-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
-अनुष्टुप् छंद-
ह्रींकारं चन्द्रसंयुक्तं, तीर्थंकरसमन्वितं।
पंचवर्णप्रभं चैव, ह्री काराय नमो नम:।।
-शंभु छंद-
सब बीजाक्षर में ह्रीं एक, बीजाक्षर पद कहलाता है।
यह एक अक्षरी मंत्र सभी, जिनवर का ज्ञान कराता है।।
चौबिस जिनवर से युक्त ह्रीं, की प्रतिमा अतिशयकारी है।
इसका अर्चन वंदन भव्यों के, लिए सदा हितकारी है।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं प्रतिमे! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं प्रतिमे! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं प्रतिमे! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टक-
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।
पूजन से होता बेड़ा पार है, प्रतिमा में ऐसा चमत्कार है।।टेक.।।
माया में डूबा यह संसार है, जिनवर ही ज्ञान का भण्डार हैं।
मुझको भी ज्ञान का आधार है, कर दो प्रभु मेरी नैय्या पार है।।
चरणों में डालूँ जल की धार है, चौबिस जिनवर को नमस्कार है।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै जलं निर्वपामीति स्वाहा।
दुनिया का राग तजकर आ गया, प्रभु का विराग मुझको भा गया।
प्रभु के गुणों की सौरभ पा गया, मेरा दिल प्रभु में ही समा गया।।
चंदन तो पूजन का प्रकार है, चर्चूं प्रभु पद में बारम्बार मैं।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रियसुख में मैं अब तक लीन था, आतम के ज्ञान से विहीन था।
शाश्वत सुख को न अब तक पा सका, आतम अनुभव न मुझको आ सका।।
पूजन से हो अक्षय भण्डार है, अक्षत चढ़ाऊँ तेरे द्वार मैं।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबीसों जिनवर जग को छोड़कर, संयम लिया सबसे मुख मोड़कर।
इनमें ही पाँच बालयति हुए, आतम में रमकर मुक्तिपति हुए।।
पुष्पों से पूजा मनहार है, कामारिविजयी का भण्डार है।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
कितने ही व्यंजन मैंने खाए हैं, लेकिन न तृप्ती कर पाए हैं।
प्रभु ने क्षुधा का नाश कर दिया, आतम का स्वाद उनने चख लिया।।
क्षुधरोग नाशन हेतु आज मैं, नैवेद्य से भर लाया थाल मैं।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युत के दीपक जग में जलते हैं, रात्रि का अंंधकार हरते हैं।
मोह अन्धेरा नहीं हरते हैं, पुद्गल पर्यायों में उलझते हैं।।
दीपक मैंं लाया प्रभु के द्वार है, आरति करूँ मैं बारम्बार है।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मों से निर्मित यह संसार है, दुर्लभ इससे हो जाना पार है।
मानव ही इसमें ऐसा प्राणी है, वर सकती जिसको शिवरानी है।।
धूप जलाऊँ प्रभु के द्वार है, भक्ती की महिमा अपरम्पार है।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मनवांछित फल की सिद्धी हेतु मैं, फिरता हूँ मारा मारा देव मैं।
जिनवर शरण में जब से आ गया, इच्छित फल को ही मानो पा गया।।
फल से ही मुक्ती फल साकार है, प्रभु के चरणों में नमस्कार है।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आठों ही द्रव्यों को सजाया है, सोने की थाली भर कर लाया मैं।
प्रभुवर जैसे गुणों को पाऊँ मैं, चरणों में अर्घ्य को चढ़ाऊँ मैं।।
जलफल आठों ही शुचिसार हैं, चौबिस जिनवर को नमस्कार है।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वित ह्रीं जिनप्रतिमायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।
पूजन से होता बेड़ा पार है, प्रतिमा में ऐसा चमत्कार है।।
यमुना सरिता का नीर लाया मैं, ह्रीं प्रतिमा के पास आया मैं।
चौबिस जिनवर की पावन छाया में, जग में भी रहकर शांति पाया मैं।।
कंचनझारी में जल की धार है, शान्तीधारा से बेड़ा पार है।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।१०।।
शान्तये शांतिधारा।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।
पूजन से होता बेड़ा पार है, प्रतिमा में ऐसा चमत्कार है।।
जग में न जाने कितने फूल हैं, उनमें ही भ्रमता निज की भूल में।
उनका उपयोग मैं न कर सका, अपना शृंगार ही बस कर सका।।
पुष्पों की अंजलि तेरे द्वार है, आत्मा का यही शृंगार है।
ह्रीं को मेरा नमस्कार है, चौबिस जिनवर से जो साकार है।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
स्वर्णिम ह्र में विराजित स्वर्ण वर्णमय
सोलह तीर्थंकर भगवन्तों के अर्घ्य
-शेर छंद-
तीर्थेश प्रथम ऋषभदेव स्वर्ण वर्ण के।
वे हैं विराजमान ‘ह्र’ के स्वर्ण वर्ण में।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।१।।
ॐ ह्रीं स्वर्णव्ार्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीऋषभदेवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश अजितनाथ स्वर्ण वर्ण के कहे।
वे ह्री ँ के ह्र स्वर्ण वर्ण में विराजते।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।२।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिनेन्द्र स्वर्ण वर्ण से सहित कहे।
वे ह्री ँ के अन्दर ह्र वर्ण में विराजते।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।३।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश श्री अभिनंदन का स्वर्ण वर्ण है।
अतएव ह्री ँ मध्य ह्र में राजते वे हैं।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।४।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीअभिनंदननाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश सुमतिनाथ का सुवर्ण वर्ण है।
वे ह्री ँ बीजाक्षर के मध्य ह्र में रहते हैं।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।५।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश शीतलनाथ स्वर्ण वर्ण सहित हैं।
वे ह्री ँ के ह्र वर्ण में विराज रहे हैं।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।६।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेयांसनाथ जिनवर का स्वर्ण वर्ण है।
वे हैं विराजमान ह्री ँ के ह्र वर्ण में।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।७।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री विमलनाथ जिनवर का स्वर्ण वर्ण है।
वे ह्री ँ के ह्र वर्ण में विराजमान हैं।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।८।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर अनंतनाथ का सुवर्ण वर्ण है।
वे शोभते हैं ह्री ँ के ह्र स्वर्ण वर्ण में।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।९।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री धर्मनाथ प्रभु का तन सुवर्ण वर्ण का।
उनसे सहित है ह्री ँ का ह्र वर्ण शोभता।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।१०।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश शांतिनाथ स्वर्ण वर्ण सहित हैं।
उनसे भी ह्री ँ का ह्र पीत वर्ण सहित है।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।११।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री कुंथुनाथ जिनवर हैं स्वर्ण वर्ण के।
जो हैं विराजमान ह्री ँ के ह्र वर्ण में।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।१२।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश अरहनाथ जी का स्वर्ण वर्ण है।
अतएव ह्री ँ के ह्र वर्ण में विराजते।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।१३।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश मल्लिनाथ स्वर्ण वर्ण के माने।
उनसे सहित ह्र वर्ण ध्यान के लिए जानें।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।१४।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमिनाथ जिनेश्वर कहे सुवर्ण वर्ण के।
वे भी विराजमान ह्री ँ के ह्र वर्ण में।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।१५।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबीसवें तीर्थेश महावीर स्वर्णमय।
उनसे सहित ह्र वर्ण सुशोभे सुवर्णमय।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनवर की अर्चना।
जिनवर से सहित ह्री ँ मंत्र की है वंदना।।१६।।
ॐ ह्रीं स्वर्णवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीमहावीर जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लालवर्ण की कला में विराजमान
लालवर्णी दो तीर्थंकरों के अर्घ्य
-शंभु छंद-
तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ का मूंगावर्णी तनु सुंदर था।
जिनकी सुंदरता को लखने में अक्षम स्वयं पुरंदर था।।
बीजाक्षर ह्री ँ की लाल कला में उन्हें विराजित किया गया।
उन लालवर्णि जिनवर चरणों में अर्घ्य समर्पित किया गया।।१।।
ॐ ह्रीं लालवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वासुपूज्य तीर्थंकर का तन लाल वर्ण सुंदर माना।
इसलिए उन्हें भी ह्री ँ मंत्र की लाल कला में पहचाना।।
उन पंचकल्याणक सहित जिनेश्वर का शुभ अर्चन करना है।
उन शक्ति सहित बीजाक्षर ह्री ँ को भी शत वंदन करना है।।२।।
ॐ ह्रीं लालवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीपद्मप्रभुजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हरितवर्ण की ईकार में विराजमान
हरितवर्णी दो तीर्थंकरों के अर्घ्य
तर्ज-जहाँ डाल-डाल पर……
जिनवर सुपार्श्व की पूजन से मिलती सुख शांति की छाया,
मैं अर्घ्य सजाकर लाया।।टेक.।।
जिनकी काया का हिरत वर्ण, सबको आनंद प्रदाता।
बीजाक्षर ह्री ँ की हरितकाय, ईकार से उनका नाता।।
ईकार से…..
उन जिनवर युत ईकार ह्रीं में प्रभु का रूप समाया,
मैं अर्घ्य सजाकर लाया।।१।।
ॐ ह्रीं हरितवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन से मिलती सुखशांति की छाया,
मैं अर्घ्य सजाकर लाया।।टेक.।।
वाराणसि में जन्मे पारस प्रभु हरित वर्ण अति सुंदर।
उनसे शोभित है ह्रीं मंत्र ईकार हरित अति सुखकर।।
ईकार…..
उन शक्ति समन्वित ह्री ँ बीज को हमने मन में ध्याया,
मैं अर्घ्य सजाकर लाया।।१।।
ॐ ह्रीं हरितवर्णतनुधारकतीर्थंकरश्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्वेतवर्णी अर्धचन्द्र में विराजमान
श्वेतवर्ण के दो तीर्थंकरों के अर्घ्य
तर्ज-सज धज कर इक दिन…….
प्रभुपद में अर्घ्य समर्पण कर, पुण्यार्जन करना है।
श्री चन्द्रप्रभू की पूजन कर, मन पावन करना है।।टेक.।।
चन्दा सरीखा श्वेत मन, प्रभु आपका माना।
अतएव ह्री ँ का अर्धचन्द्र प्रभू सहित जाना।।
उन शक्ति समन्वित ह्री ँ पद का वंदन करना है।
श्री चन्द्रप्रभ की पूजन कर, मन पावन करना है।।१।।
ॐ ह्रीं श्वेतवर्णतनुधारकतीर्थंकर श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पद में अर्घ्य समर्पण कर, पुण्यार्जन करना है।
प्रभु पुष्पदंत की पूजन कर, मन पावन करना है।।टेक.।।
तन श्वेत है मन श्वेत है तीर्थंकर जिनवर का।
है अर्ध चन्द्र सुशोभता इनसे पदाक्षर का।।
उस ह्री ँ बीजाक्षर में प्रभु का सुमिरन करना है।
प्रभु पुष्पदंत की पूजनकर, मन पावन करना है।।२।।
ॐ ह्रीं श्वेतवर्णतनुधारकतीर्थंकर श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्यामवर्ण की गोलबिन्दु में विराजमान
श्यामवर्णी दो तीर्थंकरों के अर्घ्य
तर्ज-माई रे माई…….
पूज्य अगर बनना चाहो तो, प्रभु की पूजन कर लो।
मुनिसुव्रत भगवान से संयुत, ह्री ँ मंत्र को नम लो।।
जय हो मुनिसुव्रत भगवान, जय हो ह्री ँ मंत्र का ध्यान।।टेक.।।
राजगृही में जन्मे प्रभु हैं, नीलवर्ण तनु धारी।
ह्री ँ की नीली बिन्दु बन गई, इनसे अतिशयकारी।।
जिनवर शक्ति सहित बीजाक्षर ह्री ँ को मन में भज लो।
मुनिसुव्रत भगवान से संयुत, ह्री ँ मंत्र को नम लो।।
जय हो मुनिसुव्रत भगवान, जय हो ह्री ँ मंत्र का ध्यान।।१।।
ॐ ह्रीं नीलवर्णतनुधारकतीर्थंकर श्रीमुनिसुव्रतनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य अगर बनना चाहो तो, प्रभु की पूजन कर लो।
नेमिनाथ भगवान से संयुत, ह्री ँ मंत्र को नम लो।।
जय हो नेमिनाथ भगवान, जय हो ह्री ँ मंत्र का ध्यान।।टेक.।।
शौरीपुर के नेमिनाथ प्रभु, नीलवर्ण तनुधारी।
ह्री ँ की नीली बिन्दु बन गई, इनसे अतिशयकारी।।
जिनवर शक्ति सहित बीजाक्षर, ह्री ँ को मन में भज लो।
नेमिनाथ भगवान से संयुत, ह्री ँ मंत्र को नम लो।।
जय हो नेमिनाथ भगवान, जय हो ह्री ँ मंत्र का ध्यान।।२।।
ॐ ह्रीं नीलवर्णतनुधारक तीर्थंकरश्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तर्ज-नागिन……….
जय जय प्रभुवर, चौबिस जिनवर, से सहित ह्रीं सुखकार है,
मनवांछित फल का दाता है।।
वर्तमान के चौबीसों, तीर्थंकर इसमें राजें।
जिनका जैसा वर्ण वहीं पर, सब जिनबिम्ब विराजें।।प्रभूजी.।।
बीजाक्षर है, एकाक्षर है, यह ह्रीं मंत्र शुभकार है,
मनवांछित फल का दाता है।।१।।
ऋषभ अजित संभव अभिनन्दन, सुमतिनाथ शीतल हैं।
श्रेयो विमल अनंत धर्मजिन, शांतिकुंथ अर प्रभ हैं।।प्रभूजी.।।
मल्लिनाथ यज लो, नमिनाथ भज लो,
श्रीवीर इन्हीं के साथ हैं,
मनवांछित फल का दाता है।।२।।
ये सोलह तीर्थंकर पीले, स्वर्ण समान दिपे हैं।
स्वर्णिम ह्र के बीच सोलहों, बीज समान दिखे हैं।।प्रभूजी.।।
ध्यान साधन का, ज्ञान पावन का, यह पंचवर्णि आकार है,
मनवांछित फल का दाता है।।३।।
प्रथम कला में लाल वर्ण के, दो जिनराज सुशोभें।
पद्मप्रभु अरु वासुपूज्य का, लाल वर्ण मन मोहे।।प्रभूजी.।।
इन ध्यान धर लो, प्रभु ज्ञान कर लो,
ये परम शांति आधार हैं, मनवांछित फल का दाता है।।४।।
हरित वर्ण ईकार के अन्दर, पार्श्व सुपार्श्व विराजें।
मरकत मणिसम हैं वे सुन्दर, अनुपम छवियुत छाजें।।प्रभूजी.।।
इनको यजते, पातक भगते, सब कर्म कटें दुखकार है,
मनवांछित फल का दाता है।।५।।
अर्धचन्द्र में श्वेत वर्ण के, पुष्पदंत चन्द्रप्रभ।
नीलवर्ण की गोलबिन्दु में, नेमिनाथ मुनिसुव्रत।।प्रभूजी.।।
उन जिनवर की, उन प्रभुवर की, करूँ पूजन बारम्बार मैं,
मनवांछित फल का दाता है।।६।।
पल दो पल अपने जीवन में, ह्रीं का ध्यान लगाएँ।
शुभ्र ध्यान का अवलम्बन ले, अशुभ विकल्प भगाएँ।।प्रभूजी.।।
मिलती सुगती, ‘‘चन्दनामती’’, इस ह्री ँ बीज आधार से,
मनवांछित फल का दाता है।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमन्वितह्रींजिनप्रतिमायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
रागद्वेष के चक्र से, मुक्ति चहें यदि भव्य।
निश्चित ही इस ह्री ँमें, लीन करो मन शक्य।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।