आर्यखण्ड में नाना भेदों से संयुक्त जो काल प्रवर्तता है, उसके स्वरूप का वर्णन करते हैं। कालद्रव्य अनादिनिधन है, वर्तना उसका लक्षण माना गया है-जो द्रव्यों की पर्यायों को बदलने मे सहायक हो, उसे वर्तना कहते हैं। यह काल अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु बराबर है और असंख्यात होने के कारण समस्त लोकाकाश से भरा हुआ है अर्थात् काल द्रव्य का एक-एक परमाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थित है। उस काल में अनन्त पदार्थों के परिणमन कराने की सामथ्र्य है अत: वह स्वयं असंख्यात होकर भी अनन्त पदार्थों के परिणमन में सहकारी होता है। जिस प्रकार कुम्हार के चाक के घूमने में उसके नीचे लगी हुई कील कारण है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन में काल द्रव्य सहकारी कारण है। संसार के समस्त पदार्थ अपने-अपने गुण-पर्यायों द्वारा स्वयमेव ही परिणमन को करते रहते हैं और काल द्रव्य उनके परिणमन में मात्र सहकारी कारण होता है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और काल द्रव्य बहुप्रदेशी न होने से अस्तिरूप है ‘अस्तिकाय’ नहीं है। काल के भेद-काल द्रव्य के निश्चय और व्यवहार के भेद से दो भेद हैं। इनमें से निश्चय काल के आश्रय से व्यवहार काल की प्रवृत्ति होती है। यह व्यवहार काल वर्तना लक्षण रूप निश्चय काल द्रव्य के द्वारा ही प्रवर्तित होता है और भूत, भविष्यत् तथा वर्तमानरूप होकर संसार का व्यवहार चलाने के लिए समर्थ होता है। वह व्यवहार काल समय, आवली, उच्छ्वास, नाड़ी आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है। यह ज्योतिष्चक्र के घूमने से ही प्रकट होता है। घड़ी, घंटा, दिन आदि सब व्यवहार काल कहलाते हैं।
व्यवहार काल
एक अविभागी पुद्गल परमाणु जितने काल में एक आकाश प्रदेश का उल्लंघन करे, उस अविभागी काल को ‘समय’ कहते हैं। असंख्यात समयों की एक आवली और संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास होता है। इसे ‘प्राण’ भी कहते हैं। सात उच्छ्वास का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, साढ़े अड़तीस लवों की एक नाली-घड़ी, दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है। एक समय कम एक मुहूर्त को भिन्न मुहूर्त या अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। तीस मुहूर्त का एक दिन, पन्द्रह दिनों का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक वर्ष और पाँच वर्षों का एक युग होता है। दो युगों के दस वर्ष होते हैं। दस वर्षों को दस से गुणा करने पर शतवर्ष, शतवर्ष को दस से गुणा करने पर सहस्र वर्ष होता है। इसे दस से गुणा करने पर दस सहस्र वर्ष, इसको भी दस से गुणा करने पर लक्ष वर्ष होता है। लक्ष वर्ष को ८४ से गुणा करने पर एक ‘पूर्वाङ्ग’ इस पूर्वाङ्ग को ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘पूर्व’ होता है। पूर्व को ८४ से गुणा करने पर ‘पर्वाङ्ग’ इसको ८४००००० से गुणा करने पर पर्व होता है। पर्व को ८४ से गुणा करने पर ‘नयुतांग’ इसको ८४००००० से गुणा करने पर ‘नयुत’ होता है। नयुत को ८४ से गुणा करने पर ‘कुमुदांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘कुमुद’ होता है। कुमुद को ८४ से गुणा करने पर ‘पद्मांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘पद्म’ होता है। पद्म को ८४ से गुणा करने पर ‘नलिनांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘नलिन’ होता है। नलिन को ८४ से गुणा करने पर एक ‘कमलांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘कमल’ होता है। कमल को ८४ से गुणा करने पर एक ‘त्रुटितांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘त्रुटित’ होता है। त्रुटित को ८४ से गुणा करने पर ‘अटटांग’ इसको ८४००००० से गुणा करने पर ‘अटट’ होता है। अटट को ८४ से गुणा करने पर ‘अममांग’, इसको ८४००००० से गुणा करने पर ‘अमम’ होता है। अमम को ८४ से गुणा करने पर ‘हाहांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘हाहा’ प्रमाण होता है। हाहा को ८४ से गुणा करने पर ‘हूहांग’ और हूहांग को ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘हूहू’ नामक काल का प्रमाण होता है। हूहू को ८४ से गुणा करने पर ‘लतांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘लता’ नामक प्रमाण होता है। लता को ८४ से गुणा करने पर ‘महालतांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘महालता’ का प्रमाण होता है। महालता को ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘श्रीकल्प’ होता है और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘हस्त प्रहेलित’ नामक संख्या का प्रमाण मिलता है। हस्त प्रहेलित को ८४ लाख से गुणा करने पर एक ‘अचलात्म’ नाम का काल होता है। इकतीस स्थानों में पृथक्-पृथक् चौरासी को रखकर परस्पर गुणा करने से अचलात्म नाम का प्रमाण प्राप्त होता है, जो नब्बे शून्यांक रूप है। इस प्रकार यह संख्यात काल वर्षों की गणना द्वारा उत्कृष्ट संख्यात जब तक प्राप्त हो, तब तक ले जाना चाहिए। जो वर्षों की संख्या से रहित है, वह असंख्ये काल माना जाता है। इसके पल्य, सागर, कल्प तथा अनन्त आदि अनेक भेद हैं।