इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में अंग नामक देश में चम्पानगर है, जिसका राजा वसुपूज्य था और रानी जयावती थी। आषाढ़ कृष्णा षष्ठी के दिन रानी ने सोलह स्वप्नदर्शनपूर्वक गर्भ धारण किया और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन पुण्यशाली पुत्र को उत्पन्न किया। सौधर्म इन्द्र ने महान वैभव के साथ तीर्थंकर शिशु को ऐरावत हाथी पर बिठाकर सुमेरु पर्वत की पाण्डुकशिला पर ले गए, वहाँ उनका १००८ बड़े-बड़े कलशों से जन्माभिषेक करके जन्म उत्सव मनाकर पुत्र का ‘वासुपूज्य’ नामकरण किया। उस समय सौधर्म इन्द्र भगवान के दिव्य-अनुपम रूप को दो नेत्रों से देखकर तृप्त नहीं हुआ, तब उसने विक्रिया से १००८ नेत्र बना लिए।
जब कुमार काल के अठारह लाख वर्ष बीत गये तब संसार से विरक्त होकर भगवान जगत के यथार्थस्वरूप का विचार करने लगे। तत्क्षण ही देवों के आगमन हो जाने पर देवों द्वारा निर्मित पालकी पर सवार होकर मनोहर नामक उद्यान में गये और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन छह सौ छिहत्तर राजाओं के साथ स्वयं दीक्षित हो गये। छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर भगवान ने कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठकर माघ शुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल में केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। भगवान बहुत समय तक आर्यखण्ड में विहार कर चम्पानगरी में आकर एक वर्ष तक रहे। जब आयु में एक माह शेष रह गया, तब योग निरोध कर रजतमालिका नामक नदी के किनारे की भूमि पर वर्तमान चम्पापुरी नगरी में स्थित मन्दारगिरि के शिखर को सुशोभित करने वाले मनोहर उद्यान में पर्यंकासन से स्थित होकर भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन चौरानवे मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए। ऐसे प्रथम बालयती भगवान वासुपूज्य हम सभी को चारित्र में दृढ़ रहने की शक्ति प्रदान करें।