(बारह सौ चौंतिस व्रत पूजा)
रचयित्री-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
-स्थापना-शंभुछंद-
सम्यक्चारित्र त्रयोदशविध, ये परमानंद प्रदाता हैं।
इनके बारह सौ चौंतिस व्रत, ये परमसिद्धि के दाता हैं।।
इनका वन्दन पूजन करके, विधिवत् आराधन करते हैं।
निज हृदय कमल में धारण कर, हम स्वात्म सुधारस भरते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्र-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्र-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्र-समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टक-
(चाल-नंदीश्वर पूजा)
गंगानदि को जल लाय, कंचन भृंग भरूँ।
त्रयधार करूँ सुखदाय, आतम शुद्ध करूँ।।
बारह सौ चौंतिस मंत्र, पूजूँ मन लाके।
पाऊँ निज सौख्य स्वतंत्र, चारितनिधि पाके।।१।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन गंध, घिस कर्पूर मिला।
जजते चारित्र अमंद, निज मन कमल खिला।।
बारह सौ चौंतिस मंत्र, पूजूँ मन लाके।
पाऊँ निज सौख्य स्वतंत्र, चारितनिधि पाके।।२।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशिकर समतंदुल श्वेत, खंड विवर्जित हैं।
शिवरमणी परिणय हेत, पुंज समर्पित हैं।।
बारह सौ चौंतिस मंत्र, पूजूँ मन लाके।
पाऊँ निज सौख्य स्वतंत्र, चारितनिधि पाके।।३।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सित कुमुद नील अरविंद, लाल कमल प्यारे।
मदनारि विजय के हेतु, पूजूँ सुख कारे।।
बारह सौ चौंतिस मंत्र, पूजूँ मन लाके।
पाऊँ निज सौख्य स्वतंत्र, चारितनिधि पाके।।४।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरणपोली पयसार, पायस मालपुआ।
चारित्र रत्न को ध्याय, आतम सौख्य हुआ।।
बारह सौ चौंतिस मंत्र, पूजूँ मन लाके।
पाऊँ निज सौख्य स्वतंत्र, चारितनिधि पाके।।५।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिदीप कपूर प्रजाल, ज्योति उद्योत करे।
अंतर में भेद विज्ञान, प्रगटे मोह हरे।।
बारह सौ चौंतिस मंत्र, पूजूँ मन लाके।
पाऊँ निज सौख्य स्वतंत्र, चारितनिधि पाके।।६।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध अग्नि में ज्वाल, सुरभित गंध करे।
निज आतम अनुभव सार, कर्म कलंक हरे।।
बारह सौ चौंतिस मंत्र, पूजूँ मन लाके।
पाऊँ निज सौख्य स्वतंत्र, चारितनिधि पाके।।७।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला फलसार, जंबू निंबु हरे।
शिवकांता संगम हेत, तुम ढिग भेंट करें।।
बारह सौ चौंतिस मंत्र, पूजूँ मन लाके।
पाऊँ निज सौख्य स्वतंत्र, चारितनिधि पाके।।८।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सलिलादिक द्रव्य मिलाय, कंचन पात्र भरें।
चारित को अर्घ्य चढ़ाय, शिव साम्राज्य वरें।।
बारह सौ चौंतिस मंत्र, पूजूँ मन लाके।
पाऊँ निज सौख्य स्वतंत्र, चारितनिधि पाके।।९।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एकसहस्रद्विशतचतुस्त्रिंशन्मंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
शांतीधारा मैं करूँ, चरित मंत्र हितकार।
चउसंघ में शांती करो, हरो सर्व दुख भार।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि से पूजहूँ, चारित्र मंत्र महान।
दु:ख दरिद्र संकट टले, बनूँ आत्मनिधिमान।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-१. ॐ ह्रीं असि आ उसा चारित्रशुद्धिव्रतेभ्यो नम:।
अथवा
२. ॐ ह्रीं अर्हं द्वादशशतचतुस्त्रिंशद्व्रतेभ्यो नम:।
-शंभु छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, प्रभु धर्मचक्र के कर्ता हो।
जय जय अनंत दर्शन सुज्ञान, सुख वीर्य चतुष्टय भर्ता हो।।
जय अंतरंग लक्ष्मी अनंत गुण, धृत् त्रैलोक्य शिखामणि हो।
जय समवसरण वैभव धारी, जय दिव्यध्वनी के स्वामी हो।।१।।
तीर्थंकर परम्परा शाश्वत, यह शाश्वत धर्म सौख्यकारी।
तीर्थंकर शासन सार्वभौम, यह जिनशासन भवदुखहारी।।
जो ‘तीर्थ’ चलाते तीर्थंकर, यह ‘तीर्थ’ धर्म ही माना है।
यह धर्म ‘रत्नत्रयमय’ माना, ‘चारित्ररूप’ भी माना है।।२।।
जो भवदधि से तारे सबको, सब जन को पूर्ण पवित्र करे।
सब कर्म मैल को धो करके, आत्मा को पावन शुद्ध करे।।
बस वही तीर्थ सच्चा जग में, इसके कर्ता तीर्थंकर हैं।
इनके आश्रय से सब भविजन, भववारिधि तिरते सुखकर हैं।।३।।
जय जय चारित्र त्रयोदश विध, जो भववारिधि में नौका है।
जय पाँच महाव्रत पाँच समिति, त्रयगुप्ति कर्मनग भेत्ता हैं।।
जय इनके भेद एक सौ सैंतिस, मोक्षमार्ग के नेता हैं।
इनको नव कोटी से गुणिये, बारह सौ चौंतीस भेद कहें।।४।।
जय जयतु अहिंसा प्रथम महाव्रत, चौदह भेद रूप मानो।
मन वच तन को कृत कारित अनुमति, से गुणिते विधिवत जानो।।
तब इक सौ छब्बिस भेद मंत्र, जपने से चारित शुद्धी हो।
इनके व्रत करने से महाव्रत, पालन करने की शक्ती हो।।५।।
जय सत्य, अचौर्य महाव्रत को, अठ आठ भेद से सरधानो।
ब्रह्मचर्य महाव्रत बीस भेद, परिग्रह विरती चौबिस जानो।।
ये नव से गुणित बहत्तर पुन:, बहत्तर की संख्या करिये।
ब्रह्मचर्य के एक सौ अस्सी परिग्रह-त्याग द्विशत सोलह गिनिये।।६।।
छठा अणुव्रत रात्री भोजन, विरती दश भेद सहित वर्णित।
ईर्या समिती नवकोटि सहित, मुनिगण पालें आगम भाषित।।
भाषा समिती के दशों भेद, नवकोटि-गुणित नब्बे विध हैं।
एषण समिती छ्यालीस भेद, नवगुणित चार सौ चौदह हैं।।७।।
आदान निक्षेप, उत्सर्ग समिति, नव नव भेदों से भाषित हैं।
मन वचन काय की त्रय गुप्ती, नव से गुणिते सत्ताइस हैं।।
ये भेद-प्रभेद सभी मिलकर, बारह सौ चौंतिस व्रत मानें।
इनका जो विधिवत् व्रत करते, और मंत्र जपें श्रुत वच जानें।।८।।
वे भव्य नियम से महाव्रती, बनकर संसार जलधि तिरते।
निज परम अतीन्द्रिय सौख्य पाय, त्रिभुवन साम्राज्य तुरत लभते।।
मैं सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित, व्यवहार चरित्र पूर्ण पाऊँ।
फिर निश्चय रत्नत्रय परिणत, निज आत्म ध्यान में रम जाऊँ।।९।।
हे भगवन्! ऐसा दिन कब हो, जब परम अतीन्द्रिय सुख पाऊँ।
भव पंच परावर्तन छूटें, वैâवल्य ज्ञानमति प्रगटाऊँ।।
त्रैलोक्य शिखर पर जा करके, तिष्ठूँ शाश्वत विश्राम करूँ।
हे नाथ! मुझे ऐसी मति दो, तुम चरणों में ही वास करूँ।।१०।।
-दोहा-
सम्यक्चारित रत्न यह, जिनगुणसंपति हेतु।
नमूँ-नमूँ नित भाव से, पाऊँ भवदधि सेतु।।११।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशचारित्रभेदस्वरूप-एक सहस्र-द्विशतत्रिंशन्मंत्रेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
बारह सौ चौंतीस व्रत, मंत्र जपें जो भव्य।
सम्यग्ज्ञानमती सहित, वे पावें सुख नव्य।।
।।इत्याशीर्वाद:।।