महावीर वीर सन्मति भगवन् ! अतिवीर सदा मंगल करिये।
हे वर्धमान! भव वारिधि से, अब मुझको पार तुरत करिये।।
वह कुंडलपुरि जग पूज्य हुई, सिद्धार्थ दुलारे जन्मे थे।
प्रियकारिणि माँ की गोदी में, त्रिभुवन के गुरुवर खेले थे।।१।।
आषाढ़ सुदी छठ पूज्य हुई, जब गर्भ में प्रभु अवतार लिया।
माता त्रिशला की सेवा का, सुर ललनाओं ने भार लिया।।
शुभ चैत्र सुदी तेरस का दिन, है धन्य धन्य वह सुखद घड़ी।
जब वर्द्धमान ने जन्म लिया, नभ से सुर पंक्ती उमड़ पड़ी।।२।।
प्रभु शैशव में अहिपति फण पर, चढ़कर संगम सुर जीता था।
नहिं ब्याह किया नहिं राज्य किया, जनता का मन भी फीका था।।
मगसिर वदि दशमी धन्य हुई, जब केशलोंच कीना तुमने।
नृपकूल ने प्रथम आहार दिया, पंचाश्चर्य किया देवों ने।।३।।
कौशाम्बी में चन्दनबाला, सिरमुंडित जकड़ी बेड़ी में।
प्रभु दर्शन से बेड़ियाँ झड़ीं, तनु सुंदर हुआ एक क्षण में।।
कोदों भोजन हो गया खीर, प्रभु को आहार दे धन्य हुईं।
यह महिमा तीर्थंकर प्रभु की, पंचाश्चर्यों की वृष्टि हुई।।४।।
अतिमुक्तक वन में ध्यान लीन थे, भव ने आ उपसर्ग किया।
तब अचलित प्रभु को देख स्वयं, भार्या सह पूजा भक्ति किया।।
वैशाख सुदी दशमी तिथि में, केवल रवि किरणें प्रकट हुईं।
शुभ समवसरण था रचा हुआ, दिव्यध्वनि फिर भी खिरी नहीं।।५।।
श्रावण श्यामा एकम उत्तम, गौतम गणधर जब आए हैं।
विपुलाचल पर ध्वनि प्रगट हुई, मुनिगण सुर नर हर्षाए हैं।।
हे वीर प्रभो! तव शासन में, मुझको रत्नत्रय निधी मिली।
मैं भक्ति सहित प्रणमूँ तुमको, मेरी मन कलियाँ आज खिलीं।।६।।
तनु सात हाथ कांचन कांति, आयू बाहत्तर वर्ष कही।
है चिन्ह मृगेन्द्र प्रभो! तेरा, जो ध्यावे पावे मोक्ष मही।।
कार्तिक वदि चौदस रात्रि अंत, आमावस का प्रत्यूष कहा।
सब कर्म नाश प्रभु मोक्ष गए, स्वात्मोत्थ सहज आनंद लहा।।७।।
पावापुरि के उपवन में जो, सरवर है कमल खिले उसमें।
प्रभु के निर्वाण कल्याणक से, अब तक भी कमल खिले सच में।।
देवों ने आकर पूजा की, महावीर प्रभू त्रिभुवनपति की।
अंधियारी में दीपक ज्वाले, तब से ही दीपावली हुई।।८।।
हे वीर प्रभो! मंगलमय तुम, लोकोत्तम शरणभूत तुम ही।
भव भव के संचित पाप पुँज, इक क्षण में नष्ट करो सब ही।।
मैं बारम्बार नमूँ तुमको, भगवन्। मेरे भव त्रास हरो।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ सिद्धी देकर, स्वामिन् ! अब मुझे कृतार्थ करो।।९।।