अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि, दृष्टो भेदो विरुध्यते।
कारकाणां क्रियायाश्च, नैकं स्वस्मात्प्रजायते।।२४।।
यदि अद्वैतरूप है सब जग, यह एकांत लिया जावे।
तब तो कारक और क्रिया का, भेद दिखे वह नहिं पावे।।
दिखता है साक्षात् भेद जो, वह भी है विरुद्ध होगा।
क्योंकि एक ही ब्रह्मा ही, निज से उत्पन्न नहीं होता।।२४।।
अन्वयार्थ-(अद्वैतैकांतपक्षेऽपि कारकाणां क्रियायाश्च दृष्ट: भेद: विरुध्यते) यदि अद्वैत रूप एकांत पक्ष लिया जाये, तो कारक और क्रियाओं का जो भेद दिख रहा है, वह विरुद्ध हो जाता है (एकं स्वस्मात् न जायते) क्योंकि कोई भी अपने से ही आप उत्पन्न नहीं हो सकता है।।
कारिकार्थ-ब्रह्माद्वैत, शब्दाद्वैत, ज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत आदि अद्वैत एकांत पक्ष में भी कारक और क्रियाओं का देखा गया भेद विरोध को प्राप्त होता है, क्योंकि कोई भी एक (ब्रह्म) अपने से ही आप उत्पन्न नहीं होता है।
कर्मद्वैतं फलद्वैतं, लोकद्वैतं च नो भवेत्।
विद्याऽविद्याद्वयं न स्याद्बंधमोक्षद्वयं तथा।।२५।।
पुण्य-पाप द्वय, सुख-दुख फल द्वय, इह परलोक द्वैत जग में।
विद्या और अविद्या द्वय अरु, बंध-मोक्ष द्वय नहिं होंगे।।
इन द्वैतों में एक द्वैत भी, यदि मानों अद्वैत नहीं।
अत: ब्रह्म या शब्द ज्ञानमय, जगत् एकमय घटे नहीं।।२५।।
अन्वयार्थ-(कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत्) इस अद्वैत सिद्धांत के मानने से शुभ-अशुभ कर्म का युगल, उसके फलस्वरूप पुण्य-पाप का युगल अथवा सुख-दु:ख का युगल, इहलोक-परलोक का युगलरूप द्वैत नहीं बन सकता है। (विद्याविद्याद्वयं तथा बंधमोक्षद्वयं न स्यात्) इसी प्रकार विद्या और अविद्या का द्वैत तथा बंध और मोक्ष का द्वैत भी नहीं बन सकता है।।
कारिकार्थ-इस अद्वैत एकांत पक्ष में दो कर्म, दो फल, दो लोक नहीं बन सकते हैं उसी प्रकार से विद्या और अविद्या, बंध और मोक्ष भी घटित नहीं हो सकते हैं।।
हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद्-द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययो:।
हेतुना चेद्विना सिद्धि-र्द्वैतं वाङ्मात्रतो न किम्।।२६।।
यदि अद्वैतसिद्धि हेतू से, तब तो साध्य और साधक।
द्वैत हुए क्योंकि ब्रह्मा है, साध्य हेतु उसका ज्ञापक।।
यदी हेतु के बिना सिद्ध है, यह अद्वैत वचन से ही।
तब तो द्वैतसिद्धि भी क्यों नहिं, होवे वचनमात्र से ही।।२६।।
अन्वयार्थ-(हेतो: अद्वैतसिद्धि: चेत् हेतु साध्ययो: द्वैतं स्यात्) यदि हेतु से अद्वैत की सिद्धि मानों तब तो हेतु और साध्य के मानने पर द्वैत हो जाता है (चेत् हेतुना बिना सिद्धि: वाङ्मात्रत: द्वैतं किं न) यदि हेतु के बिना ही अद्वैत की सिद्धि मानते हो, तब तो वचन मात्र से ही द्वैत की सिद्धि भी क्यों न हो जावे ?
कारिकार्थ-यदि हेतु से अद्वैत की सिद्धि होती है, तब तो हेतु और साध्य ये दो हो गये अत: द्वैत ही सिद्ध हुआ न कि अद्वैत। और यदि हेतु के बिना वचन मात्र से अद्वैत की सिद्धि होती है तब तो वाङ्मात्र से ही द्वैत की सिद्धि क्यों न हो जावे।
भावार्थ-जब हेतु से अद्वैत को सिद्ध किया जावेगा, तब अद्वैत साध्य की कोटि में आ गया और हेतु तथा साध्य से द्वैत ही बन गया। अपने हाथ से ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। सिद्ध करने चले थे अद्वैत को, सिद्ध हो गया द्वैत।
यदि हेतु के बिना ही अद्वैत की सिद्धि कहो, तब तो अपने वचनमात्र से ही तो अद्वैत को मानोगे, फिर भला वचन मात्र से द्वैत भी क्यों न हो जावे ?
अद्वैतं न विना द्वैता-दहेतुरिव हेतुना।
संज्ञिन: प्रतिषेधो न, प्रतिषेध्यादृते क्वचित्।।२७।।
द्वैत बिना अद्वैत न होगा, नञ् समास से बना सही।
यथा हेतु के बिना अहेतू, हो सकता है कभी नहीं।।
वस्तू का निषेध-प्रतिषेध, योग्य वस्तु बिन बने नहीं।
है निषिद्ध ‘आकाशकुसुम’ फिर भी वह वृक्षों में नित ही।।२७।।
अन्वयार्थ-(द्वैतात् विना अद्वैतं न हेतुना अहेतु: इव) द्वैत के बिना अद्वैत नहीं हो सकता है जैसे कि हेतु के बिना अहेतु शब्द नहीं बन सकता (प्रतिषेध्यात् ऋते क्वचित् संज्ञिन: प्रतिषेधो न) क्योंकि निषेध करने योग्य वस्तु के बिना किसी भी नाम वाली वस्तु का निषेध नहीं किया जा सकता है।
कारिकार्थ-जिस प्रकार से हेतु के बिना अहेतु सिद्ध नहीं है, उसी प्रकार से द्वैत के बिना अद्वैत भी नहीं बन सकता। क्योंकि प्रतिषेध्य-द्वैतादि के बिना अद्वैतरूप का प्रतिषेध भी नहीं हो सकता है।।
भावार्थ-द्वैत एक नाम सहित-संज्ञी शब्द है और उसका निषेध करने वाला अद्वैत शब्द है ‘न द्वैतं-अद्वैतं’ के अनुसार अद्वैत द्वैत के बिना नहीं बन सकता है।
पृथक्त्वैकान्तपक्षेऽपि, पृथक्त्वादपृथक्तु तौ।
पृथक्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्थौ ह्यसौ गुण:।।२८।।
इस पृथक्त्वैकांत पक्ष में, द्रव्य गुणों से पृथक्त्व गुण।
अपृथक् है या पृथक् कहो यदि, अपृथक् है तब पक्ष अघट।।
यदी कहो यह द्रव्य गुणों से, अलग पड़ा तब सिद्ध नहीं।
क्योंकि एक अनेकों में यह, रहता अत: असिद्ध सही।।२८।।
अन्वयार्थ-(पृथक्त्वैकांतपक्षेऽपि पृथक्त्वात् अपृथक्तु तौ) यदि प्रत्येक द्रव्य गुण आदि के पृथक्ता का ही एकांत माना जावे, तो पृथक् गुण से द्रव्यादि के भिन्न होने से वे गुणगुणी अपृथव्â अभिन्न हो जावेंगे (पृथक्त्वे पृथक्त्वं न स्यात् असौ गुण: हि अनेकस्थ:) यदि वे गुण गुणी पृथक् ही हैं, तब तो पृथक् नाम का कोई गुण सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि वह एक होते हुए भी अनेकों में स्थित रहने वाला माना गया है। अत: उसके पृथक्त्व रूप में कोई अिस्तत्व नहीं बनता है।।
कारिकार्थ-पृथक्त्वैकांत पक्ष में भी पृथक्त्वगुण से पदार्थों को भिन्न मानने पर पृथक्-पृथक् रूप रहे हुए पदार्थ गुण और गुणी सब अपृथक्-अभिन्न हो जायेंगे। एवं सभी को पृथक्त्व-भिन्न-भिन्न मानने पर पृथक्त्वगुण की सिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि यह पृथक्त्व गुण अनेक पदार्थों में रहने वाला माना गया है।।
संतान: समुदायश्च साधर्म्यञ्च निरंकुश:।
प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्व-निन्हवे।।२९।।
यदि एकत्व नहीं मानो, संतानरूप अन्वय वैâसा?
नहिं होवे समुदाय सदृशता, नहिं परलोक गमन होगा।।
बाल-वृद्ध पर्याय अनेकों, नहीं घटेंगी जो निर्बाध।
क्षणिवैâकांत पक्ष में क्षण-क्षण, में होता है सब कुछ नाश।।२९।।
अन्वयार्थ-(एकत्वनिन्हवे संतान: समुदाय: च साधर्म्यं च प्रेत्यभावश्च निरंकुश:) यदि एकत्व का सर्वथा लोप किया जावे, तो संतान, समुदाय, सदृशता और परलोक गमन जो कि अंकुश रहित-अबाधित सिद्ध हैं (तत्सर्वं न स्यात्) वे सभी घटित नहीं हो सकेंगे।।
कारिकार्थ-एकत्व का सर्वथा निह्नव करने पर निरंकुश-सकल बाधक रहित अस्खलितरूप से प्रमाण प्रसिद्ध संतान, समुदाय, साधर्म्य, परलोक तथा दिये हुए को लेना आदि ये सब व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकते हैं।
सदात्मना च भिन्नं चेज्ज्ञानं ज्ञेयाद् द्विधाप्यसत्।
ज्ञानाऽभावे कथं ज्ञेयं बहिरन्तश्च ते द्विषाम्।।३०।।
ज्ञान यदी निज ज्ञेय वस्तु से, सत्स्वरूप से भिन्न कहा।
तब तो ज्ञान-ज्ञेय दोनों का, भी अस्तित्व समाप्त हुआ।।
प्रभो! ज्ञान के अभाव होने से बाह्याभ्यंतर सब ज्ञेय।
वैâसे होंगे सिद्ध! कहो फिर, तव मत विद्वेषी के मेय।।३०।।
अन्वयार्थ-(चेत् सदात्मना च ज्ञानं ज्ञेयात् भिन्नं द्विधा अपि असत्) यदि सत् रूप से भी ज्ञान ज्ञेय पदार्थों से भिन्न है, तब तो ज्ञान और ज्ञेय दोनों ही असत् हो जावेंगे (ते द्विषां ज्ञानाऽभावे बहिरंतश्च ज्ञेयं कथं) हे भगवन्! आपके विद्वेषी एकांतवादियों के यहाँ ज्ञान के अभाव में बहिरंग और अंतरंगभूत ज्ञेय पदार्थ वैâसे सिद्ध हो सकेंगे।
कारिकार्थ-यदि सत्रूप से भी ज्ञान ज्ञेय से भिन्न माना जाये, तब तो ज्ञान और ज्ञेय दोनों ही असत्रूप हो जायेंगे, क्योंकि हे भगवन्! आपके द्वेषी सर्वथैकांतवादियों के यहाँ ज्ञान के अभाव में बहिस्तत्त्वरूप तथा अन्तस्तत्त्वरूप ज्ञेय पदार्थों की सिद्धि भी कैसे हो सकेगी ?
सामान्यार्था गिरोऽन्येषां, विशेषो नाऽभिलप्यते।
सामान्याभावतस्तेषां, मृषैव सकला गिर:।।३१।।
बौद्धजनों के यहाँ वचन, सामान्य अर्थ को ही कहते।
है विशेष, वास्तविक स्वलक्षण, वचन उसे नहिं कह सकते।।
बिन विशेष सामान्य कहाँ है, फिर सामान्य न होने से।
सारे वचन व्यर्थ अरु झूठे, ही होंगे उनके मत से।।३१।।
अन्वयार्थ-(अन्येषां गिर: सामान्यार्था: विशेषो न अभिलप्यते) आप बौद्धों के यहाँ वचन सामान्य अर्थ को ही कहते हैं, विशेष अर्थ को नहीं कहते हैं। (सामान्याऽभावत: तेषां सकला गिर: मृषा एव) विशेष के बिना सामान्य का भी अभाव हो जाने से आप बौद्धों के यहाँ सभी वचन मिथ्या ही ठहरते हैं।
कारिकार्थ-आप बौद्धों के यहाँ वचन सामान्य अर्थ को कहने वाले हैं, उन वचनों के द्वारा विशेष का कथन नहीं किया जा सकता है पुन: आपके यहाँ सामान्य का अभाव होने से सम्पूर्ण वचन असत्य-मिथ्या ही हैं।।
भावार्थ-प्रत्येक वस्तु के सामान्य-विशेष ऐसे दो धर्म रहते हैं। यदि वचनों से सामान्य का ही कथन होवे, तब विशेष का कथन न हो सकने से विशेष का अभाव हो जाने से सामान्य नहीं रह सकेगा और सभी वचन असत्य अर्थ को ही कहने वाले हो जावेंगे।
विरोधान्नोभयैकात्म्यं, स्याद्वादन्यायविद्विषाम्।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते।।३२।।
ये एकत्व पृथक्त्व उभय, आपस में नित्य विरोधी हैं।
स्याद्वाद विद्वेषी के ये, उभय तत्त्व निरपेक्ष रहें।।
यदि दोनों हैं ‘अवाच्य’ द्वैताद्वैत कथन नहिं हो युगपत्।
तब निरपेक्ष अवाच्य यही वच, वैâसे होवेगा सुघटित?।।३२।।
अन्वयार्थ-(स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्) स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ अद्वैत और द्वैत का एकात्म्य भी नहीं बन सकेगा, क्योंकि इन दोनों का परस्पर में विरोध पाया जाता है (आवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते) एकांत से इन दोनों की अवाच्यता स्वीकार करने पर भी ‘अवाच्य’ यह वचन नहीं बोला जा सकता है। अर्थात् स्याद्वाद को न मानने से ये बाधाएं आती हैं।
कारिकार्थ-स्याद्वाद न्याय से द्वेष रखने वाले एकांतवादियों के यहाँ उभयैकात्म्य भी सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि पृथक्त्वैकांत एवं अपृथक्त्वैकांत इन दोनों का परस्पर में विरोध है। यदि आप कहें कि हम तत्त्व को एकांत से अवाच्य मानते हैं, तब तो ‘‘अवाच्य’’ यह कथन भी नहीं बन सकेगा।।
अनपेक्ष्ये पृथक्त्वैक्ये, ह्यवस्तु द्वय-हेतुत:।
तदेवैक्यं पृथक्त्वं च, स्वभेदै: साधनं यथा।।३३।।
यदि एकत्व पृथक्त्व परस्पर, में निरपेक्ष रहें तब तो।
हेतुद्वय से उभय न होंगे, वस्तुभूत किंचित् भी तो।।
यदि अपृथक् पृथक्त्वापेक्षी, पृथक्-अपृथक् अपेक्षी है।
तब तो वस्तुभूत अविरोधी, भेदापेक्षि हेतुवत् हैं।।३३।।
अन्वयार्थ-(अनपेक्ष्ये पृथक्त्वैक्ये हि अवस्तु द्वय हेतुत:) ये अद्वैत और पृथक्त्व एक-दूसरे की अपेक्षा न रखने से अवस्तु हैं क्योंकि दो हेतु पाये जाते हैं (तत् एव ऐक्यं पृथक्त्वं च यथा स्वभेदै: साधनं) उसी प्रकार अद्वैत और पृथक्त्व ये दोनों एक-दूसरे की अपेक्षा रखने से वस्तुभूत हैं जैसे कि हेतु अपने अन्वय व्यतिरेक भेदों से वास्तविक होता है।।
कारिकार्थ-यदि पृथक्त्व और एकत्व ये दोनों धर्म परस्पर निरपेक्ष हैं तो वे अवस्तुरूप हैं किन्तु दो प्रकार के हेतुओं से परस्पर सापेक्ष से ही पृथक्त्व और एकत्व धर्म वस्तुभूत हैं, जैसे पक्षधर्मत्व आदि अपने भेदों से निरपेक्ष हेतु अवस्तुरूप है और वही हेतु अपने भेदों से सापेक्ष होकर वस्तुरूप है।
भावार्थ-जीवादि वस्तु कथंचित् अद्वैत रूप हैं क्योंकि सत् की अपेक्षा से सभी वस्तुओं में एकत्व का अनुभव आ रहा है। उसी प्रकार से वे ही जीवादि वस्तु कथंचित् पृथक्त्व रूप हैं क्योंकि द्रव्य पर्याय आदि की अपेक्षा सबका पृथक्-पृथक् अनुभव आ रहा है। ये दो हेतु सभी वस्तु को उभयरूप सिद्ध कर रहे हैं।
सत्सामान्यात्तु सर्वैक्यं, पृथग्द्रव्यादिभेदत:।
भेदाभेदविवक्षाया-मसाधारण-हेतुवत् ।।३४।।
सत् सामान्य अपेक्षा जग में, सभी वस्तुएँ एकस्वरूप।
द्रव्य तथा गुण-पर्यय से सब, वस्तु पृथक् हैं भेदस्वरूप।।
यथा असाधारण हेतू भी, भेदाभेद विवक्षा से।
है अनेक अरु एक उसी विधि, सब कुछ एक अनेक रहें।।३४।।
अन्वयार्थ-(सत्सामान्यात् तु सर्वैक्यं द्रव्यादिभेदत: पृथक्) सत् सामान्य की अपेक्षा से सभी वस्तु एकत्व रूप है एवं द्रव्य गुण आदि के भेद से सभी वस्तु भिन्न-भिन्न हैं। (भेदाभेदविवक्षायां असाधारण-हेतुवत्) जिस प्रकार असाधारण हेतु अभेद दृष्टि से एक और भेद दृष्टि से अनेक रूप हो जाता है, उसी प्रकार से सभी पदार्थ सत् रूप से अभेद विवक्षा करने पर एक रूप हैं एवं द्रव्य, गुण, पर्यायों के भेद की विवक्षा से भिन्न-भिन्न हैं।।
कारिकार्थ-भेद और अभेद की विवक्षा में असाधारण हेतु की तरह सत्सामान्य की अपेक्षा से सभी जीवादि वस्तुओं में एकत्व है एवं द्रव्यादि के भेद की अपेक्षा पृथक्त्व भी है।।
विवक्षा चाविवक्षा च, विशेष्येऽनन्तधर्मिणि।
सतो विशेषणस्यात्र नाऽसतस्तैस्तदर्थिभि:।।३५।।
अनंतधर्मा वस्तू में ही, घटे विवक्षा अविवक्षा।
ये दोनों सतरूप विशेषण, को कहतीं न असत् इच्छा।।
अर्थी करें विवक्षा तथा अनर्थी अविवक्षा करते।
सत् वस्तू में ही दोनों हैं, असत् वस्तु में नहिं घटते।।३५।।
अन्वयार्थ-(अत्र अनंतधर्मिणि विशेष्ये सत: विशेषणस्य विवक्षा च अविवक्षा च) इस अनंतधर्मात्मक विशेष्य-जीवादि पदार्थों में सत् रूप विशेषण की ही विवक्षा और अविवक्षा (असत: न) असत् रूप विशेषण की नहीं की जाती है (तै: तदर्थिभि:) और ये विवक्षा-अविवक्षा उन-उन विशेषण के इच्छुक जनों द्वारा ही की जाती है।।
कारिकार्थ-अनंतधर्मात्मक जीवादि पदार्थरूप विशेष्य में एकत्वानेकत्वरूप विशेषणों के इच्छुक विद्वानों द्वारा सत् स्वरूप विशेषण की ही विवेक्षा और अविवक्षा की जाती है, असत् रूप विशेषण की नहीं की जाती है।
भावार्थ-यदि कोई वस्तु के एकत्व को कहने की इच्छा करते हैं तो वे उस एकत्व की विवक्षा के इच्छुक कहलाते हैं, यदि एकत्व के कहने की इच्छा नहीं करते हैं, तब वे एकत्व की अविवक्षा के इच्छुक कहलाते हैं। वस्तु के एक धर्म को कहने की इच्छा में उसी वस्तु का अन्य विरोधी गुण गौण हो जाता है। इसलिए उस गौण गुण की अविवक्षा हो जाती है। ये विवक्षा और अविवक्षा अस्तिरूप पदार्थों में ही होती है असत् रूप में नहीं क्योंकि असत्भूत पदार्थ आकाश कुसुमवत् है ही नहीं, तब उसमें विवक्षा-अविवक्षा वैâसे बन सकेगी ?
प्रमाणगोचरौ सन्तौ, भेदाभेदौ न संवृती।
तावेकत्राऽविरुद्धौ ते, गुणमुख्यविवक्षया।।३६।।
सत्यज्ञान के गोचर होते, अस्तिरूप हैं भेद-अभेद!।
कल्पितरूप नहीं है क्योंकि, ये प्रमाण के विषय जिनेश!।।
एक वस्तु में मुख्य गौण से, दोनों रहते अविरोधी।
जिनकी जहाँ विवक्षा हो वह, मुख्य दूसरा गौण सही।।३६।।
अन्वयार्थ-(भेदाऽभेदौ प्रमाणगोचरौ सन्तौ न संवृती) ये भेद और प्रमाण के विषय हैं और सत् रूप हैं, संवृति रूप नहीं हैं (ते गुणमुख्यविवक्षया तौ एकत्र अविरुद्धौ) हे भगवन्! आपके मत में गौण और मुख्य की अपेक्षा से ये दोनों एक ही वस्तु में अविरोध रूप से रहते हैं। अर्थात् चार कारिका तक अद्वैत और पृथक्त्व का अनेकांत सिद्ध किया है।
कारिकार्थ-ये दोनों भेद और अभेद प्रमाण के विषय होने से सत् रूप है-वास्तविक है, संवृतिरूप-काल्पनिक नहीं है। हे भगवन्! आपके शासन में ये भेदाभेद एक ही जीवादि वस्तु में गौण और मुख्य की विवक्षा से विरोध रहित हैं।।
।।इति द्वितीय: परिच्छेद:।।