योग कहता है कि कार्य-कारण, गुण-गुणी, अवयव-अवयवी आदि सभी परस्पर में भिन्न-भिन्न हैं। यह समवाय नाम का एक संबंध मानता है जिसका अर्थ है ‘अयुतसिद्ध में संबंध होना’ उस समवाय से ही सब के संबंध मानता है। जैसे-जीव से ज्ञान भिन्न है समवाय से ईश्वर संबंधित हुआ है किन्तु जीव में ज्ञान के संबंध के पहले जीव का तथा ज्ञान का पृथक्-पृथक् अस्तित्व दिख नहीं रहा है जैसे-दंड के संबंध के पहले मनुष्य और दंड दोनों अलग-अलग दिख रहे हैं पीछे उनका संबंध हो जाने से ‘दंडी’ यह संज्ञा हो जाती है वैसे यहाँ गुण-गुणी पृथक् रूप से दिखते नहीं है। कार्य-कारण में भी सर्वथा भिन्नता नहीं है कथंचित् ही है। इनका समवाय भी सिद्ध नहीं होता है जिसे हम जैन तादात्म्य संबंध कहते हैं उसे समवाय भले ही कह दो किन्तु अलग से यह कोई समवाय संबंध सिद्ध नहीं है।सांख्य का कहना है कि महान अलंकार आदि कार्य हैं और प्रधान कारण है, इन दोनों में परस्पर में एकत्व ही है। आचार्य कहते हैं कि कार्य कारण में सर्वथा एकत्व मानने से तो दोनों में से कोई एक ही रहेगा और दूसरे का अभाव हो जावेगा। पुन: एक के अभाव में दूसरा भी नहीं रह सकेगा अत: कार्य, कारण आदि को सर्वथा एकरूप नहीं मानना चाहिए।
योग परस्पर निरपेक्ष भिन्नता और अभिन्नता दोनों ही मान लेते हैं। बौद्ध कहता है कि वस्तु सर्वथा अवाच्य ही है किन्तु जैनाचार्य परस्पर सापेक्ष रूप से तत्त्व को भिन्न-भिन्न उभयात्मक मानते हैं और एक साथ दोनों धर्मों को न कह सकने से चतुर्थ भंगरूप से कथंचित् ‘अवाच्य’ भी मान लेते हैं सर्वथा नहीं। सभी वस्तुएँ व्यंजन पर्याय की अपेक्षा वाच्य हैं और अर्थ पर्याय की अपेक्षा से अवाच्य हैं।अद्वैतवादी का कहना है कि द्रव्य एक है वही वास्तविक है, पर्यायें अनेक हैं वे अवास्तविक हैं। द्रव्य उन पर्यायों से भिन्न है।सौगत का कहना है कि वर्णादिकरूप अनेक पर्याये हैं, वे ही वास्तविक हैं, किन्तु द्रव्य नाम की तो कोई चीज ही नहीं है।इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि द्रव्य और पर्यायों में कथंचित् एकत्व है क्योंकि उन दोनों को पृथक्-पृथक् करना अशक्य है।तथैव द्रव्य और पर्यायों में कथंचित् भिन्नपना भी है क्योंकि दोनों का लक्षण भिन्न है, प्रयोजन आदि से भी भिन्नता है। द्रव्य का लक्षण सत् है, तो पर्याय का लक्षण है-उस-उस प्रतिविशिष्टरूप से होना। सहभावी गुण होते हैं और क्रमभावी पर्यायें होती हैं। द्रव्य अनादि-अनंत एक स्वभाव है, पर्यायें सादि-सांत अनेक स्वभाव वाली हैं। फिर भी द्रव्य से निरपेक्ष केवल पर्यायें रह नहीं सकती और पर्याय निरपेक्ष द्रव्य का अस्तित्व भी असंभव है। गुण और पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन त्रयात्मक ही द्रव्य है।
सप्तभंगी प्रक्रिया-द्रव्य और पर्यायों का पृथक्-पृथक् विवेचन करना अशक्य होने से दोनों में कथंचित् एकत्व है।
असाधारणरूप स्वस्वलक्षण के भेद से कथंचित् दोनों में नानापना सिद्ध है।
क्रम से दोनों नयों की अर्पणा करने से द्रव्य और पर्यायें कथंचित् एकत्व भिन्नत्वरूप उभयात्मक हैं।
युगपत् दोनों नयों की अर्पणा करने से कहना ही अशक्य है अत: कथंचित् द्रव्य और पर्यायें दोनोें अवक्तव्य हैं।
भिन्न-भिन्न लक्षण और एक साथ दोनों नयों की अर्पणा करने से कथंचित् नानात्व अवक्तव्य है।
दोनों का पृथक्-पृथक् अशक्य विवेचन होने से और एक साथ दोनों नयों की अर्पणा करने से द्रव्य-पर्यायों में कथंचित् एकत्व अवक्तव्य है।
क्रम से तथा अक्रम से अर्पित दोनों नयों से द्रव्य पर्याय कथंचित् नाना एकत्व अवक्तव्यरूप है।
इस प्रकार से द्रव्य और पर्यायों में प्रमाण तथा नय से अविरुद्ध सप्तभंगी सुघटित है।