प्रवचन सुनकर श्रोता मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद और कषाय से डरकर उनसे यथाशक्ति हटकर मोक्षमार्ग में-सम्यक्त्व, संयम और समभाव में प्रवृत्त हो जावे, यही प्रवचन का फल है। इसी फल के साक्षात् और परम्परा ऐसे दो भेद हो जाते हैं।
१. साक्षात फल
(क) वक्ता का उपदेश ऐसा होना चाहिए कि श्रोतागण मिथ्यात्व को छोड़कर देव, शास्त्र, गुरु के परमभक्त बन जावें। उनमें पूज्य पुरुषों के प्रति आदरभाव और विनय प्रवृत्ति आ जावे तथा उद्दंड व अनर्गल प्रवृत्ति छूट जावे।
(ख) वर्तमान के उपलब्ध जिनागम के प्रति अकाट्य श्रद्धा व वर्तमान के साधुवर्गों के प्रति असीम भक्ति उमड़ आवे।
(ग) शक्त्यनुसार चारित्र ग्रहण करने में प्रवृत्त हो जावें। अन्याय, अभक्ष्य और दुर्व्यसनों को छोड़ देवें तथा देवपूजा, आहारदान, स्वाध्याय आदि आवश्यक क्रियाओं में प्रमाद छोड़कर तत्पर हो जावें।
२. परम्परा फल—व्यवहाराभास और निश्चयाभास क्या है ?
पूर्वोक्त प्रकार से प्रवचनकर्त्ता आदि चार बातों को संक्षेप से कहा गया है। उसी प्रकार से व्यवहाराभासी-निश्चयाभासी के लक्षण भी समझ लेना चाहिए।
प्रवचन का परम्पराफल स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कर लेना ही है।
जो मुनि या श्रावक व्यवहार चारित्र का पालन करते हैं, अपनी छह आवश्यक क्रियाओं में तत्पर रहते हैं वे व्यवहाराभासी हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनको आत्मतत्त्व का श्रद्धान नहीं है अथवा वे निश्चयनय या शुद्धात्म तत्त्व को उपादेय नहीं समझते हैं ऐसा भी नहीं माना जा सकता है। चूँकि किसी के अंतरंग का निर्णय करना बहुत ही कठिन है, यह बात तो सर्वज्ञ-गम्य ही है। तत्त्ववेत्ता आत्त्मज्ञानी और तत्त्वशून्य दोनों की बाह्यचर्या समान भी देखने को मिल सकती हैं। हाँ! जो ख्याति, लाभ या प्रतिष्ठा के लिए ही चारित्र ग्रहण करते हैं अथवा यह व्यवहार चारित्र परम्परा से मोक्ष का कारण है ऐसा न समझकर साक्षात् इसी को मोक्ष का कारण मान लेते हैं, आत्मज्ञान से सर्वथा पराङ्मुख हैं, वे व्यवहाराभासी हैं।
जो परिग्रह और भोगों में आसक्त रहते हुए भी अपनी आत्मा को सर्वथा शुद्ध, सिद्धस्वरूप मानते हैं, चारित्र से पराङ्मुख हैं और चारित्रधारी मुनि, आर्यिका आदि की मखौल उड़ाते हैं, उन्हें आत्मज्ञान से शून्य, द्रव्यवेषी, पाखण्डी व क्रियाकाण्डी कहते हैं, सदा गर्व से उन्मत्त रहते हैं। त्यागी पुरुषों को देखकर उनका अनादर व अपमान करते हैं, उनकी निंदा करते हैं, उनके चारित्र को सर्वथा सदोष ही समझते हैं और स्वयं चारित्र धारण करते नहीं हैं, ऐसे लोग ही निश्चयाभासी हैं।प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में निश्चय और व्यवहार का समन्वय करके इन एकांत दुराग्रहों को जलांजलि दे देनी चाहिए। चूँकि ये निश्चयाभास अथवा व्यवहाराभास अपनी आत्मा के ही घातक हैं।
इस प्रकार यहाँ एक कुशल प्रवचनकर्त्ता के लिए संक्षेप में मार्गदर्शन दिया गया है। जिसका उद्देश्य केवल वर्तमान के संघर्षों को दूर कर श्रोताओं का सही मार्ग प्रदर्शन करना ही है। प्रत्येक विद्वान् दुराग्रह को छोड़कर आगम के आधार से सही तत्त्व का प्रतिपादन करके मोक्षमार्ग को अक्षुण्ण बनाते रहें, ऐसी मेरी भावना है।