर्म सदा नहीं बँधता अत: सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को ही प्रतिसमय ग्रहण करता है और आबाधा काल पूरा हो जाने पर उन्हें भोग कर छोड़ देता है। किसी जीव ने विवक्षित समय में ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को ग्रहण किया और आबाधा काल बीत जाने पर उन्हें भोग कर छोड़ दिया। उसके बाद अनन्त बार अगृहीत को ग्रहण किया और आबाधा काल बीत जाने पर उन्हें भोग कर छोड़ दिया। उसके बाद अनन्त बार अगृहीत को ग्रहण करके अनन्त बार मिश्र को ग्रहण करके और अनन्त बार गृहीत को ग्रहण करके छोड़ दिया। उसके बाद जब वे ही पुद्गल वैसे ही रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि भावों को लेकर, उसी के वैसे ही परिणामों से पुन: कर्मरूप परिणत होते हैं, उसे कर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं। इस तरह किसी विवक्षित समय में एक जीव ने औदारिक, वैक्रियिक और आहारक, इन तीनों शरीरों और छह पर्याप्तियों के योग्य नोकर्म पुद्गल स्वंध ग्रहण किया और भोग कर छोड़ दिया। पूर्वोक्त क्रम के अनुसार जब वे ही नोकर्म पुद्गल उसी रूप, रस आदि को लेकर जीव के द्वारा पुन: नोकर्म रूप से ग्रहण किये जाते हैं, उसे नोकर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है-
पुद्गल परिवर्तनरूप संसार में इस जीव ने सभी पुद्गलों को क्रमश: अनन्त बार ग्रहण किया और छोड़ा।’ क्षेत्र परिवर्तन-लोकाकाश के ३४३ राजुओं में सभी जीव अनेक बार जन्म ले चुके और मर चुके हैं। क्षेत्र परिवर्तन के दो भेद हैं-स्वक्षेत्र परिवर्तन, परक्षेत्र परिवर्तन।
स्वक्षेत्र परिवर्तन
कोई सूक्ष्म निगोदिया जीव, अपनी जघन्य अवगाहना को लेकर उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया पश्चात् अपने शरीर की अवगाहना में एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते महामत्स्य की अवगाहनापर्यन्त अनेक अवगाहना धारण करता है। इस प्रकार छोटी अवगाहना से लेकर बड़ी अवगाहना पर्यन्त सब अवगाहनाओं को धारण करने में जितना काल लगता है, उसे स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं। परक्षेत्र परिवर्तन-कोई जघन्य अवगाहना का एक धारक सूक्ष्म निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीव लोक के आठ मध्यप्रदेशों को अपने शरीर के आठ मध्यप्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ। पीछे वही जीव उसी रूप से उसी स्थान में दूसरी तीसरी बार भी उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवगाहना के जितने प्रदेश हैं, उतनी बार उसी स्थान पर क्रम से उत्पन्न हुआ और श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण क्षुद्र आयु को भोगकर मरण को प्राप्त हुआ। पीछे एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते सम्पूर्ण लोक को अपना जन्म क्षेत्र बना ले, यह परक्षेत्र परिवर्तन है। कहा है-
समस्त लोक में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहाँ क्षेत्ररूप संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक अवगाहनाओं को लेकर यह जीव क्रमश: उत्पन्न न हुआ हो।’ काल परिवर्तन-कोई जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया, फिर भ्रमण करके दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया। फिर भ्रमण करके तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया। यही क्रम अवसर्पिणी काल के संबंध में भी समझना चाहिए। इस क्रम से उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के बीस कोड़ाकोड़ी सागर के जितने समय हैं, उनमें उत्पन्न हुआ तथा इसी क्रम से मरण को प्राप्त हुआ अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के प्रथम समय में मरा, फिर दूसरी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के दूसरे समय में मरा, इसे काल परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है-
‘‘उस्सप्पिणि अवसप्पिणिसमयावलियासु णिरवसेसासु। जादो मुदो य बहुसो भमणेण दु कालसंसारे।।’’‘
अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सब समयों में अनेक बार जन्मा और मरा।’
भव परिवर्तन
नरक गति में जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है, इस आयु को लेकर कोई जीव प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया पुन: उसी आयु को लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ और मर गया। इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय हैं, उतनी बार दस हजार वर्ष की आयु लेकर प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ। पीछे एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ, फिर दो समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते नरक गति की उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर पूर्ण करता है। फिर तिर्यंच गति में अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु लेकर उत्पन्न हुआ और पहले की तरह अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ। फिर एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते तिर्यंच गति की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य समाप्त करता है। फिर तिर्यंच गति की ही तरह मनुष्य गति में भी अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु से लेकर तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु समाप्त करता है। पीछे नरक गति की तरह देवगति की आयु को भी समाप्त करता है किन्तु देवगति में इतनी विशेषता है कि वहाँ इकतीस सागर की ही उत्कृष्ट आयु को पूर्ण करता है क्योंकि ग्रैवेयक में उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर की ही होती है और मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति ग्रैवेयक तक ही होती है। इस प्रकार चारों गतियों की आयु पूर्ण करने को भव परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है-
‘‘णिरयादि जहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लया दु गेवज्जा। मिच्छत्तसंसिदेण दु बहुसो वि भवट्ठिदीभमिदा।।’’‘
नरक की जघन्य आयु से लेकर ऊपर के ग्रैवेयकपर्यंत के सब भवों में यह जीव मिथ्यात्व के आधीन होकर अनेक बार भ्रमण करता है।’
भाव परिवर्तन
योगस्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान, कषायाध्यवसाय स्थान और स्थिति स्थान, इन चार के निमित्त से भाव परिवर्तन होता है। प्रकृति बंध और प्रदेश बंध के कारण आत्मा के प्रदेश परिस्पन्दरूप योग के तारतम्यरूप स्थानों को योग स्थान कहते हैं। अनुभाग बंध के कारण कषाय के तारतम्य स्थानों को अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान कहते हैं। स्थिति बंध के कारण कषाय के तारतम्य स्थानों को कषाय स्थान या स्थिति बंधाध्यवसाय स्थान कहते हैं। बंधने वाले कर्म की स्थिति के भेदों को स्थिति स्थान कहते हैं। योग स्थान श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं। कषाय बंधाध्यवसाय स्थान भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं। कोई मिथ्यादृष्टि, सैनी, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव ज्ञानावरण कर्म की अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण जघन्य स्थिति को बाँधता है, उस जीव के उस स्थिति के योग्य जघन्य कषाय स्थान, जघन्य अनुभाग स्थान और जघन्य ही योग स्थान होता है। फिर उसी स्थिति, उसी कषाय स्थान और अनुभाग स्थान को प्राप्त जीव के दूसरा योग स्थान होता है। जब सब योग स्थानों को समाप्त कर देता है, तब उसी स्थिति और उसी कषाय. स्थान को प्राप्त जीव के दूसरा अनुभाग स्थान होता है। उसके योगस्थान भी पूर्वोक्त जानने चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक अनुभाग स्थान के समय सब योग स्थानों को समाप्त करता है। अनुभाग ० स्थानों के समाप्त होने पर, उसी स्थिति को प्राप्त जीव के दूसरा कषाय ० स्थान होता है। इस कषाय ० स्थान के अनुभाग ० स्थान तथा योग स्थान पूर्ववत् जानने ाचहिए। इस प्रकार सब कषाय ० स्थानों की समाप्ति तक अनुभाग ० स्थान और योग स्थानों की समाप्ति का क्रम जानना चाहिए। कषाय ० स्थानों के भी समाप्त होने पर वही जीव उसी कर्म की एक समय अधिक अन्त: कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति बाँधता है। उसके भी कषाय ० स्थान, अनुभाग ० स्थान तथा योग स्थान पूर्ववत् जानने चाहिए। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर पर्यन्त प्रत्येक स्थिति के कषाय ० स्थान, अनुभाग ० स्थान और योगस्थानों का क्रम जानना चाहिए। इसी प्रकार सभी मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियों में समझना चाहिए। अर्थात् प्रत्येक मूल-प्रकृति और प्रत्येक उत्तर प्रकृति की जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यंत प्रत्येक स्थिति के साथ पूर्वोक्त सब कषाय ० स्थानों, अनुभाग ० स्थानों और योग स्थानों को पहले की ही तरह लगा लेना चाहिए। इस प्रकार सब कर्मों की स्थितियों के भोगने को भाव परिवर्तन कहते हैं इन परिवर्तनों को पूर्ण करने में जितना काल लगता है, उतना काल भी उस-उस परिवर्तन के नाम से कहाता है। कहा भी है-
इस जीव ने मिथ्यात्व के संसर्ग से सब प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध के स्थानों को प्राप्त कर भाव संसार में परिभ्रमण किया।’ इस प्रकार अनेक दुःखों की उत्पत्ति के कारण इन पाँच प्रकार के संसार में यह जीव मिथ्यारूपी दोष के कारण अनादिकाल तक भ्रमण करता रहता है। जब इस जीव को सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है, तब पंच परावर्तन समाप्त हो जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव यदि सम्यक्त्व से च्युत होकर अधिक से अधिक संसार में भ्रमण करे, तो वह अर्धपुद्गल परावर्तन मात्र काल तक भ्रमण करता है जो कि द्रव्य परिवर्तन के अन्तर्गत नोकर्म पुद्गल परावर्तन काल के समान है किन्तु यह भी अनन्तकाल सदृश होने से अनन्त कहलाता है।