आत्मा औ तनु के अन्तर को, कर तनु से निर्मम हो जाऊँ।
मैं शुद्ध बुद्ध परमात्मा हूँ, यह समझ स्वयं में रम जाऊँ।।
इन्द्रिय बल आयू श्वास चार, प्राणों को धर-धर मरता हूँ।
निश्चय नय से नहिं जन्म-मरण, फिर भी निश्चय नहिं करता हूँ।।१।।
मैं इन प्राणोें से भिन्न सदा, पुद्गल से भिन्न निराला हूँ।
सुख सत्ता दर्शन ज्ञान वीर्य, चेतनमय प्राणों वाला हूँ।।
हे वासुपूज्य! तव चरण कमल की, भक्ती से यह मिल जावे।
जो खोई शक्ति अनन्त मेरी, तव नाम मंत्र से प्रगटावे।।२।।
चंपापुर में वसुपूज्य पिता, औ प्रसू जयावति इन्द्र नमित।
आषाढ़ वदी छठ को प्रभु ने, माँ गर्भ प्रवेश किया सुरनत।।
फाल्गुन वदि चौदस जन्म लिया, इस तिथि को ही जिनवेश धरा।
सित माघ द्वितीया में प्रभु को, केवल लक्ष्मी ने स्वयं वरा।।३।।
भादों सुदि चौदस को प्रभुवर, चम्पापुर से शिव धाम गये।
बाहत्तर लक्ष वर्ष आयू, दो सौ अस्सी कर तुंग कहे।।
कल्हार कमल छवि महिष चिन्ह, फिर भी तनुमुक्त अनन्तगुणी।
वासवगण पूजित वासुपूज्य! दो ज्ञानमती सम्पत्ति घनी।।४।।