-जीवन प्रकाश जैन (प्रबंध सम्पादक)
दिनाँक ३० सितम्बर सन् १९४०, आश्विन वदी १४, सोमवार के शुभ दिन सनावद (म.प्र.) के सुप्रसिद्ध श्रेष्ठी श्री अमोलकचंद जी सर्राफ की धर्मपत्नी श्रीमती रूपाबाई ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया ‘मोतीचंद’। आप कुल चार भाई और तीन बहनें रहे। बड़ी दो बहनें-श्रीमती गुलाबबाई व चतुरमणीबाई, एक छोटी बहन श्रीमती किरणबाई एवं इन्दरचंद, प्रकाशचंद और अरुण कुमार ये तीनों छोटे भाई। आपके परिवार का मूल व्यवसाय सराफे का रहा है।
ब्रह्मचर्य व्रत-इतने सम्पन्न परिवार के मध्य रहते हुए भी मोतीचंद जी को सांसारिक वैभव में रुचि नहीं रही और उन्होंने सन् १९५८ में १८ वर्ष की उम्र में ही स्वरुचि से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया।
संघ में प्रवेश-सन् १९६७ में पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का संघ सहित सनावद में चातुर्मास हुआ। पूज्य माताजी को जब इनके ब्रह्मचर्य व्रत के बारे में पता चला, तो उन्होंने मोतीचंद को गृहत्याग हेतु संबोधित किया। चातुर्मास के पश्चात् पूज्य माताजी के साथ मोतीचंद जी ने मुक्तागिरी की यात्रा का कार्यक्रम बनाया। उसके पश्चात् पूज्य माताजी आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज (आचार्य शांतिसागर परम्परा के द्वितीय पट्टाचार्य) के संघ में आ गईं, तभी सन् १९६८ में ब्र. मोतीचंद भी संघ में अध्ययन के उद्देश्य से आये और माताजी की प्रेरणा से संघस्थ शिष्य के रूप में रहने लगे।
धार्मिक शिक्षण-आपने पूज्य ज्ञानमती माताजी के पास गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, कातंत्र व्याकरण, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, अष्टसहस्री आदि ग्रंथों का अध्ययन किया। तीन-चार वर्षों के अंदर आपने शास्त्री व न्यायतीर्थ की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लीं। तब से सदैव आप पूज्य माताजी के पास रहकर चारों अनुयोगों के स्वाध्याय में तत्पर रहे।
जम्बूद्वीप रचना निर्माण में प्रमुख भूमिका-सन् १९६५ में पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के मस्तिष्क में जम्बूद्वीप रचना की योजना आई। जिसे साकाररूप देने में पूज्य माताजी के निर्देशानुसार कई स्थानों का निर्णय हुआ, किन्तु जिस भूमि पर योग था, वहीं इस रचना का निर्माण हुआ। ब्र. मोतीचंद जी ने संघ में आते ही पूज्य माताजी को यह लिखकर दिया कि ‘‘मैं तन-मन-धन से आपकी इस योजना को सफल बनाऊँगा और आपके संयम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आने दूँगा। आपको किसी से जम्बूद्वीप निर्माण हेतु पैसा देने की प्रेरणा भी नहीं करनी पड़ेगी।’’ तब से लेकर सदैव उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन कर इस अद्भुत रचना का निर्माण हस्तिनापुर की धरा पर सम्पन्न होने में प्रमुख भूमिका निभाई। यदि आपको वर्तमान का चामुण्डराय भी कहा जाये, तो कोई अतिशयोक्ति नहंीं होगी, क्योंकि आपने पूज्य माताजी को जन्मदात्री माँ से भी अधिक मानकर उनकी आज्ञा का पालन किया है।
त्यागमय जीवन-पूज्य माताजी ने प्रारंभ से ही इनकी सुकुमारता देखकर इन्हें अधिक त्याग की प्रेरणा नहीं दी किन्तु सन् १९७१ में जब माँ मोहिनी देवी (ज्ञानमती माताजी की माँ) को अजमेर में आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा लेते और उनका केशलोंच होते देखकर मोतीचंद जी के हृदय में परिवर्तन आया, वे सोचने लगे कि जब यह १३ सन्तानों को जन्म देकर ५७ वर्ष की उम्र में दीक्षा ले सकती हैं, तो मैं संयम-नियम का पालन क्यों नहीं कर सकता ? आपने सन् १९८१ में स्वरुचि से नमक और शक्कर इन दो रसों का त्याग कर दिया। ४ वर्ष के पश्चात् आपने उस त्याग के संकल्प को पूर्ण किया।
दीक्षा के पथ पर-सन् १९८५ से आप दीक्षा के लिए आतुर थे किन्तु सन् १९८७ में आपने पूज्य माताजी के समक्ष जम्बूद्वीप स्थल पर ही दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की, तब माताजी ने सहर्ष स्वीकृति प्रदान की।
जम्बूद्वीप स्थल पर प्रथम ऐतिहासिक दीक्षा समारोह-पूज्य माताजी की भावनानुसार परमपूज्य आचार्यश्री विमलसागर महाराज ने संघ सहित हस्तिनापुर आगमन की स्वीकृति प्रदान की तथा फाल्गुन शुक्ला नवमी, ८ मार्च १९८७ को शुभ मुहूर्त में विशाल जनसमुदाय के बीच आचार्यश्री ने मोतीचंद जी को क्षुल्लक दीक्षा देकर ‘‘मोतीसागर’’ नाम प्रदान किया।
पीठाधीश पद-दीक्षा के पश्चात् भी पूज्य क्षुल्लक मोतीसागर जी संस्थान की गतिविधियों में निर्देशन प्रदान कर अपने पद के योग्य कार्यों को सम्पन्न करवाते थे। अपने स्वाध्याय, पठन-पाठन व अपनी चर्या का निर्बाधरूप से पालन करते थे। इसी प्रकार सदा जम्बूद्वीप तीर्थ एवं यहाँ से संबंधित अन्य संस्थाओं का संचालन ऐसे ही त्यागी व्रती, गृहविरत व्यक्तित्व के द्वारा होता रहे, इसके लिए पूज्य माताजी ने सन् १९८७ में जम्बूद्वीप तीर्थ पर एक धर्मपीठ बनाकर यहाँ पीठाधीश पद की स्थापना की। पूज्य माताजी के द्वारा निर्धारित नियमानुसार पीठाधीश पद पर सदैव सातवीं से ग्यारहवीं प्रतिमा धारी तक के किसी भी योग्य एवं संस्थान के प्रति समर्पित त्यागी-व्रती को अभिषिक्त किया जा सकता है। पूज्य माताजी द्वारा ऐसी धर्मपीठ पर सर्वप्रथम पीठाधीश के रूप में क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज को २ अगस्त सन् १९८७, श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन आसीन किया गया।
णमोकार धाम तीर्थ-चूँकि स्ानावद नगरी पूज्य महाराज जी एवं देश के अनेक मुनि-आर्यिकाओं की जन्मस्थली के नाम से प्रसिद्ध है अत: पूज्य महाराज की सदा ये भावना थी कि वहाँ पर कोई एक विशेष तीर्थ का निर्माण होवे अत: उनकी प्रेरणा से सन् १९९६ में सनावद नगरी में पूज्य माताजी के आशीर्वाद से उनके संघ सान्निध्य में णमोकार धाम तीर्थ का शिलान्यास होकर णमोकार धाम तीर्थ का उद्भव हुआ।पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के चरण सान्निध्य में ४५ वर्षों के दीर्घ समय में उनसे अनुभव तथा ज्ञान प्राप्त कर अपने ज्ञान व चारित्र की वृद्धि करते हुए पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज ने अपने जीवन को सार्थक किया।
इस प्रकार अनेक गुणों के पुंज पूज्य महाराज जी ने अपने जीवन का पल-पल एवं क्षण-क्षण धर्म एवं गुरु की आराधना में व्यतीत किया और अंत में १० नवम्बर २०११, कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा, गुरुवार को मध्यान्ह १.०५ बजे मुनि अवस्था प्राप्त करके तीर्थ और गुरु की छत्र छाया में धर्म का उद्बोधन सुनते हुए सुन्दर समाधिमरण प्राप्त किया।उनके कार्यों, उपदेशों और आदर्शों के प्रति नमन करते हुए उस रत्नत्रयधारी आत्मा के प्रति हम भावभीना नमन अर्पित करते हैं।