-सुभाषचंद जैन, टिकेटनगर
मेरे मन का मोह हृदय का गीत किसे है भाता।
मेरे स्वप्नों की मंजिल का नहीं किसी से नाता।।
माँ की यादों के सागर में मैं नित विचरण करता।
हर प्यासी गागर अपने आँसू से भरता रहता।।
नहीं भूल पाता हूँ वह मधुरिम क्षण गीत सुनाता।
मेरे स्वप्नों की मंजिल का नहीं किसी से नाता।।
मैं अपने मुरझाये मन को वैâसे हरा बनाऊँ।
सूनी बगिया में कोयल का गीत कहाँ से लाऊँ।।
मैं अपने आँगन को ही ममता से रीता पाता।
मेरे स्वप्नों की मंजिल का नहीं किसी से नाता।।
यही सोचकर कुछ मन को संतोष दिलाया करता।
होनी सो हो गई इसे ना टाल कोई भी सकता।।
गृह बंधन को तोड़ दिया बन गई जगत की माता।
मेरे स्वप्नों की मंजिल का नहीं किसी से नाता।।
एक नहीं सारा जग आकर झुकता तव चरणों में।
संयम की इस पदवी को है नमन किया इन्द्रों ने।।
मैं अपने श्रद्धा पुष्पों से नित नत करता माथा।
मेरे स्वप्नों की मंजिल का नहीं किसी से नाता।।