कार्य-कारण-नानात्वं, गुणं-गुण्यन्यतापि च।
सामान्य-तद्वदन्यत्वं, चैकान्तेन यदीष्यते।।६१।।
कार्य और कारण में भेद, गुणी से गुण भी भिन्न रहे।
उसी तरह सामान्य और, सामान्यवान् भी पृथक् कहें।।
वैशेषिक मत कहे सर्वथा, भिन्न-भिन्न गुण द्रव्य सभी।
पुन: वस्तु से सत्त्व पृथव्â हैं, अत:वस्तु हैं असत् सभी।।६१।।
अन्वयार्थ-(यदि एकांतेन कार्यकारणनानात्वं गुणगुण्यन्यतापि च) यदि आप एकांत से कार्य-कारण में और गुण-गुणी में भेद मानते हैं (सामान्यतद्वदन्यत्वं इष्यते) और सामान्य एवं सामान्यवान् में भी भेद मानते हैं, तब तो क्या दोष आता है उसे अगली कारिका में बताते हैं।
कारिकार्थ-कार्य कारण में सर्वथा भिन्नता है, गुण और गुणी में भी सर्वथा भिन्नता है एवं सामान्य और सामान्यवान् में सर्वथा भिन्नता है। यदि आप एकांत से ऐसा मानते हैं तो इस कारिका की अष्टसहस्री टीका में इनकी एकांत मान्यता देकर अगली कारिका में उसका निराकरण किया है।
एकस्याऽनेक-वृत्तिर्न, भागाऽभावाद्बहूनि वा।
भागित्वाद्वाऽस्य नैकत्वं, दोषो वृत्तेरनार्हते।।६२।।
एक अनेकों में नहिं रहता, चूँकि अंश नहिं है उसमें।
यदि वा अंश कहो उसमें, तब कार्य एक ही बहुत बनें।।
यदि भागित्व कहो तब तो वह, एक न एक कहा सकता।
अर्हत् मत से भिन्न जनों में, वृत्ति दोष यह कहलाता।।६२।।
अन्वयार्थ-(एकस्य अनेकवृत्ति: न भागाऽभावाद् बहूनि वा) सर्वथा कार्यकारण आदि में भेद मानने पर तो एक की अनेकों में वृत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि उस एक में विभाग के अभाव से निरंशता है अथवा अनेकों में रहना मानों, तो वह एक बहुत हो जावेंगे (भागित्वात् वा अस्य एकत्वं न अनार्हते वृत्ते: दोष:) अथवा यदि उस एक को भागित्व रूप मानकर वृत्ति मानों तो उसका एकत्व नहीं बन सकता है। इस प्रकार से अर्हंत मत से भिन्न सर्वथा एकांत में एक की अनेक में वृत्ति मानने से अनेकों दोष आ जाते हैं।
कारिकार्थ-एक की अनेक में वृत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि उनमें भाग-अंशों का अभाव है अथवा यदि वृत्ति मानोगे तब तो एक को अनेक रूप मानना पड़ेगा तथा यदि एक ही अवयवी के भाग-अंश मानोगे, तब तो यह एक रूप नहीं कहा जायेगा, इस प्रकार से एक की अनेक वृत्ति मानने पर हे अर्हंत्! आपके मत से बाह्य परमतावलम्बियों के यहाँ अनेक दोष आते हैं।
भावार्थ-वैशेषिक कार्य-कारण आदि को सर्वथा भिन्न मानते हैं उनके यहाँ वस्त्र एक कार्य है और वह अंश कल्पना से रहित है तथा अपने अनेक तंतु कारणों में रहता है कुछ समझ में नहीं आता है कि एक निरंश कार्य अनेकों कारण तंतुओं में वैâसे रहता है? हम जैनियों के यहाँ मात्र परमाणु को निरंश कहा है और आकाश को भी अंश सहित सिद्ध किया है वह कार्य कारण में वैâसे रहता है, इत्यादि का अष्टसहस्री में स्पष्टीकरण किया गया है।
देश-काल-विशेषेऽपि, स्याद्वृत्तिर्युत-सिद्धवत्।
समान-देशता न स्यान्मूर्तकारण-कार्ययो:।।६३।।
यदि अवयव-अवयवी आदि में, भेद सर्वथा कहो सुजान।
देश-काल से भी होगा यह, भेद पुन: युतसिद्ध समान।।
पृथक्-पृथक् आश्रय वाले, घट-पट में भी वृत्ती होगी।
तब तो मूर्त कार्य कारण में, एकदेशता नहिं होगी।।६३।।
अन्वयार्थ-(देशकालविशेषे अपि युतसिद्धवत् वृत्ति: स्यात्) यदि अवयव अवयवी का परस्पर में सर्वथा भेद माना जाये, तो देश और काल की अपेक्षा से भी भेद मानना पड़ेगा, तब युतसिद्धवत् पृथक्-पृथक् आश्रय में रहने वाले घट-घट के समान इनमें भी वृत्ति माननी होगी। (मूर्तकारणकार्ययो: समानदेशता न स्यात्) पुन: मूर्तिक कारण और कार्य में जो समान देशता देखी जाती है, वह नहीं हो सकेगी।
कारिकार्थ-अवयव, अवयवी आदि में परस्पर में अत्यन्त भेद मानने पर देशकाल की अपेक्षा से भी इनमें भेद मानना होगा एवं देश, काल से भी भेद के मानने पर इनकी वृत्ति युतसिद्ध पदार्थों की तरह होगी, पुन: मूर्त कार्य-कारण में सामान्य देशता-एकदेशपना नहीं बन सकेगा।
भावार्थ-इसका भाव यह है कि जब धर्म और धर्मी में अवयव-अवयवी आदि पदार्थों में सर्वथा ही अत्यंत भेद है तब देश और काल की अपेक्षा भी उनमें भेद मानना पड़ेगा। जैसे घट और वृक्ष आदि पदार्थ सर्वथा भिन्न हैं वैसे ही जीव और ज्ञान, वस्त्र और तंतु आदि भी सर्वथा ही भिन्न रहेंगे। घट और उसकी मिट्टी में भी सर्वथा भेद ही बना रहेगा।
आश्रयाश्रयिभावान्न स्वातन्त्र्यं समवायिनाम्।
इत्ययुक्त: स संबन्धो न युक्त: समवायिभि:।।६४।।
यदि समवायी पदार्थ का है आश्रय और आश्रयी भाव।
अत: स्वतंत्र नहीं है जिससे, भिन्नों में है वृत्ति अभाव।।
चूूँकि स्वयं जो असम्बद्ध, वह एक अवयवी वस्तू का।
अवयव बहुतों से वैâसे तद्वत् संबंध करा सकता?।।६४।।
अन्वयार्थ-(समवायिनां आश्रयाश्रयिभावात् स्वातंत्र्यं न) यदि कहा जाये कि समवायी अवयव-अवयवी आदि में आश्रय-आश्रयी भाव होने के कारण स्वतंत्रता नहीं है (इति समवायिभि: अयुक्त: स संबंध: न युक्त:) तब तो समवायियों के साथ अयुक्त-दूसरे समवाय संबंध से असंबंधित वह समवाय संबंध घटता ही नहीं है। अर्थात् जो स्वयं असंबद्ध है, वह एक का दूसरे के साथ संबंध वैâसे करा सकता है ?
कारिकार्थ-आश्रय और आश्रयी भाव के होने से समव्ाायि-तंतुपटादिकों में स्वतंत्रता-भिन्नता नहीं है यदि आप वैशेषिक ऐसा कहते हैं, तब तो समवायियों के साथ अयुक्त (दूसरे समवाय संबंध से असंबंधित) वह समवाय संबंध युक्तियुक्त नहीं है अर्थात् समवाय लक्षण संबंध समवायियों के साथ असंबंधित होने से सिद्ध नहीं हो पाता है।
भावार्थ-वैशेषिक का कहना है कि कार्यकारण, क्रिया-क्रियावान्, गुण-गुणी आदि में स्वतंत्रता नहंी है कि जिससे युत-सिद्ध पदार्थों के समान देश और काल आदि के भेद से उनकी वृत्ति मानी जा सके, इनमें आश्रय-आश्रयी भाव है। अवयव आदि आश्रयभूत हैं और अवयवी आदिकों में आश्रयी भाव है तथा ये परस्पर में समवाय संबंध से बंधे हैं, अत: ये समवायी पदार्थ देश काल आदि के भेद से अपनी वृत्ति नहीं कर सकते हैं।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि हे वैशेषिक! समवायियों को आश्रय-आश्रयिभाव में रखकर उनको परस्पर में जोड़ने वाला यह समवाय पदार्थ उनकी स्वतंत्रता को अपहरण करने वाला है। वह समवाय इन समवायियों में दूसरे समवाय से जुड़ता है, यह स्वत: ? यदि यह समवाय इन समवायियों में दूसरे समवाय से रहता है तो अनवस्था दोष आता है। यदि कहो कि समवाय अपने समवायियों में स्वत: रहता है तो फिर इन द्रव्यादि समवायियों को इस समवाय के द्वारा जुड़ने की क्या आवश्यकता है जैसे बिना समवाय के यह समवाय अपने द्रव्यादि समवायियों में जुड़ जाता है, ऐसे ही द्रव्य गुण आदि स्वयं बिना समवाय के जुड़े हुए हैं मान लो क्या बाधा है ?
सामान्यं समवायश्चाप्येवैâकत्र समाप्तित:।
अन्तरेणाश्रयं न स्यान्नाशोत्पादिषु को विधि:।।६५।।
आश्रय बिन सामान्य और समवाय नहीं रहते प्रत्येक।
एक-एक द्रव्यादि नित्य में, समाप्त होते ये इक-एक।।
पुन: नष्ट उत्पन्न अनित्यों कार्यों में वैâसे होंगे?।
चूँकि नित्य ये दोनों उन, वस्तू में वैâसे ठहरेंगे।।६५।।
अन्वयार्थ-(सामान्यं समवायश्च अपि आश्रयं अन्तरेण न स्यात् एवैâकत्र समाप्तित:) ये सामान्य और समवाय दोनोें भी आश्रय के बिना नहीं रह सकते हैं क्योंकि ये दोनों एक-एक ही हैं अत: एक-एक द्रव्य आदि में ही समाप्त हो जाते हैं (नाशोत्पादिषु क: विधि:) तब नाश हुए और उत्पन्न हुए अनित्य कार्यों में उन सामान्य और समवाय की व्यवस्था वैâसे बनेगी ?
कारिकार्थ-जिस प्रकार से सामान्य सत्ता बिना आश्रय के नहीं रह सकता है, तथैव समवाय भी बिना आश्रय के नहीं रह सकता है और अपने आश्रयभूत प्रत्येक नित्य व्यक्तियों-पदार्थों में ये दोनों पूर्णरूप से रहते हैं। इसलिए नाशोत्पादादि-अनित्य पदार्थों में इनका विधान वैâसे होगा अर्थात् इनका अस्तित्व वहाँ वैâसे सिद्ध होगा ?
सर्वथानभिसंबंध: सामान्यसमवाययो:।
ताभ्यामर्थो न संबद्धस्तानि त्रीणि खपुष्पवत्।।६६।।
आपस में सामान्य और, समवाय सदा संबंध रहित।
इन दोनों से द्रव्य गुणादिक, पदार्थ नहिं हैं संंबंधित।।
इसीलिए सामान्य तथा, समवाय अर्थ ये तीनों ही।
गगनकुसुमवत् ‘असत्’ अवस्तू हो जावे परमत में ही।।६६।।
अन्वयार्थ-(सामान्यसमवाययो: सर्वथा अनभिसंबंध:) सामान्य और समवाय का सर्वथा ही परस्पर में कोई संबंध नहीं है (ताभ्यां अर्थो न संबद्ध: तानि त्रीणि खपुष्पवत्) तब उन दोनों के साथ द्रव्य गुण आदि अर्थ भी संबंधित नहीं है पुन: सामान्य समवाय और पदार्थ ये तीनों ही आकाशपुष्पवत् असत् ठहरते हैं।
कारिकार्थ-सामान्य और समवाय का सर्वथा-संयोगादि प्रकार से संबंध नहीं है। क्योंकि संयोग दो द्रव्यों में ही होता है और इन दोनों के द्वारा अर्थ-पदार्थ संबंधित नहीं होता है। अत: सामान्य-समवाय और पदार्थ ये तीनों ही खपुष्प के समान असत् हो जायेंगे।
अनन्यतैकान्तेऽणूनां संघातेऽपि विभागवत्।
असंहतत्वं स्याद्भूतचतुष्कं भ्रान्तिरेव सा।।६७।।
यदि परमाणु सदा नित्य हैं, अन्य रूप परिणमें नहीं।
तब स्कंध रूप में भी वे, भिन्न-भिन्न ही रहें सही।।
पुन: भूमि-जल-वायु अग्नि, इन भूतचतुष्टय का स्कंध।
भ्रांतरूप ही हो जावेगा, क्योंकि अणू सब पृथव्â-पृथक्।।६७।।
अन्वयार्थ-(अणूनां अनन्यतैकांते विभागवत् संघाते अपि असंहतत्त्वं स्यात्) यदि परमाणुओं को एकांत रूप से अनन्य-एकरूप ही माना जावे अर्थात् परमाणुओं का कभी भी भिन्न-भिन्नरूप परिणमन न माना जाये, तब तो परमाणुओं का संघात होने पर भी स्कंधरूप होना नहीं बन सकेगा जैसे कि परमाणुओं के विभाग में स्कंध होना नहीं बनता है (सा भूतचतुष्कभ्रांति: एव) पुन: जो भूत चतुष्क हैं वे भ्रांति रूप ही रहेंगे।
कारिकार्थ-परमाणुओं में अभिन्न रूप एकांत पक्ष के मानने पर उनकी संघात-स्कंध अवस्था में भी विभाग-विभक्त पदार्थों की तरह उनको पृथक्-पृथक् परस्पर असंबंधित ही मानना पड़ेगा, पुन: ऐसी स्थिति में आपके द्वारा स्वीकृत भूतचतुष्क भ्रांतिरूप ही हो जायेगा, अर्थात् पार्थिव जलीय, तैजस एवं वायवीय परमाणुओं के संघातरूप पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, भूतचतुष्क हैं। ये भ्रांत हो जायेंगे।
कार्यभ्रान्तेरणु-भ्रान्ति: कार्यलिंगं हि कारणम्।
उभयाऽभावतस्तत्स्थं, गुणजातीतरच्च न।।६८।।
यदि कार्य स्कंध भ्रांत हैं, तब कारण परमाणू भ्रांत।
चूँकि कार्य हेतू से होता, कारण परमाणू का ज्ञान।।
यदि दोनों ये भ्रांत हुए तब, दोनों का हो गया अभाव।
उनमें रहने वाले गुण जात्यादिक व्ाâा फिर नहिं सद्भाव।।६८।।
अन्वयार्थ-(कार्य भ्रांते: अणुभ्रांति: कारणं कार्यलिंगं हि) यदि स्कंधरूप भूतचतुष्टय को भ्रांत कहोगे, तो उसके कारणभूत परमाणु भी भ्रांत ही मानें जावेंगे, क्योंकि कारण कार्य हेतुक ही होता है (उभयभावत: तत्स्थं गुणजातीरत् च न) पुन: कार्यकारण दोनों ही भ्रांत होने से दोनों का अभाव हो जावेगा और तब उनमें रहने वाले गुण जाति क्रियादि भी नहीं बन सकेंगे।
कारिकार्थ-कार्यभूत चतुष्क को भ्रांत मानने से परमाणुओं को भी भ्रांत मानना पड़ेगा। क्योंकि कार्य के हेतु से ही कारण का ज्ञान होता है एवं इन दोनों के अभाव से इनमें स्थित रहने वाले गुण, जाति और क्रिया आदि कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकेंगे।
एकत्वेऽन्यतराभाव:, शेषाऽभावोऽविनाभुव:।
द्वित्वसंख्याविरोधश्च, संवृत्तिश्चेन्मृषैव सा।।६९।।
कार्य और कारण में यदि, एकत्व कहो तब एक रहे।
चूँकी दोनों अविनाभावी, अत: शेष भी नहीं रहे।।
द्वित्व कथन भी विरुद्ध होता, यदि संवृत्ति से मानोगे।
संवृत्ति तो यह मृषा कहाती, अत: सभी मिथ्या होंगे।।६९।।
अन्वयार्थ-(एकत्वे अन्यतराभाव: शेषाभावो अविनाभुव:) यदि सांख्य मतानुसार कार्य-कारण आदि में सर्वथा एकत्व ही माना जाये तो एक की मान्यता में दो में से किसी एक का अभाव ही ठहरेगा पुन: जो एक बचा है उसका भी अभाव हो जावेगा, क्योंकि वह पहले के साथ अविनाभावी था (द्वित्वसंख्याविरोधश्च संवृति: चेत् सा मृषा एव) पुन: द्वित्व आदि संख्या का भी विरोध हो जावेगा। यदि कहो कि द्वित्व आदि संख्याएँ संवृति रूप हैं तब तो यह संवृति तो असत्य ही है।
कारिकार्थ-आप सांख्य आदि सर्वथा कार्य-कारण में एकत्व स्वीकार करेंगे तब तो दोनों में से किसी एक का अभाव हो जायेगा। पुन: एक किसी का अभाव होने पर शेष दूसरे बचे हुए का भी अभाव हो जायेगा; क्योंकि उन दोनों में अविनाभाव नियम है तथा च ‘यह कार्य है और यह कारण है’ इस तरह की दो की संख्या में भी विरोध हो जायेगा। यदि आप कहें कि संवृत्ति से ये सब कार्य-कारण, द्वित्व संख्यादि हैं तब तो वह आपकी संवृत्ति तो सर्वथा असत्य ही है।
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते।।७०।।
यदी कार्य कारण में भेदा-भेद उभय का ऐक्य कहो।
स्याद्वादमत द्वेषी के यह, वैâसे होगा सत्य अहो।।
यदी कार्य-कारण का भेदा-भेद अवाच्य कहे कोई।
तब ‘अवाच्य’ यह कथन असंगत, स्याद्वाद बिन घटे नहीं।।७०।।
अन्वयार्थ-(स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्) स्याद्वाद न्याय के विद्वेषी लोगों के यहाँ कार्य-कारण आदि की भिन्नता और अभिन्नता इन दोनों का एकात्म्य माना जाये, तो भी नहीं बनता है क्योंकि इन भिन्न-अभिन्न का परस्पर में विरोध है (अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते) यदि सर्वथा दोनों को अवाच्यरूप स्वीकार किया जावे, तो कार्य-कारण का भेद-अभेद अवाच्य है, यह कथन भी नहीं बन सकेगा।
कारिकार्थ-स्याद्वाद नीति के शत्रुओं के यहाँ अन्यता और अनन्यतारूप उभयैकात्म्य संभव नहीं है, क्योंकि वे दोनों परस्पर विरोधी हैं। यदि कोई कहे कि हम तत्त्व को अन्यत्व, अनन्यत्व से रहित ‘‘अवाच्यरूप’’ मानते हैं, तब तो तत्त्व अवाच्य है। इस प्रकार से वाक्य द्वारा कथन भी नहीं कहा जा सकता है।
द्रव्यपर्याययोरैक्यं, तयोरव्यतिरेकत:।
परिणामविशेषाच्च, शक्तिमच्छक्तिभावत:।।७१।।
द्रव्य और पर्याय कथंचित्, एकरूप हैं अभेद ही।
क्योंकि उभय है अभिन्न उनका, पृथक्करण है शक्य नहीं।।
द्रव्य और पर्याय कथंचित्, भिन्न कहे सर्वथा नहीं।
चूँकि भिन्न परिणमन भेद से, शक्तिमान अरु शक्ति से भी।।७१।।
संज्ञासंख्या-विशेषाच्च, स्वलक्षणविशेषत:।
प्रयोजनादिभेदाच्च, तन्नानात्वं न सर्वथा।।७२।।
नाम भेद से संख्या से भी, द्रव्य और पर्याय पृथक्।
निज-निज लक्षण भेद उभय में, इसीलिए हैं पृथव्â-पृथक्।।
दोनों का है भिन्न प्रयोजन, अरु प्रतिभास भेद भी है।
इसी अपेक्षा द्रव्य और, पर्याय कथंचित् भिन्न रहें।।७२।।
अन्वयार्थ-(द्रव्यपर्याययो: ऐक्यं तयो: अव्यतिरेकत:) द्रव्य और पर्यायों में कथंचित् अभिन्नता है क्योंकि उन दोनों को पृथक् नहीं कर सकते हैं (तन्नात्वं परिणामविशेषात् च शक्तिमत् शक्तिभावत:) कथंचित् द्रव्य और पर्यायों में भिन्नता भी है क्योंकि उनमें परिणमन भेद पाया जाता है और शक्तिमान् एवं शक्तिभाव से भी भेद है। (संज्ञासंख्याविशेषात् च स्वलक्षणविशेषत: प्रयोजनादिभेदात् च) द्रव्य पर्याय में कथंचित् नाम, संख्या आदि भेद से भी भेद हैं। अपने-अपने लक्षण भेद से भी भेद है एवं प्रयोजन, काल, प्रतिभास आदि से भी भेद है (सर्वथा न) किन्तु द्रव्य पर्यायों में सर्वथा भेद नहीं है।
कारिकार्थ-द्रव्य और पर्याय में एकत्व हैं, क्योंकि वे दोनों सर्वथा भिन्न नहीं है तथा परिणाम विशेष से शक्तिमान, शक्तिभाव से, संज्ञा, संख्या की विशेषता से, अपने-अपने लक्षणों की भिन्नता से एवं प्रयोजनादि के भेद से वे दोनों नाना-भिन्न-भिन्न भी हैं, किन्तु सर्वथा भिन्न-भिन्न नहीं हैं।
।।इति चतुर्थ: परिच्छेद:।।