जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के विदेहदेशसंंबंधी कुण्डलपुर नगर (बिहार) में महाराजा सिद्धार्थ एवं महारानी प्रियकारिणी (त्रिशला) सुखपूर्वक राज्य करते थे। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को महारानी त्रिशला ने सोलह स्वप्न देखे और पुष्पोत्तर विमान से अच्युतेन्द्र का जीव च्युत होकर रानी के गर्भ में आ गया।
सौधर्म इन्द्र ने बड़े वैभव के साथ सुमेरु पर्वत की पाण्डुक शिला पर भगवान का जन्माभिषेक करके ‘‘वीर’’ और ‘‘वर्धमान’’ ऐसे दो नाम रखे। भगवान वर्धमान की आयु बहत्तर वर्ष, ऊँचाई सात हाथ एवं शरीर का वर्ण स्वर्ण सदृश था।एक बार संजय-विजय नामक चारण ऋद्धिधारी मुनियों को किसी विषय में संदेह उत्पन्न हो गया पुन: पालने में झूलते हुए भगवान का दर्शन करते ही उनकी शंका का समाधान हो गया तब उन्होंने उन्हें ‘सन्मति’ नाम प्रदान किया।
किसी समय संगम नामक देव ने सर्प बनकर परीक्षा ली और भगवान की वीरता से प्रभावित होकर उनका ‘महावीर’ नाम रखा। तीस वर्ष के बाद भगवान को पूर्व भव का स्मरण होने से वैराग्य हो गया। तब लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुति को प्राप्त भगवान ने ज्ञातृवन में सालवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और तत्काल मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त कर लिया।छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष बाद जृंभिक ग्राम में ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वन में सालवृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ला दशमी के दिन भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उस समय इन्द्र ने केवलज्ञान की पूजा की। भगवान की दिव्यध्वनि के न खिरने पर इन्द्र छ्यासठ दिन बाद राजगृही में विपुलाचल पर्वत पर गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण को युक्ति से लाये, तब उनका मान गलित होते ही वे भगवान से दीक्षित होकर मन:पर्ययज्ञान और सप्तऋद्धि से विभूषित होकर प्रथम गणधर हो गये, तब भगवान की दिव्यध्वनि खिरी। श्रावण कृष्ण एकम् के दिन दिव्यध्वनि को सुनकर गौतम गणधर ने सायंकाल में द्वादशांग श्रुत की रचना की।
अंत में पावापुर नगर में सरोवर के बीच शिलापट्ट पर विराजमान होकर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को अंतिम प्रहर में स्वाति नक्षत्र में एक हजार मुनियों के साथ मोक्षपद को प्राप्त कर लिया, तब देवों ने मोक्षकल्याणक की पूजा कर दीपमालिका जलाई थी। तब से लेकर आज तक कार्तिक कृष्णा अमावस्या को दीपावली पर्व मनाया जाता है।ऐसे पाँच नामों से संयुक्त भगवान महावीर हमारा और आप सभी का कल्याण करें।