बौद्ध का कहना है कि धर्म और धर्मी परस्पर में एक-दूसरे की अपेक्षा से ही सिद्ध होते हैं। जैसे कि मध्यमा और अनामिका अंगुली। अत: ये धर्म-धर्मी कल्पित हैं, वास्तविक नहीं हैं क्योंकि ये निर्विकल्प ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होते हैं। ये तो निर्विकल्प के अनंतर होने वाले विकल्प ज्ञान से कल्पित किये गये हैं।योग का कहना है कि धर्म और धर्मी सर्वथा अनापेक्षिक ही हैं-कदाचित् भी एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हैं।इस पर जैनाचार्यों का कथन है कि धर्म और धर्मी का स्वरूप स्वत: सिद्ध है, वह स्वरूप तो एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता है किन्तु धर्म और धर्मी का अविनाभाव परस्पर में एक-दूसरे की अपेक्षा ही सिद्ध होता है। जैसे कारक के अंग कर्ता और कर्म स्वत: सिद्ध हैं। कर्ता का स्वरूप कर्म की अपेक्षा नहीं रखता है अन्यथा कर्ता के स्वरूप का अभाव हो जाने से कर्म के स्वरूप का भी अभाव हो जायेगा अत: कथंचित् ये दोनों आपेक्षिक सिद्ध नहीं हैं।
उसी प्रकार योग इन दोनों को सर्वथा अनापेक्षिक ही मानता है, सो भी ठीक नहीं है। कर्ता का व्यवहार कर्म के व्यवहार की अपेक्षा अवश्य रखता है, क्योंकि कर्म के निश्चयपूर्वक ही कर्ता जाना जाता है। जैसे- ज्ञानादि गुण धर्म हैं और जीव धर्मी है, ये धर्म और धर्मी अपने-अपने स्वरूप से स्वत: सिद्ध हैं अत: परस्पर आपेक्षिक नहीं हैं। जीव का स्वरूप चैतन्य है और ज्ञान का स्वरूप जानना है। ये अपने-अपने स्वरूप में एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हैं किन्तु धर्मी के बिना धर्म अथवा धर्म के बिना धर्मी नहीं रह सकते हैं अत: कथंचित् एक-दूसरे की अपेक्षा से भी सिद्ध होते हैं।
स्याद्वाद प्रक्रिया-कथंचित् धर्म और धर्मी आपेक्षिक सिद्ध हैं, क्योंकि एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं।कथंचित् ये दोनों अनापेक्षिक सिद्ध हैं, क्योंकि इन दोनों का स्वरूप स्वत: सिद्ध है।कथंचित् ये दोनों अनापेक्षिक दोनों रूप हैं। एक साथ दोनों अपेक्षाओं का कथन न हो सकने से कथंचित् ये अवक्तव्य हैं।क्रम से आपेक्षिक और युगपत् दोनों की विवक्षा होने से कथंचित् आपेक्षिक अवक्तव्य हैं। क्रम से अनापेक्षिक और युगपत् दोनों की विवक्षा से कथंचित् अनापेक्षिक अवक्तव्य हैं।क्रम से और युगपत् दोनों की विवक्षा होने से कथंचित् आपेक्षिक-अनापेक्षिक अवक्तव्य हैं।इस प्रकार से स्याद्वाद के द्वारा ही वस्तुतत्त्व की सिद्धि होती है।