श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतै: किमन्यै: सहस्रसंख्यानै:।
विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भाव:।।
श्री विद्यानंद स्वामी का यह कहना है कि एक अष्टसहस्री को ही सुनना चाहिए। अन्य हजारों ग्रन्थों को सुनने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस एक अष्टसहस्री ग्रंथ के द्वारा ही स्वसमय और परसमय का स्वरूप जान लिया जाता है।महान् आचार्य श्री उमास्वामी जी ने महान् ग्रंथराज तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ की रचना के प्रारंभ में ‘मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां। ज्ञातारं विश्वतत्वानां वंदे तद्गुणलब्धये’ इस मंगल श्लोक को रचा है। श्री समंतभद्रस्वामी ने इस मंगलाचरण श्लोक का आधार लेकर ‘आप्तमीमांसा’ नाम से एक स्तोत्र रचा, जिसका अपरनाम ‘देवागमस्तोत्र’ भी है। श्री भट्टाकलंक देव ने आप्तमीमांसा स्तुति पर ‘अष्टशती’ नाम से भाष्य बनाया है जो कि जैनदर्शन का एक अतीव गूढ़ ग्रंथ बन गया है। इसी आप्तमीमांसा ग्रंथ पर आचार्यवर्य श्री विद्यानंद महोदय ने ‘अष्टसहस्री’ नाम से अलंकार टीका बनाई है। इसमें अष्टशती ग्रंथ को अंतर्गर्भित किया है, जो कि जैनदर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ कहलाता है। इसमें दश परिच्छेद में १. भाव-अभाव, २. द्वैत-अद्वैत, ३. नित्य-अनित्य, ४. भेद-अभेद, ५. अपेक्षा-अनपेक्षा, ६. हेतु-आगम, ७. अंतरंगार्थ-बहिरंगार्थ, ८. दैव-पुरुषार्थ, ९. पुण्य-पाप, १०. अज्ञान-ज्ञानवाद, इन एक-एक प्रकरणों के एकांतों का पूर्वपक्षपूर्वक निरसन करके सर्वत्र स्याद्वाद प्रक्रिया से वस्तु तत्त्व को समझाया गया है। वास्तव में तत्त्व अतत्त्व को तत्त्व में समझने के लिए यह न्याय ग्रंथ एक कसौटी का पत्थर है और अधिक तो क्या कहा जाये स्वामी श्री समंतभद्राचार्यवर्य ने आप्त और अनाप्त की मीमांसा करते हुए आप्त-अर्हंतदेव को ही न्याय की कसौटी पर कसकर सत्य आप्त सिद्ध किया है, देखिए-
देवागम-नभोयान – चामरादि – विभूतय:।
मायाविष्वपि दृष्यंते नातस्त्वमसि नो महान्।।१।।
अतिशय गुणों से युक्त भगवान् की स्तुति करने के इच्छुक श्री समंतभद्र- स्वामी स्वयं अपनी श्रद्धा और गुणज्ञता लक्षण प्रयोजन से ही इस देवागम स्तव में आप्त की मीमांसा करते हुए भगवान से प्रश्नोत्तर करते हुए के समान ही कहते हैं अर्थात् मानो भगवान् यहां प्रश्न कर रहे हैं कि हे समंतभद्र! मुझ में देवों का आगमन, चमर, छत्रादि अनेकों विभूतियाँ हैं फिर भी तुम मुझे नमस्कार क्यों नहीं करते हो ? तब उत्तर में स्वामी जी कहते हैं कि ‘‘हे भगवन्! आपके जन्मकल्याणक आदिकों में देव, चक्रवर्ती आदि का आगमन, आकाश में गमन, छत्र, चामर, पुष्पवृष्टि आदि विभूतियाँ देखी जाती हैं किन्तु ये विभूतियाँ तो मायावी जनो में भी हो सकती हैं अतएव आप हमारे लिए महान्-पूज्य नहीं हैं।इस पर भगवान् मानो पुन: प्रश्न करते हैं कि हे समंतभद्र! बाह्य विभूतियों से तुमने हमें नमस्कार नहीं किया, तो न सही किन्तु मस्करी आदि में असंभवी ऐसे अंतरंग में पसीना आदि का न होना एवं बहिरंग में जो गंधोदकवृष्टि आदि महोदय हैं, जो कि दिव्य और सत्य हैं वे मुझमें हैं अत: आप मेरी स्तुति करिये। इस पर श्री समंतभद्र स्वामी कहते हैं कि अंतरंग और बहिरंग शरीरादि के महोदय भी रागादिमान देवों में पाये जाते हैं अत: इनसे भी आप महान नहीं हैं अर्थात् देवों के शरीर में भी पसीना, मलमूत्रादि नहीं है उनके यहाँ भी गंधोदकवृष्टि आदि वैभव होते हैं अत: इन महोदय से भी आप हमारे पूज्य नहीं हैं।
मानो पुन: भगवान् कहते हैं कि हे समंतभद्र! रागादिमान देवों में भी असंभवी ऐसे तीर्थकृत संप्रदाय को चलाने वाला ‘मैं तीर्थंकर हूूँ’ अत: मैं अवश्य ही तुम्हारे द्वारा स्तुति करने के योग्य हूँ। इस पर श्री समंतभद्रस्वामी प्रत्युत्तर देते हुए के समान कहते हैं कि हे भगवन्! आगमरूप तीर्थ को करने वाले सभी तीर्थंकरों के आगमों में परस्पर में विरोध पाया जाता है अत: सभी तो आप्त हो नहीं सकते अर्थात् बुद्ध, कपिल, ईश्वर आदि सभी ने अपने-अपने आगमों को रचकर अपना-अपना तीर्थ चलाकर अपने को तीर्थंकर माना है किन्तु सभी के आगम में परस्पर में विरोध होने से सभी सच्चे आप्त नहीं हो सकते हैं इसलिए इन सभी में कोई एक ही परमात्मा-सच्चा आप्त हो सकता है, ऐसा अर्थ ध्वनित कर देते हैं। इस कारिका की अष्टसहस्री टीका में श्री विद्यानंद महोदय ने बहुत ही विस्तार से सभी सम्प्रदायों का परस्पर में विरोध दर्शाया है।
अन्य सम्प्रदायों में वेदों को प्रमाण मानने वाले वैदिक संप्रदायी हैं। उनमें मीमांसक, वैशेषिक, नैयायिक एवं सांख्य वैदिक कहलाते हैं और चार्वाक, बौद्ध आदि वेद को नहीं मानने वाले अवैदिक कहलाते हैं। आजकल कुछ लोग वेद के मानने वालों को आस्तिक एवं नहीं मानने वालों को नास्तिक कहते हैं और उसमें जैन को भी नास्तिक में लिया है, क्योंकि जैन भी वेदों को प्रामाणिक नहीं मानते हैं किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है, जो आत्मा, मोक्ष, परलोक आदि के अस्तित्व को मानते हैं वे आस्तिक एवं आत्मा आदि के अस्तित्व को न मानने वाले नास्तिक कहलाते हैं अत: चार्वाक और शून्यवादी नास्तिक हैं बाकी सभी आस्तिक की कोटि में आ जाते हैं। अस्तु! सभी के सम्प्रदायों के परस्पर विरोध का यहाँ किंचित् दिग्दर्शन कराते हैं।
चार्वाक-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार जड़ तत्वों को ही मानता है। उसका कहना है कि इन्हीं भूतचतुष्टयों के मिलने से संसार बना है और इन्हीं भूतचतुष्टयों से आत्मा की उत्पत्ति होती है। ये चार्वाक परलोकगमन, पुण्य-पाप का फल आदि नहीं मानते हैं। वेदांती एक ब्रह्मरूप ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, उनका कहना है कि एक परमब्रह्म ही तत्त्व है। संपूर्ण विश्व में जो चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं हम और आप सभी उस एक परमब्रह्म की ही पर्यायें हैं। यह चर-अचर जगत मात्र अविद्या का ही विलास है इत्यादि। बड़े आश्चर्य की बात है कि एक जड़ से चैतन्य की उत्पत्ति मान रहा है, तो दूसरा चैतन्य ब्रह्म से अचेतनोें की उत्पत्ति मान रहा है, दोनों में सर्वथा परस्पर विरोध है।ऐसे ही बौद्ध सभी वस्तुओं को क्षणिक मानते हैं उनका कहना है कि एक क्षण के बाद सभी वस्तुएँ जड़-मूल से नष्ट हो जाती हैं, जो उनका ठहरना द्वितीय आदि क्षणों में दिख रहा है, वह सब कल्पनामात्र है। वासना से ही ऐसा अनुभव आता है। इधर सांख्य कहता है कि सभी वस्तुएँ सर्वथा नित्य ही हैं कोई वस्तु नष्ट नहीं होती है किन्तु तिरोभूत हो जाती है एवं उत्पत्ति भी नहीं है। वस्तु का आविर्भाव ही होता है। मिट्टी से घट बनता नहीं है बल्कि मिट्टी में घट सदा विद्यमान है। कुम्हार के प्रयोग से प्रगट हो गया है इत्यादि। इन दोनों में भी सर्वथा ३६ का आंकड़ा है।
वैशेषिक-एक सदाशिव महेश्वर को मानकर उसे सृष्टि का कर्ता मानते हैं तो मीमांसक सर्वज्ञ के अस्तित्व को न मानकर वेद वाक्यों से ही सम्पूर्ण सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का जानना मानते हैं। वेद को प्रमाण मानने वालों में भी उन वेद वाक्यों को पृथक्-पृथक् अर्थ करके कई लोग आपस में विसंवाद करते हैं। भाट्ट वेद वाक्यों का अर्थ भावना करते हैं। प्रभाकर उन्हीं वाक्यों का अर्थ नियोग करते हैं और वेदांती उन्हीं वाक्यों से ब्रह्मवाद को पुष्ट करते हैं।अतएव श्री समंतभद्रस्वामी कहते हैं कि सभी के सम्प्रदायों में परस्पर में विरोध होने से सभी आप्त नहीं हो सकते हैं किन्तु कोई एक ही आप्त-सच्चा देव हो सकता है। पुन: मानों भगवान् यह प्रश्न करते हैं कि सच्चे आप्त में आप क्या गुण चाहते हैं ? तो समंतभद्रस्वामी कहते हैं कि वह सर्वज्ञ होना चाहिए। सूक्ष्म-परमाणु आदि, अंतरित-राम रावण आदि और दूरवर्ती-हिमवन, सुमेरु आदि पदार्थ अनुमान ज्ञान से जाने जाते हैं जैसे कहीं पर धुएं को देखकर अग्नि का अनुमान लगाया जाता है, तो वह अग्नि किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य है और जिनके ये सूक्ष्मादि पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैं, वे ही सर्वज्ञ हैं। पुन: प्रश्न होता है कि हम संसारी प्राणी अल्पज्ञ हैं तो सर्वज्ञ वैâसे बन सकते हैं, इस पर आचार्य कहते हैं कि दोष और आवरणों का अभाव किसी जीव में सम्पूर्ण रूप से हो सकता है क्योंकि हम लोगों में दोष-रागादि भाव और आवरण-कर्मों की तरतमता देखी जाती है। किन्हीं में रागादि दोष कम हैं किन्हीं में उससे भी कम हैं। इससे यह अनुमान लगता है कि किसी जीव में ये दोषादि सर्वथा भी नष्ट हो सकते हैं जैसे कि अपने निमित्तों से स्वर्ण पाषाण से किट्ट और कालिमा का सर्वथा अभाव हो जाता है और सुवर्ण शुद्ध हो जाता है।
प्रश्न-दोष और आवरण में क्या अन्तर है ?
उत्तर–कर्म के उदय से होने वाले जीव के राग-द्वेष, अज्ञान आदि परिणाम दोष कहलाते हैं। इन्हें भावकर्म भी कहते हैं। ज्ञानावरण आदि पौद्गलिक कर्म आवरण कहलाते हैं इन्हें द्रव्य कर्म कहते हैं। इन दोनों में परस्पर में कार्य-कारण भाव निश्चित है जैसे बीज से अंकुर एवं अंकुर से बीज की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। उसी प्रकार से दोष से आवरण और आवरण से दोष होते रहते हैं।
बौद्ध-अज्ञानादि दोष स्वपरिणाम के निमित्त से ही होते हैं इसमें आवरण (कर्म का उदय) कुछ भी नहीं कर सकता है।
जैनाचार्य-ऐसा नहीं है। यदि दोषों को स्वनिमित्तक ही मानोगे, तो इनका कभी अभाव नहीं हो सकेगा पुन: इसके नाश के बिना मोक्ष होना भी असंभव हो जावेगा। जैसे-जीव के जीवत्व आदि भाव स्वनिमित्तक होने से कभी नष्ट नहीं होते हैं, इसलिए दोषों को आवरण निमित्तक मानना ही चाहिए।
सांख्य-अज्ञान आदि दोष परनिमित्तक ही हैं क्योंकि ये स्वयं प्रधान-प्रकृति-जड़ के परिणाम हैं, आत्मा के नहीं।
जैनाचार्य-ये दोष सर्वथा परपुद्गल के निमित्त से ही हों, ऐसी बात नहीं है अन्यथा मुक्त जीवों में भी इनका प्रसंग आ जावेगा, क्योंकि पुद्गल वर्गणाएं तो वहाँ भी मौजूद हैं किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता है। उन सिद्धों में अज्ञान आदि दोष के न होने से केवल पुद्गल के निमित्त से वहाँ पर कर्मबंध नहीं होता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि राग-द्वेष आदि से कर्मबंध होता है और कर्म के उदय से दोष होते हैं। जैसे-ज्ञानावरण कर्म के उदय से जीव में अज्ञान, दर्शनावरण के उदय से अदर्शन, दर्शनमोहनीय के उदय से मिथ्यात्व, चारित्रमोहनीय के उदय से अचारित्र आदि दोष होते हैं। वैसे ही प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अंतराय आदि भावों के निमित्त से ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है। केवली, श्रुत, संघ, धर्म आदि को झूठा दोष लगाने से दर्शनमोहनीय का एवं कषायों की तीव्रता से चारित्रमोहनीय का आस्रव होकर बंध होता है। इस प्रकार से भावकर्म के लिए निमित्त कारण द्रव्यकर्म हैं एवं द्रव्यकर्म के लिए निमित्त कारण भावकर्म हैं, ऐसा निश्चय हो जाता है।जो लोग ऐसा समझते हैं कि मेरी भूल से ही संसार है कर्म का उदय मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता, उन्हें अपनी एकांत मान्यता को हटा देना चाहिए।
प्रश्न-जैसे किसी जीव में दोष और आवरण का पूर्णतया नाश हो सकता है, ऐसे ही किसी जीव में बुद्धि ज्ञान का भी पूर्णतया नाश मान लेना चाहिए ?
उत्तर-ठीक है। हम स्याद्वादी हैं। किसी जीव ने पृथ्वीकाय आदि को शरीररूप से ग्रहण करके छोड़ दिया है, अत: उन पाषाण, मिट्टी आदि में चैतन्य ज्ञान का सर्वथा अभाव हो गया। इससे यह समझना चाहिए कि भस्म, लोष्ठ आदि पृथ्वीकाय सर्वथा अजीव हैं। पृथ्वीकायिक में ही जीव विद्यमान रहता है। दूसरी बात यह है कि मति, श्रुत आदिरूप क्षयोपशम ज्ञान का अभाव हो जाता है किन्तु पूर्ण-केवलज्ञान का किसी जीव में अभाव होना संभव नहीं है। क्योंकि ज्ञान यह जीव का स्वाभाविक परिणाम है।
आत्मा के परिणाम दो प्रकार के हैं-स्वाभाविक और आगंतुक। अनंतज्ञान आदि गुण स्वाभाविक हैं और अज्ञान आदि मल आगंतुक हैं। आगंतुक मिथ्यात्व, राग-द्वेष, अज्ञान आदि दोष के प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन आदि गुणों की वृद्धि हो जाने से दोषों का अभाव हो जाता है।
मीमांसक-सम्पूर्ण कर्मों से रहित भी आत्मा परमाणु, धर्म, अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को वैâसे जानेगा ? इनका ज्ञान तो वेद वाक्यों से ही होता है, अत: विश्व में कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है।
जैनाचार्य-सूक्ष्म, परमाणु आदि और राम-रावण, सुमेरु आदि पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि वे अनुमान ज्ञान के विषय हैं। सर्वज्ञ भगवान अतीन्द्रिय ज्ञान से ही सूक्ष्मादि पदार्थों को जानते हैं, इन्द्रिय ज्ञान से नहीं, क्योंकि इन्द्रियाँ तो वर्तमान और नियत पदार्थ को ही विषय करती हैं, भूत, भविष्यत् के अनंत पदार्थों को नहीं। वेद वाक्यों से सूक्ष्मादि पदार्थों का ज्ञान मानने में तो सबसे पहले वेद को सर्वज्ञ का वाक्य कहना होगा, अन्यथा हम और आप जैसे अल्पज्ञ का कथन निर्दोष नहीं हो सकेगा।
अत: कोई न कोई कर्ममल-कलंक रहित अकलंक आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी है, वही निर्दोष है यह बात सिद्ध हो जाती है। अब वह निर्दोष, सर्वज्ञ आत्मा कौन हो सकता है ? इस बात की सिद्धि करते हैं-
चार्वाक-कोई तीर्थंकर प्रमाण नहीं हैं, न कोई आगम हैं, न वेद हैं अथवा न कोई तर्क अनुमान ही है बस एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन भूतचतुष्टय से ही चैतन्य की उत्पत्ति होती है।
जैनाचार्य-यह बात ठीक नहीं है, देखिए। यदि आप प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं तब तो कोई भी प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध नहीं कर सकते हैं। अच्छा! आप पहले इन्द्रिय प्रत्यक्ष से सारे विश्व में घूमकर देख लो कि कहीं भी सर्वज्ञ तीर्थंकर नहीं हैं, तभी आपका कहना सत्य होगा और यदि आपने सारे विश्व को देख लिया, जान लिया, तब तो आप स्वयं ही सर्वज्ञ बन गये क्योंकि ‘सर्वं जानातीति सर्वज्ञ:’ जो सभी को जानता है, वही सर्वज्ञ है।
तत्त्वोपप्लववादी-सभी प्रमाण प्रमेय उपप्लुत ही हैं अर्थात् अभावरूप ही हैं, इसलिए सर्वज्ञ कोई है ही नहीं।
जैनाचार्य-आप सभी प्रमाण-ज्ञान, प्रमेय-जीवादि वस्तुओं का अभाव मानते हैं, तब आप अपना और अपनी मान्यता-शून्यवाद का अस्तित्व स्वीकार करते हैं या नहीं ? यदि करते हैं तब तो सर्वथा शून्यवाद नहीं रहा। यदि अपना तथा अपनी मान्यता का भी अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं, तब तो आपका कथन भी अस्तित्व रहित होने से वैâसे माना जायेगा, जैसे कि आकाश का कमल नहीं माना जा सकता है।
विशेष-मीमांसक, चार्वाक और तत्त्वोपप्लववादी ये तीनों सर्वज्ञ को मानते ही नहीं हैं एवं बौद्ध, सांख्य, वैशेषिक और ब्रह्मवादी ये लोग सर्वज्ञ को तो मानते हैं किन्तु उनकी मान्यताएं गलत हैं, इस बात का स्पष्टीकरण आगे समयानुसार होगा। हे भगवन्! जो आत्मा कर्ममल रहित निर्दोष और सर्वज्ञ है वह आप ही हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी हैं। वह आपका अविरोध इष्ट-शासन, प्रसिद्ध-प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित नहीं होता है अर्थात् घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता ये तीन गुण आप अर्हंत में ही घटित होते हैं अन्यत्र किसी में घटित नहीं होते हैं, इसलिए आप अर्हंत ही निर्दोष सर्वज्ञ हैं क्योंकि आपके वचनोें में किसी प्रकार का विरोध न होने से आपका मत बाधा रहित सर्व प्राणी को हितकर है और आपके शासन में संसार और मोक्ष तथा संसार के कारण और मोक्ष के कारण ये चार तत्त्व बाधा रहित हैंं। ये चारों बाधा रहित वैâसे हैं ? इनकी समीक्षा देखिए-
सांख्य-प्रकृति और पुरुष का भेदज्ञान हो जाने पर चैतन्यमात्र स्वरूप में आत्मा का अवस्थान हो जाना मोक्ष है। सर्वज्ञता प्रधान-जड़ का स्वरूप है आत्मा का नहीं, क्योंकि ज्ञानादि अचेतन हैं। वे प्रकृति के ही स्वरूप हैं।
जैनाचार्य-यह आपका कथन असंभव है। हमारे यहाँ तो अनंतज्ञान, दर्शन, सुख आदि स्वरूप चैतन्य में अवस्थान हो जाने को ही मोक्ष कहा है, क्योंकि ज्ञानादि आत्मा के स्वभाव हैं, जैसे-चैतन्य। वे ज्ञानादि आत्मा को छोड़कर अन्यत्र अचेतन में नहीं पाये जाते हैं। ज्ञान से ही आत्मा सुख-दु:ख का अनुभव करता है। ज्ञान को आत्मा का स्वभाव नहीं मानने पर तो आत्मा का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा।
वैशेषिक-बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नव विशेष गुणों का नाश हो जाना ही मोक्ष है क्योंकि बुद्धि आदि आत्मा के स्वभाव नहीं हैं, आत्मा से भिन्न हैं।
जैनाचार्य-यह आपका कथन असंभ्ाव है। हमारे यहाँ तो अनंतज्ञान, दर्शन, सुख आदि स्वरूप चैतन्य में अवस्थान हो जाने को ही मोक्ष कहा है, क्योंकि ज्ञानादि आत्मा के स्वभाव हैं, जैसे-चैतन्य। वे ज्ञानादि आत्मा को छोड़कर अन्यत्र अचेतन में नहीं पाये जाते हैं। ज्ञान से ही आत्मा सुख-दु:ख का अनुभव करता है। ज्ञान को आत्मा का स्वभाव नहीं मानने पर तो आत्मा का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।यदि मुक्ति में बुद्धि-ज्ञान और सुख का ही विनाश माना जायेगा, तब मुक्ति के लिए कौन बुद्धिमान प्रयत्न करेगा।ज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है कर्ता और करण की अपेक्षा से कथंचित् ही भिन्न है। हाँ! इतनी बात अवश्य है कि क्षायोपशमिक ज्ञान और सातावेदनीयजन्य सुख का तो हम लोग भी मुक्ति में विनाश मान लेते हैं किन्तु क्षायिक-पूर्णज्ञान और अतीन्द्रिय अव्याबाध सुख का तो मोक्ष में अभाव नहीं है प्रत्युत ज्ञान और सुख की पूर्णता के लिए ही मोक्ष पाने का प्रयत्न किया जाता है।
वेदांतवादी-मुक्त जीव के अंनत सुख संवेदनरूप ज्ञान तो है, किन्तु उन्हें बाह्य पदार्थ का ज्ञान नहीं है।
जैनाचार्य-पहले यह बताओ कि मुक्त जीव के इन्द्रियों का अभाव है इसलिए बाह्य पदार्थ का ज्ञान नहीं है, या बाह्य पदार्थ का अभाव है इसलिए उनका ज्ञान नहीं है ? यदि बाह्य पदार्थ का अभाव कहें तो सुख का भी अभाव हो जायेगा, क्योंकि आप अद्वैतवादियों ने सुख को भी बाह्य पदार्थ ही माना है। यदि इन्द्रिय का अभाव कहो, तब तो उन्हें सुख का अनुभव वैâसे होगा ?
बौद्ध-आस्रव रहित चित्त की उत्पत्ति ही मोक्ष है।
जैनाचार्य-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान क्षणों में अन्वय पाया जाता है तथा निरन्वय क्षण क्षय (अन्वय रहित क्षण-क्षण में क्षय होने की व्यवस्था) को एकान्त से स्वीकार करने पर आपके द्वारा मान्य मोक्ष की सिद्धि बाधित ही है।इस प्रकार से अन्य मतावलंबियों द्वारा मान्य मोक्ष तत्त्व में बाधा आती है, अत: जैनों द्वारा मान्य ‘कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:’ सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना मोक्ष है, वहाँ पर अनंत गुणों की सिद्धि हो जाती है।
मोक्ष के कारण की समीक्षा-सांख्य ज्ञानमात्र को ही मोक्ष का कारण मानते हैं, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ भगवान के क्षायिक अनंतज्ञान की पूर्णता हो जाने पर भी अघातिया कर्मों के शेष रहने से उनका परमौदारिक शरीर पाया जाता है, यदि ज्ञान उत्पन्न होते ही मोक्ष हो जावे, तो यहाँ पर सर्वज्ञ का रहना, उपदेश आदि देना नहीं घटेगा तथा यदि एकांत से ज्ञान ही मोक्ष का कारण मान लिया जावे, तो सभी के आगम में दीक्षा आदि बालचारित्र का अनुष्ठान एवं सकल दोषों के अभावरूप अभ्यन्तर चारित्र का जो वर्णन है, वह सब व्यर्थ हो जावेगा किन्तु सभी ने तो दीक्षा ग्रहण, गेरुआ वस्त्र धारण और ध्यान आदि को माना ही है।ऐसे ही कोई मात्र सम्यग्दर्शन से या कोई-कोई मात्र चारित्र से, क्रियाकांड से ही मुक्ति मानते हैं। उन सबकी मान्यता गलत है।हम जैनों ने तो ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्ग:’ इस आगम सूत्र से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोें की एकता को ही मोक्ष माना है और यही मान्यता सुसंगत है इसलिए जैनाचार्य द्वारा मान्य मोक्ष के कारण तत्त्व ठीक ही हैं।
कोई मोक्ष को अकारणक ही कहते हैं किन्तु यह मान्यता बिल्कुल गलत है क्योंकि अनिमित्तक मोक्ष होने से तो हमेशा ही सभी जीवों को मोक्ष हो जावेगा, पुन: कोई संसारी और दु:खी रहेगा ही नहीं, किन्तु ऐसा तो प्रत्यक्ष से ही बाधित है।
संसार की समीक्षा-सांख्य कहता है कि प्रकृति-जड़ को ही संसार है आत्मा को नहीं है, किन्तु ऐसी एकांत मान्यता गलत है। हम देखते हैं कि जड़ के संसर्ग से यह संसारी आत्मा संसार में जन्म, मरण आदि अनेकों दु:खों को उठा रही है। ‘संसरणं संसार:’ संसरण करना-एक गति से दूसरी गति में गमन करना इसी का नाम संसार है। इसके पंचपरिवर्तन की अपेक्षा पाँच भेद हैं-द्रव्य संसार, क्षेत्र संसार, काल संसार, भव संसार और भाव संसार। इनका विवेचन फिर कभी किया जावेगा, इसलिए संसार तत्त्व भी सिद्ध ही है।
संसार के कारण की समीक्षा-सांख्यों ने मिथ्याज्ञान मात्र को ही संसार का कारण माना है, सो ठीक नहीं है क्योेंकि मिथ्याज्ञान का अभाव हो जाने पर भी राग आदि दोषों का अभाव न होने से संसार का अभाव नहीं होता है। यह बात स्वयं सांख्यों ने भी मान ली है एवं हम जैनों को मान्य संसार के कारण आगम में प्रसिद्ध हैं ‘मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतव:’ मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच बंध के कारण हैं। बंध से ही संसार होता है अत: बंध के कारण ही संसार के कारण माने गये हैं।
किन्हीं का कहना है कि संसार के कारण मिथ्यात्व आदि अनादिकालीन हैं अत: ये निर्हेतुक हैं किन्तु ऐसी बात नहीं है यद्यपि ये संसार के कारण अनादि हैं फिर भी अहेतुक (अकारणक) नहीं हैं। इनके कारण द्रव्यकर्म मौजूद हैं तथा द्रव्यकर्म के कारण ये भावकर्म हैं, इनमें परस्पर में कार्य-कारण भाव पाया जाता है इसीलिए इन मिथ्यात्व आदि कार्यों का सम्यग्दर्शन आदि कारणों से विनाश भी हो सकता है अन्यथा निर्हेतुक का विनाश होना असंभव ही हो जाता।
इस प्रकार से आप्त-अर्हंत भगवान् के शासन में मोक्ष और मोक्ष के कारण तथा संसार और संसार के कारण ये चार तत्त्व अबाधित रूप से सिद्ध हैं अत: आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी सिद्ध हैं और इसीलिए आप्ा निर्दोष परमात्मा हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है।
हे भगवन्! आपके शासनरूपी अमृत से जो बहिर्भूत हैं और ‘‘मैं आप्त हूँ’’ इस प्रकार अभिमान से दग्ध हैं, उन एकांतवादियों का शासन प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित है। जैसे कि-
सांख्य कहता है कि सुखादि अचेतन हैं क्योंकि वे उत्पन्न होते हैं किन्तु जैनाचार्य सुख, ज्ञान आदि को चैतन्य आत्मा में ही मानते हैं अन्यत्र नहीं और प्रत्येक द्रव्य को उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक मानते हैं।बौद्ध कहता है कि वर्ण आदि परमाणु ही निर्विकल्प ज्ञान में झलकते हैं, वे ही हैं, स्कंध नाम की कोई चीज नहीं है। किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि परमाणु अत्यंत सूक्ष्म हैं। वे सर्वज्ञ के अथवा मन:पर्यय ज्ञानी, अवधिज्ञानी के ही ज्ञान का विषय हो सकते हैं अन्य मति, श्रुत ज्ञान के विषय नहीं हो सकते हैं। दो, तीन, चार से लेकर अनंतानंत परमाणुओं का मिलकर स्कंध बनता है, उसमें भी कुछ स्कंध अचाक्षुष हैं। शब्दादि स्कंध भी दृष्टि के विषय नहीं हैं मात्र चक्षु इन्द्रिय गम्य स्थूल स्कंध ही अपने ज्ञान में झलकते हैं और कल्पना मात्र नहीं हैं।चार्वाक भूतचतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति मानता है किन्तु चैतन्य तत्त्व अनादिनिधन है। ब्रह्माद्वैतवादी एक ब्रह्म से ही चेतन-अचेतन की उत्पत्ति मानता है किन्तु सर्वथा चेतन-अचेतन द्रव्य अपनी सत्ता को लिए हुए पृथक्-पृथक् ही हैं।
हे नाथ! नित्य अथवा अनित्य आदि एकांत मान्यताओं के दुराग्रही स्व और पर के वैरी मिथ्यादृष्टि जनों में किसी के यहाँ भी पुण्य-पापादि क्रियाओं एवं परलोक आदि भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं।यदि कोई कहे कि शून्यवादियों ने और अद्वैतवादियों ने तो स्वयं ही पुण्य-पाप, परलोक आदि को माना ही नहीं है अन्यथा उनका शून्यवाद नहीं टिकेगा और द्वैतवाद आ जायेगा। आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उन लोगों ने भी पुण्य-पाप आदि को और परलोक को भी संवृति (कल्पना) से माना है और अद्वैतवादियोें ने अविद्या से प्राय: सुख-दु:ख, पुण्य-पाप और इहलोक, परलोक को स्वीकार किया ही है किन्तु ये सब एकांतवादी दुराग्रही हैं अत: इनके यहाँ किसी भी तत्त्व की सिद्धि असंभव है।सांख्य सभी तत्त्वों को भावरूप ही मानता है उसके यहाँ अभाव या विनाश नाम की कोई चीज नहीं है उसका कहना है कि मिट्टी में घट विद्यमान है, कुंभार, दण्ड, चाक आदि निमित्तों से वह घट आविर्भूत हुआ है न कि उत्पन्न। कुम्हार, चाक आदि दीपक की तरह ज्ञापक निमित्त हैं कारक निमित्त नहीं हैं इत्यादि। आचार्य कहते हैं कि यदि ‘अभाव’ को नहीं माना जाएगा, तो प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यंताभाव इन चारों अभावों का लोप हो जावेगा जो कि सर्वथा विरुद्ध है। अब इन अभावों के लक्षण बताते हैं-
भावैकांते पदार्थाना – मभावानामपन्हवात्।
सर्वात्मकमनाद्यन्त-मस्वरूपमतावकम्।।९।।
सांख्य एकांत से पदार्थों को भावरूप ही मानता है। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि सभी पदार्थों को भावरूप ही मानने पर तो अभावों का लोप हो जायेगा। अभाव के चार भेद हैं-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यंताभाव। प्रागभाव को नहीं मानने पर तो सभी कार्य अनादि हो जायेंगे। प्रध्वंस धर्म का लोप करने पर सभी अनंत हो जायेंगे। इतरेतराभाव के अभाव में सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायेंगे तथा अत्यंताभाव के न मानने से सभी पदार्थ अस्वरूप-अपने स्वभाव से शून्य हो जायेंगे।
प्रागभाव-कार्य का उत्पन्न होने के पहले न होना प्रागभाव है। जैसे-घट बनने के पहले मिट्टी रूप कारण में घटरूप कार्य का अभाव है वह प्राक्-पहले अभाव न होना प्रागभाव है। द्रव्य की अपेक्षा प्रागभाव अनादि है और पर्याय की अपेक्षा आदि है। घट बनाने के लिए मिट्टी के पिंड को चाक पर रखकर घुमाया। उसकी स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायें बनीं उनमें जिस क्षण के बाद ही घट बनने वाला है उस क्षण को ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से प्रागभाव कहते हैं इसके पूर्व-पूर्व पर्यायों को भी प्रागभाव कहते हैं किन्तु अन्तिम क्षण की पर्याय का विनाश होने पर ही घट बनता है इसलिए प्रागभाव का अभाव होकर घट बनता है। यदि मिट्टी में घट का प्रागभाव न मानें तो घटद्रव्य अनादिकाल से मिट्टी में बना रहेगा। प्रागभाव के न मानने पर कार्य-द्रव्य अनादि हो जायेंगे, अत: प्रागभाव मानना जरूरी है।
प्रध्वंसाभाव-यदि प्रध्वंस को न मानें तो घट आदि कार्यों का कभी भी नाश नहीं होगा पुन: वे अनंत हो जायेंगे किन्तु ऐसा नहीं है। विद्यमान घट में प्रध्वंसाभाव का अभाव करके अर्थात् घट का प्रध्वंस करके कपाल उत्पन्न होते हैं इसलिए प्रध्वंसाभाव भी वास्तविक है।
इतरेतराभाव-एक पर्याय का दूसरी पर्याय में न होना इतरेतराभाव है। जैसे-पुद्गल की पुस्तक पर्याय में चौकी पर्याय का अभाव है। जीव की मनुष्य पर्याय में देव पर्याय का अभाव है। यदि इस इतरेतराभाव को न माना जाय, तो एक मनुष्य पर्याय में देव, नारक आदि पर्यायें आ जायेंगी। पुन: सभी पदार्थ अन्य स्वरूप हो जावेंगे। अत: इतरेतराभाव भी मान्य है।
अत्यंताभाव-एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का अभाव अत्यंताभाव है। जैसे-जीव द्रव्य पुद्गलरूप नहीं होता है। पुद्गल जीवरूप नहीं होता है। सांख्यमत बौद्ध आदि मत रूप नहीं होता है, इत्यादि रूप से यदि अत्यंताभाव को नहीं मानेंगे तो सभी वस्तुएँ पर स्वभाव के मिश्रण हो जाने से अपने स्वभाव से शून्य हो जायेंगी, तो वे अवस्तु हो जावेंगी अत्ा: यह भी आवश्यक है।भावार्थ-जिसके अभाव में नियम से कार्य की उत्पत्ति होवे, वह प्रागभाव है। जिसके होने पर नियम से कार्य का विनाश होवे वह प्रध्वंस है।
जिसके सद्भाव में दूसरी अनंतों पर्यायों का अभाव रहे वह इतरेतराभाव है। घट-पट का परस्पर में इतरेतराभाव है।भिन्न-भिन्न द्रव्य में अत्यंताभाव है। जीव स्वरूप से अस्तित्वरूप होकर भी पुद्गलादि से अभावरूप है क्योंकि सभी पदार्थ स्वरूप से भावरूप और पररूप से अभावरूप लक्षण वाले ही हैं।
मीमांसक शब्द को नित्य मानता है अत: उसमें प्रागभाव नहीं मानता है किन्तु जैनाचार्यों ने शब्द को पौद्गलिक शब्द वर्गणा रूप होने से नित्य माना है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य माना है इसलिए शब्द में प्रागभाव घटित हैं। वक्ता के तालु आदि प्रयत्न से शब्द उत्पन्न होते हैं और विनष्ट भी होते हैं।नैयायिक अभाव को सर्वथा तुच्छाभाव रूप ही मानता है किन्तु जैनाचार्य अभाव को भावांतर रूप मानते हैं। जैसे-‘अजैन:’ कहने से जैन के बजाय और किसी अन्य धर्म वाले व्यक्ति का बोध होता है न कि सर्वथा अभाव का। दीपक के बुझने पर प्रकाश का अभाव हुआ मतलब अंधकार का सद्भाव हुआ। प्रकाश और अंधकार दोनों पुद्गल की ही पर्यायें हैं अत: जैनाचार्यों द्वारा मान्य अभाव भावांतर (भिन्न भाव) रूप ही है।नैयायिक शब्द को अमूर्तिक-आकाश का गुण अमूर्तिक ही मानता है उसका कहना है कि ‘शब्द पुद्गल का स्वभाव नहीं है क्योंकि उसका स्पर्श नहीं पाया जाता है सुखादि के समान’ यदि शब्द को पुद्गल की पर्याय मानोगे, तब तो उनका चक्षु से देखना, मर्यादा को उल्लघंन कर आगे भी पैâलना, बिखरना, कर्ण में भर जाना, एक ही श्रोत्रेन्द्रिय में प्रवेश हो जाना आदि अनेक दोष आते हैं।शब्द तो निश्छिद्र महल के भीतर से निकल जाते हैं एवं आभ्यंतर में बाहर से आकर प्रवेश कर जाते हैं, व्यवधान का भेदन भी नहीं करते हैं अतएव वे पौद्गलिक नहीं हैं।
जैनाचार्य-शब्द पुद्गल की ही पर्याय हैं। अत: मूर्तिक ही हैं, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से सहित हैं क्योंकि ‘‘स्पर्शरसगंधवर्णवन्त: पुद्गला:’ यह सूत्र है। बहुत से पुद्गल स्कंध भी ऐसे अचाक्षुष हैं जिनका स्पर्श आदि व्यक्त नहीं है, एतावता उनको अमूर्तिक नहीं कह सकते एवं न उनका अभाव ही कर सकते हैं तथा शब्द से प्रतिघात भी देखा जाता है। कोई मोटी एवं कड़ी पूड़ी आदि खा रहा है, उसके कड़-कड़ शब्दों से प्राय: प्रतिघात देखा जाता है। जैसे-कोई पुरुष उच्चध्वनि से पाठ कर रहा है और दूसरा धीरे-धीरे बोल रहा है, तो उसकी ध्वनि दब जाती है अत: शब्द का स्पर्श नहीं मानना गलत है।
जो आपने ‘चक्षु आदि से दिखना चाहिए’ इत्यादि दोष दिये हैं वे भी दोष गंध परमाणुओं में भी मानने पड़ेंगे क्योंकि गंध परमाणु भी पुद्गल की पर्याय हैं, वे भी नहीं दिखते हैं। यदि आप कहें कि गंध परमाणु अदृश्य हैं अत: चक्षु इन्द्रिय से नहीं देखे जाते हैं, पुन: शब्दों को भी तथैव मानो, क्या बाधा है ? पवन से प्रेरित होने पर उन शब्दों का विस्तृत होना आदि मानो तो गंध परमाणुओं में भी मानना पड़ेगा। भित्ति आदि से परमाणुओं का प्रतिघात प्रसिद्ध है तथैव शब्दों का भी प्रतिघात प्रसिद्ध है एवं जो आपने कहा कि स्कंधरूप से परिणत मूर्तिमान शब्द परमाणुओं के द्वारा श्रोता का कान पूर्णतया भर जायेगा एवं पौद्गलिक शब्द एक ही श्रोता के कान में प्रविष्ट हो जावेंगे पुन: उसी योग्य देश में स्थित अन्य श्रोताओं को कुछ भी शब्द सुनाई नहीं पड़ेंगे, इत्यादि दोष तो आपके गंध परमाणुओं में भी आ जावेंगे। वे भी गंध परमाणु नाक में भर जावेंगे तो स्वांस लेना ही कठिन हो जावेगा एवं वे नाक में भी घुस जावेंगे तो अन्य किसी सूंघने वाले को कुछ भी गंध नहीं आ सकेगी, इस पर नैयायिक ने कहा कि हमारे यहाँ ऐसा माना है कि सदृश परिणाम वाले गंध परमाणु सब तरफ पैâल जाते हैं अत: उक्त दोष नहीं आते हैं। यदि समान परिणाम वाले गंध परमाणु सब तरफ पैâल जाते हैं अत: उक्त दोष नहीं आते हैं तब तो समान परिणाम वाले शब्द परमाणु भी नाना दिशाओं में पैâल जाते हैं अत: एक श्रोता को ही सुनाई देवे इत्यादि दोष नहीं आते हैं। यदि आप कहें कि गंध परमाणुओं को ज्ञान विशेष की अन्यथानुपपत्ति होने से निश्चय हो जाता है उसमें भाग्य की कल्पना नहीं है किन्तु शब्द के आगमन में भाग्य की कल्पना कीजिए।इस पर आचार्यों का कहना है कि-श्रोताओं के जिन-जिन श्रुतज्ञानावरण रूप शब्दावरण का क्षयोपशम होता है उसी प्रकार से उपलब्धि योग्य परिणाम विशेष के होने से उन-उन ही अक्षरों का सुनना होता है।जो आपने कहा कि निश्छिद्र महल से निकलना आदि होने से शब्द पुद्गल नहीं है सो भी ठीक नहीं है क्योंकि छिद्ररहित भवन से निकलना एवं प्रविष्ट होना पुद्गल में विरुद्ध नहीं है क्योंकि वे शब्द पुद्गल सूक्ष्म स्वभाव वाले हैं जैसे तेल, घी आदि चिकने पदार्थ निश्छिद्र घड़े से बाहर निकलकर घड़े को चिकना कर देते हैं एवं उष्ण, शीत, स्पर्श आदि निश्छिद्र घड़े में प्रविष्ट होकर उसकी अभ्यंतर की वस्तु गर्म या ठंडी कर देते हैं यह बात सर्वजन सुप्रसिद्ध है।
तत्त्वार्थसूत्र में ‘‘शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवंतश्च’’ इस सूत्र में शब्द को पुद्गल की पर्याय सिद्ध किया है। अत: शब्द आकाश का गुण नहीं है और न अमूर्तिक ही है, ऐसा समझना चाहिए। यही कारण है कि आजकल शब्दों को टेपरिकार्डर में भर लेते हैं, रेडियो, टेलीफोन आदि द्वारा हजारों मील दूर पहुँचा देते हैं यह सब पौद्गलिक शक्ति का ही विकास हो रहा है। इन सभी आविष्कारों से भी शब्द पौद्गलिक और मूर्तिक सिद्ध हो रहे हैं।अष्टसहस्रीकार आचार्यवर्य श्री विद्यानंद महोदय ने ग्रंथ के प्रथम अध्याय में भावैकांत का खंडन किया है अर्थात् जो सांख्य आदि सभी पदार्थों को सर्वथा सद्भाव रूप ही स्वीकार करते हैं उनका खंडन करके प्रागभाव आदि चार प्रकार के अभावों को सिद्ध किया है पुन: जो लोग सभी पदार्थों को अभाव रूप ही मानते हैं उनका निरसन कर रहे हैं।बौद्धों के यहाँ माध्यमिक नाम का एक भेद है। ये लोग सभी जगत को सर्वथा शून्यरूप ही मानते हैं। उनका कहना है कि ‘यह जगत सर्वथा शून्यरूप ही है जो कुछ भी प्रतिभास हो रहा है वह असत्य है। जो चेतन-अचेतन तत्त्व दिख रहे हैं, वे संवृति (कल्पना) रूप हैं एवं शून्यवाद को सिद्ध करने में जो आगम अनुमान आदि प्रमाण हैं वे भी काल्पनिक हैं।
इस पर जैनाचार्य प्रश्न करते हैं कि आप बौद्धों के यहाँ वह ‘संवृति’ क्या चीज है ? यदि कहो कि संवृति का अर्थ है अपने स्वरूप से होना’ तब तो हमने भी सभी वस्तुओं का स्वरूप से अस्तित्व माना है। यदि कहो कि ‘संवृति-पररूप से न होना’ यह अर्थ भी हमारे अनुकूल ही है क्योंकि हम लोग भी वस्तु में पररूप से नास्ति धर्म मानते हैं। यदि कहो कि ‘विचारों का न होना संवृति है’ तब तो शून्य के साधक वाक्य भी वैâसे बनेंगे ? अत: बड़े आश्चर्य की बात है कि दिग्नागाचार्य आदि आज भी इस शून्यवाद को सिद्ध करने में लगे हुए हैं इसमें उनके मोहनीय कर्म के तीव्र उदय के सिवाय और कोई भी कारण नहीं हो सकता है क्योंकि जब सर्वथा शून्यवाद ही है, तब आपके बुद्ध भगवान, आगम आदि भी वैâसे सिद्ध हो सकेंगे ?
बौद्ध-वास्तव में हमारे यहाँ बुद्ध भगवान और आगम आदि सभी विभ्रम रूप ही हैं। ये सभी संवृति से ही मान्य हैं अर्थात् काल्पनिक हैं।
जैन-तब तो प्रश्न यह होता है कि इस विभ्रम में विभ्रम है या अविभ्रम ? यदि विभ्रम में अविभ्रम है तो सभी विभ्रम रूप नहीं रहे और यदि विभ्रम में भी विभ्रम है तो विभ्रम वैâसे रहेगा ? अपितु विभ्रम में विभ्रम के हो जाने से अविभ्रम-सत्य ही सिद्ध हो जायेगा इसलिए सर्वथा नैरात्म्यवाद श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि उसके मानने वाले तो सबसे पहले अपना, अपने भगवान का, सभी का ही घात कर लेते हैं।कोई-कोई भाट्ट लोग भाव और अभाव इन दोनों को भी मान रहे हैं किन्तु दोनों को परस्पर निरपेक्ष मानते हैं, इसलिए उनकी मान्यता भी गलत है।क्योंकि सभी वस्तु स्वरूप के समान पररूप से अस्तिरूप एवं पररूप के समान स्वरूप से नास्तिरूप नहीं है तथा अस्ति धर्म नास्तित्व की एवं नास्ति धर्म अस्तित्व की अपेक्षा रखता है। इसलिए ‘उभयैकात्म्य’ भी गलत है।कोई बौद्ध लोग वस्तु को सर्वथा सत्-असत् धर्म से रहित होने से अवक्तव्य मानते हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक वस्तु सर्वथा ‘अवाच्य’ है क्योंकि शब्दों से उसका कथन नहीं कहा जा सकता है किन्तु यह एकान्त भी श्रेयस्कर नहीं है।
जैनाचार्य वस्तु को सत्रूप-भावरूप भी मानते हैं, असत्-अभावरूप भी मानते हैं, भावाभाव-उभयात्मक भी मानते हैं तथा अवक्तव्य-अवाच्य भी मानते हैं। सो वैâसे ?
हे भगवन्! आपके शासन में सभी वस्तुएँ कथंचित् भाव-अस्ति-सत्रूप हैं और वे ही सभी वस्तुएँ कथंचित् अभाव-नास्ति-असत्रूप हैं, कथंचित् उभय आदि सप्तभंगरूप से प्रसिद्ध हैं। यथा-
‘प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पनासप्तभंगी’ प्रश्न के निमित्त से एक ही वस्तु में अविरोध रूप से विधि और निषेध की कल्पना सप्तभंगी कहलाती है।
इस सप्तभंगी को जीव द्रव्य में घटित करते हैं-
१. स्यात् जीव द्रव्य अस्ति रूप है,
२. स्यात् जीव द्रव्य नास्ति रूप है,
३. स्यात् जीव द्रव्य अस्ति नास्ति रूप है,
४. स्यात् जीव द्रव्य अवक्तव्य है,
५. स्यात् जीव द्रव्य अस्ति अवक्तव्य है,
६. स्यात् जीव द्रव्य नास्ति अवक्तव्य है,
७. स्यात् जीव द्रव्य अस्तिनास्ति अवक्तव्य है,
यहाँ पर अस्तित्वादि एकान्त का निषेधक और अनेकांत का द्योतक ‘कथंचित्’ इस अपरनाम वाला ‘स्यात्’ शब्द बहुत ही महत्वशाली है, उसी का स्पष्टीकरण-
प्रथम भंग में जीव द्रव्य स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से अस्तिरूप है। द्वितीय भंग में वही जीव द्रव्य पर-अजीवादि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्ति रूप है अर्थात् जीव द्रव्य में पर-अजीव का अस्तित्व नहीं है। वही जीव द्रव्य क्रम से स्व और पर दोनों की अपेक्षा करने से अस्तिनास्ति रूप है। वही जीव द्रव्य युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से अवक्तव्य-अवाच्य रूप है। वही जीव द्रव्य स्वचतुष्टय से तथा युगपत् स्वपरचतुष्टय से विवक्षित करने से ‘अस्ति अवक्तव्य’ इस पाँचवें भंग रूप है। वही जीवद्रव्य परचतुष्टय तथा युगपत् स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा से नास्ति अवक्तव्य रूप है। वही जीवद्रव्य स्वपरचतुष्टय की क्रम और युगपत् अपेक्षा रखने से ‘अस्तिनास्ति अवक्तव्य’ इस सातवें भंग रूप है।यह कथन बिल्कुल ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्येक वस्तुएँ स्वरूप से सत् रूप एवं पररूप से असत्-अभाव रूप हैं तथा अस्ति धर्म नास्तित्व का अविनाभावी है वैसे ही नास्ति धर्म अस्तित्व के बिना नहीं रह सकता है। जब प्रथम भंग में भाव प्रधान रहता है, तब शेष छहों भंग गौण हो जाते हैं एवं जब द्वितीय भंग का अभाव धर्म प्रधान रहता है, तब भी शेष छह भंग गौण हो जाते हैं। इस प्रकार से ‘अर्पितानर्पित सिद्धे:’ सूत्र के अनुसार अर्पित-विवक्षित धर्म प्रधान रहता है तथा अनर्पित-अविवक्षित धर्म गौण रहता है तभी वस्तु तत्त्व की सिद्धि होती है। जैसे जीव का जब नित्य धर्म प्रधान किया जाता है, तब अनित्य धर्म नष्ट न होकर गौण हो जाता है एवं जब अनित्य धर्म विवक्षित-कहा जाता है तब नित्य धर्म अविवक्षित-गौण हो जाता है। ये अस्ति-नास्ति नित्य-अनित्य आदि धर्म यद्यपि परस्पर विरोधी दिखते हैं लेकिन प्रत्येक वस्तु में पाये ही जाते हैं।
प्रश्न-एक वस्तु में प्रत्यक्षादि से विरुद्ध भी विधि प्रतिषेध कल्पना कर लेना चाहिए ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि सूत्र में ‘अविरोधेन’ पद है, जिसका अर्थ है प्रत्यक्ष अनुमान और आगम आदि से अविरुद्ध धर्मों में ही सप्तभंगी घटित करना।
प्रश्न-प्रत्येक वस्तु में अनंत धर्म हैं अत: ‘अनंत भंगी’ हो जावें, सात ही भंग क्यों ?
उत्तर-प्रत्येक वस्तु के अनंत धर्मों में से प्रत्येक धर्म में सप्तभंगी घटित होती है इसलिए अनंत भंगी नहीं होंगी।भंग सात ही क्यों ? शिष्यों के द्वारा उतने ही प्रश्न होते हैं। सात ही प्रश्न क्यों ? तो सात प्रकार की ही जिज्ञासा होती हैं। जिज्ञासा सात प्रकार की ही क्यों? तो सात प्रकार का संशय होता है। संशय सात प्रकार का ही क्यों ? तो उस संशय के विषयभूत वस्तु के धर्म सात प्रकार के ही हैं।इस प्रकार से सप्तभंगी से सिद्ध वस्तु ही अर्थ क्रियाकारी हैं अन्यथा वह वस्तु अवस्तु-आकाश पुष्पवत् सर्वथा ही अभावरूप हो जाएगी अत: हे भगवन्! सभी प्रकार के विरोध आदि दोषों से रहित आपका स्याद्वाद शासन जयवंत होवे।