भव वन में भ्रमते-भ्रमते अब, मुझको कथमपि विज्ञान मिला।
हे नेमि प्रभो! अब नियम बिना,नहिं जाने पावे एक कला।।
मैं निज से पर को पृथक् करूँ, निज समरस में ही रम जाऊँ।
मैं मोह ध्वांत का नाश करूँ, निज ज्ञान सूर्य को प्रकटाऊँ।।१।।
शौरीपुरि में प्रभु जन्में तक, रत्नों की वर्षा खूब हुई।
धन धन्य समुद्रविजय राजा, कृतकृत्य शिवा देवी भी थीं।।
कार्तिक सुदि छठ के गर्भागम, श्रावण सुदि छट्ठ जन्म लीना।
यौवन में राजमती के संग, परिजन ने ब्याह रचा दीना।।२।।
पशु बंधन को देखा प्रभु ने, तत्क्षण सब बंधन तोड़ दिया।
राजीमति मोह परिग्रह तज, तपश्री से नाता जोड़ लिया।।
श्रावण सुदि छट्ठ सुखद प्यारी, सिरसा वन में जा ध्यान धरा।
आश्विन सुदि एकम आते ही, वैâवल्यश्री ने आन वरा।।३।।
तब राजमती भी दीक्षा ले, आर्या में गणिनी मान्य हुई।
प्रभु ने शिव का पथ दर्शाया, धर्मामृत वर्षा खूब हुई।।
तनु चालिस हाथ प्रमाण कहा, प्रभु आयू एक हजार वर्ष।
वैडूर्य मणी सम कांति अहो, प्रभु शंख चिन्ह से हैं चिन्हित।।४।।
प्रभु समवसरण में कमलासन पर, चतुरंगुल से अधर रहें।
चउदिश में प्रभु का मुख दीखे, अतएव चतुर्मुख ब्रह्मा हैं।।
प्रभु के विहार में चरण कमल तल, स्वर्ण कमल खिलते जाते।
बहु कोसों तक दुर्भिक्ष टले, षट् ऋतुज फूल फल खिल जाते।।५।।
तरुवर अशोक था शोक रहित, सिंहासन रत्न खचित सुन्दर।
छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर।।
सुरदुंदुभि बाजे बाज रहे, ढुरते हैं चौंसठ श्वेत चमर।
सुर पुष्पवृष्टि नभ से बरसे, दिव्यध्वनि पैâले योजन भर।।६।।
आषाढ़ सुदी सप्तमि तिथि थी, प्रभु ऊर्जयंत से सिद्ध हुए।
श्रीकृष्ण तथा बलदेव आदि, तुम पूजें ध्यावें भक्ति लिए।।
हे भगवन्! तुम बाह्याभ्यंतर, अनुपम लक्ष्मी के स्वामी हो।
दो मुझे अनंतचतुष्टयश्री, ‘‘सज्ज्ञानमती’’ सिद्धिप्रिय जो।।७।।