सर्वथा अंतरंग अर्थ मानना सदोष है
अन्तरङ्गार्थतैकान्ते बुद्धिवाक्यं मृषाऽखिलम्।
प्रमाणाभासमेवातस्तत् प्रमाणादृते कथम्।।७९।।
स्वसंविदित जो ज्ञान तत्व है, अन्तरंग यदि अर्थ वही।
तब बुद्धि-अनुमान-शास्त्र सब, बाह्य वस्तु हैं मृषा सही।।
अत: प्रमाणाभास हुये ये, अनुमान आगम चूंकि मृषा।
बिन प्रमाण के कहाँ प्रमाणाभास बनेगा सभी सफा।।७९।।
अन्वयार्थ-(अंतरङ्गार्थतैकांते अखिलं बुद्धिवाक्यं मृषा) यदि एकांत से अंतरंग अर्थरूप ज्ञान तत्त्व को ही माना जाये, तब तो सम्पूर्ण बुद्धिरूप अनुमान और वाक्यरूप आगम मिथ्या हो जावेंगे (अत: प्रमाणाभासं एव तत् प्रमाणात् ऋते कथं) इसी से वे प्रमाणाभास हो जावेंगे पुन: प्रमाणाभास भी प्रमाण के बिना वैâसे संभव है ?
कारिकार्थ-यदि अंतरंग-ज्ञानरूप पदार्थ को ही वास्तविक मानकर उसका एकांत स्वीकार किया जावे, तब तो सभी बुद्धि-अनुमान और वाक्य-आगम मिथ्या ही हो जावेगा। अत: वे बुद्धि और वाक्य प्रमाणाभास ही सिद्ध होंगे। पुन: वह प्रमाणाभास भी प्रमाण के बिना वैâसे सिद्ध हो सकेगा ?
साध्यसाधनविज्ञप्तेर्यदि विज्ञप्तिमात्रता।
न साध्यं न च हेतुश्च, प्रतिज्ञाहेतुदोषत:।।८०।।
साध्य हेतु का ज्ञान यदी, बस ज्ञान मात्र माना जावे।
तब तो साध्य नहीं होगा, हेतू दृष्टांत नहीं होंगे।।
चूँकि ‘प्रतिज्ञादोष’ कहा जो, स्ववचन बाधित आवेगा।
‘हेतुुदोष’ है असिद्धादि ये, आते सब दूूषित होगा।।८०।।
अन्वयार्थ-(यदि साध्यसाधनविज्ञप्ते: विज्ञप्तिमात्रता) यदि साध्य और साधन के ज्ञान को ज्ञानमात्र ही माना जाये, तब तो (न साध्यं न च हेतु: च प्रतिज्ञाहेतुदोषत:) साध्य और हेतु ये दोनों नहीं बनते हैं एवं द्वितीय चकार से दृष्टांत भी नहीं बनता है, क्योंकि ऐसा कहने में प्रतिज्ञा दोष और हेतु दोष उपस्थित होता है।
कारिकार्थ-साध्य और साधन की विज्ञप्ति को यदि विज्ञान मात्र ही स्वीकार किया जावे, तब तो प्रतिज्ञा और हेतु के दोष से न साध्य ही सिद्ध होगा न हेतु एवं दृष्टांत ही बन सकेंगे।
भावार्थ–प्रतिज्ञा दोष अर्थात् स्ववचन विरोध होता है और हेतु दोष अर्थात् असिद्ध, विरुद्ध, अनैकांतिक दोष आते हैं। साध्य सहित पक्ष के कहने को ‘प्रतिज्ञा’ एवं साधन के वचन को हेतु कहते हैं। विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध सभी तत्त्वों को ज्ञान मात्र ही कहता है तब साध्य और साधन व्यवस्था कैसे बनेगी ?
बहिरङ्गार्थतैकान्ते प्रमाणाभासनिन्हवात्।
सर्वेषां कार्यसिद्धि:स्याद्विरुद्धार्थाऽभिधायिनाम्।।८१।।
बाह्य अर्थ को ही यदि मानों, चेतन का बस नाश हुआ।
तभी प्रमाणाभास विपर्यय, संशय आदि समाप्त हुआ।।
पुन: विरोधी कथनी वाले, सबके सभी विरोधी मत।
सच्चे हो जावेंगे फिर तो, नहीं रहें मिथ्यात्वी जन।।८१।।
अन्वयार्थ-(बहिरङ्गार्थतैकांते प्रमाणाभासनिन्हवात्) यदि एकांत से बाह्य पदार्थ ही माने जावें, अंतरंग ज्ञान तत्त्व न माना जावे, तब तो इससे प्रमाणाभास का लोप हो जावेगा (विरुद्धार्थाभिधायिनां सर्वेषां कार्यसिद्धि: स्यात्) तब तो विरुद्ध अर्थ को कहने वाले सभी जनों के सभी कार्य सिद्ध हो जावेंगे।
कारिकार्थ-घट-पटादि बाह्य पदार्थ ही एकांत से हैं अंतरंग पदार्थ नहीं हैं, ऐसी एकांत मान्यता में तो संशयादि रूप प्रमाणाभास का निन्हव हो जाने से सभी विरुद्धार्थ को कहने वालों की भी कार्यसिद्धि हो जावेगी, क्योंकि बाह्य पदार्थ सभी सत्यरूप ही हैं।
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते।।८२।।
अंतरंग बहिरंग ज्ञेय का, जो ऐकांतिक ‘ऐक्य’ कहा।
स्याद्वाद विद्वेषी जन के, मत में सदा विरोध रहा।।
ज्ञान और बाह्यार्थ वस्तु को, यदी अवाच्य कहा जिसने।
तब तो वचनों से ‘अवाच्य’ को, वैâसे वाच्य किया उसने।।८२।।
अन्वयार्थ-(स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्) स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ ज्ञान तत्त्व और बाह्य तत्त्व इन उभय का एकात्म्य भी नहीं हो सकता है क्योंकि इनका परस्पर में विरोध है (अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते) यदि इन दोनों का सर्वथा अवाच्य स्वीकार किया जावे, तब तो ‘अवाच्य’ यह कथन भी नहीं हो सकेगा।
कारिकार्थ-स्याद्वादन्याय के विद्वेषियों के यहाँ एकान्त से इन दोनों का उभयैकात्म्य भी संभव नहीं है, क्योंकि परस्पर में विरोध आता है एवं तत्व को अवाच्य रूप स्वीकार करने पर तो ‘‘अवाच्य’’ यह शब्द भी नहीं कहा जा सकता है।
भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिन्हव:।
बहि:प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते।।८३।।
भाव प्रमेयापेक्षा करके, नहीं प्रमाणाभास रहे।
चूँकी ज्ञान स्व-स्वरूप, संवेदन से हि प्रमाण कहे।।
बाह्य पदार्थ प्रमेयापेक्षा, कहे प्रमाण, प्रमाणाभास।
अत: नाथ! तव मत में अंत:-बाह्य तत्त्व दोनों विख्यात।।८३।।
अन्वयार्थ-(ते भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिन्हव:) हे भगवन्! आपके मत में अंत: प्रमेय की अपेक्षा करने पर प्रमाणाभास का लोप हो जाता है (बहि: प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च) बाह्य पदार्थों के प्रमेय की अपेक्षा करने पर प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही होते हैं।
कारिकार्थ-हे भगवन्! आपके सिद्धान्त में भाव-ज्ञान को प्रमेयरूप से अपेक्षित करने पर प्रमाणाभास का लोप हो जाता है एवं बाह्य पदार्थ को प्रमेय रूप से अपेक्षित करने पर तो प्रमाण एवं प्रमाणाभास दोनों ही ाfसद्ध हो जाते हैं।
भावार्थ-स्वसंवेदन ज्ञान की अपेक्षा से सभी ज्ञान प्रमाण हैं चाहे संशय आदि ही क्यों न हों क्योंकि सभी ज्ञान अपने-अपने स्वरूप के द्योतक होने से अपने-अपने विषय में प्रमाण ही हैं। वहाँ प्रमाणाभास का नाम ही नहीं है, किन्तु जब बाह्य पदार्थों को प्रमेय करते हैं तब प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही व्यवस्थाएँ बन जाती हैं। जहाँ विसंवाद होता है अथवा बाधा आती है वहाँ प्रमाणाभास बनता है, किन्तु जहाँ विसंवाद न होकर निर्बाधता रहती है वहाँ प्रमाण बनता है। इस प्रकार से प्रमाण-अप्रमाण की व्यवस्था में कोई विरोध नहीं आता है।
जीवशब्द: सबाह्यार्थ: संज्ञात्वाद्धेतुशब्दवत्।
मायादिभ्रान्तिसंज्ञाश्च, मायाद्यै: स्वै: प्रमोक्तिवत्।।८४।।
जीव शब्द निज बाह्य अर्थ से, युक्त नित्य चैतन्य पुरुष।
चूँकि संज्ञारूप कहा है जैसे हेतू शब्द सुलभ।।
माया आदि शब्द दिखते हैं, भ्रांतरूप फिर भी वे सब।
ज्ञान शब्दवत् अपना-अपना, अर्थ प्रगट करते संतत।।८४।।
अन्वयार्थ-(जीवशब्द: सबाह्यार्थ: संज्ञात्वात् हेतुशब्दवत्) ‘जीव’ यह शब्द अपने बाह्य अर्थ से युक्त है क्योंकि संज्ञा या नाम वाला है जैसे हेतु शब्द बाह्य अर्थ के बिना नहीं होता है (मायादिभ्रांति संज्ञाश्च स्वै: मायाद्यै: प्रमोक्तिवत्) माया आदि भ्रांत अर्थवाचक शब्द भी अपने-अपने माया आदि भ्रांत अर्थ को लिए हुए ही होते हैं जैसे कि प्रमाण शब्द अपने अर्थ को लिए हुए होता है।
कारिकार्थ-संज्ञारूप होने से ‘हेतु’ इस शब्द की तरह जीव यह शब्द भी जीव लक्षण अपने बाह्य अर्थ से सहित हैं। जैसे प्रमाण वचन अपने अर्थ से युक्त हैं तथैव मायादि, भ्रांति शब्द अपने मायादि अर्थों से सहित हैं।
बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्रो बुद्ध्यादिवाचिका:।
तुल्या बुद्ध्यादिबोधाश्च, त्रयस्तत्प्रतिबिम्बका:।।८५।।
बुद्धी, शब्द, अर्थ ये तीनों, संज्ञा नाम कहे जाते।
निज से पृथक् बुद्धि अरु शब्द, अर्थ वस्तु को ये कहते।।
अत: तुल्य है तथा नाम त्रय, के प्रतिबिम्बक भी तीनों।
बुद्धि शब्द अरु अर्थ ज्ञान ये, बाह्य वस्तु व्यंजक तीनों।।८५।।
अन्वयार्थ-(बुद्धिशब्दार्थसंज्ञा: ता: तिस्र: बुद्ध्यादिवाचका:) बुद्धि, शब्द और अर्थ ये तीनों नाम अपने से भिन्न बुद्धि, शब्द एवं अर्थ रूप अपने वाच्य अर्थ को कहते हैं (बुद्ध्यादिबोधा: च तुल्या: त्रय: तत्प्रतिबिम्बका:) तथा जो बुद्धि शब्द और अर्थरूप तीनों के ज्ञान हैं वे तुल्य हैं एवं ये तीनों ही बुद्ध्यादि विषय के प्रतिबिम्बक हैं।
कारिकार्थ-ज्ञान, शब्द एवं अर्थ इन तीनों की संज्ञाएँ बुद्धि आदि पदार्थ को कहने वाली हैं। अत: वे तुल्य हैं तथा बुद्धि, शब्द और अर्थ रूप ज्ञान हैं वे भी तीनों बुद्धि आदि विषय के प्रतिबिम्बक हैं।
भावार्थ-उच्चरित शब्द से जो निश्चित ज्ञान होता है वही उसका निजी अर्थ है जैसे घट शब्द के उच्चारण से श्रोता को कंबुग्रीवादि सहित घट पदार्थ का बोध होता है अत: घट शब्द का अर्थ घटरूप पदार्थ माना गया है। वैसे ही शब्द-शब्द से उसका बाह्य अर्थ स्पष्ट झलक जाता है।
जीवार्थक जीव शब्द, बुद्धि अर्थक जीव शब्द एवं नाम अर्थक जीव शब्द ये तीनों ही अपने से भिन्न अर्थ ज्ञान एवं नामरूप तीन वाच्य अर्थ को कहते हैं क्योंकि इनके प्रतिबिम्बक ज्ञान तीन ही होते हैं। इस प्रकार से एक जीव पदार्थ का ज्ञान नाम एवं अर्थ रूप से प्रतिपादन करने वाली होने से इन संज्ञाओं में समानता है एवं एक जीव को ही ज्ञान नाम एवं अर्थ रूप संज्ञाओं में दिखाने वाले होने से इनके प्रतिबिम्बक ज्ञानों में समानता है।
वत्तृ श्रोतृप्रमात¸णां बोधवाक्यप्रमा: पृथव्।
भ्रान्तावेव प्रमाभ्रान्तौ बाह्याऽर्थौ तादृशेतरौ।।८६।।
वक्ता, श्रोता और प्रमाता, इनके ज्ञान अरु वाक्य प्रमाण।
पृथक्-पृथक् हैं यदि ज्ञानादिक, भ्रांतरूप ही कहे तमाम।।
प्रमा भ्रांत होने से तो फिर, इष्ट अनिष्ट पदार्थ सभी।
तथा प्रमाण अरु अप्रमाण ये, भ्रांत रूप हो जाएं सही।।८६।।
अन्वयार्थ-(वत्तृâश्रोतृप्रमात¸णां बोधवाक्यप्रमा: पृथक्) वक्ता श्रोता और प्रमाता इन तीनों के ज्ञान, वाक्य और प्रमा पृथक्-पृथक् हैं (भ्रांतै एव प्रमाभ्रांतौ बाह्यार्थौ तादृशेतरौ) यदि इनको भ्रांतरूप माना जावे, तो ज्ञान भी भ्रांतरूप हो जावेगा। प्रमाण और अप्रमाण एवं इष्ट अनिष्ट पदार्थ भी भ्रांत स्वरूप ही हो जावेंगे।
कारिकार्थ-वक्ता, श्रोता एवं प्रमाता के बोध वाक्य एवं प्रमा ये शब्द भिन्न-भिन्न ही अवभासित होते हैं। यदि बोध, वाक्य और प्रमा को भ्रांतिरूप ही माना जावे, तब तो प्रमाण भी भ्रांतरूप हो जायेगा, पुन: तादृश भ्रांत-अप्रमाण एवं इतर-अभ्रांत-प्रमाण रूप वे इष्ट और अनिष्ट बाह्य पदार्थ भी भ्रांत ही मनाने पड़ेंगे।
बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं, बाह्यार्थे सति नाऽसति।
सत्यानृतव्यवस्थैवं, युज्यतेऽर्थाप्त्यनाप्तिषु।।८७।।
बाह्य पदार्थ के होने पर, ज्ञान अरु शब्द प्रमाण सही।
बाह्य पदारथ नहिं होवे यदि, ज्ञान अरु शब्द प्रमाण नहीं।।
अत: अर्थ की प्राप्ती से ही, वस्तु व्यवस्था घटती है।
किन्तु अर्थ यदि प्राप्त न हो तब, मृषा व्यवस्था बनती है।।८७।।
अन्वयार्थ-(बाह्यार्थे सति बुद्धि शब्दप्रमाणत्वं असति न) बाह्य पदार्थ के होने पर ही ज्ञान और शब्द में प्रमाणता आती है और बाह्य अर्थ के नहीं होने पर नहीं आती है (एवं अर्थाप्त्यनाप्तिषु सत्यानृतव्यवस्था युज्यते) इसी प्रकार से बाह्य पदार्थ की प्राप्ति में सत्य की व्यवस्था एवं प्राप्ति न होने में असत्य की व्यवस्था बनती है।
कारिकार्थ-बाह्य पदार्थ के होने पर बुद्धि-ज्ञान और शब्द को प्रमाणता है एवं बाह्यार्थ के नहीं होने पर उनको प्रमाणरूपता नहीं है। इस्ा प्रकार से अर्थ की प्राप्ति और अप्राप्ति में सत्य एवं असत्य की व्यवस्था की जाती है।
भावार्थ-विज्ञानाद्वैतवादी ज्ञान को ही प्रमाण मानता है। इस पर आचार्य कहते हैं कि बाह्य पदार्थों को माने बिना ज्ञान में प्रमाणता-अप्रमाणता की व्यवस्था नहीं बन सकती है। अंतर्ज्ञेय रूप ज्ञान को ही प्रमेय करने की अपेक्षा रखने पर तो सम्यग्ज्ञान एवं मिथ्याज्ञान सब में प्रमाणता होती है क्योंकि संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रूप मिथ्याज्ञान भी अपने-अपने स्वरूप को जैसे का तैसा कहते हैं अत: स्वरूप ज्ञान की अपेक्षा सभी ज्ञान प्रमाण ही हैं किन्तु जब ज्ञान में प्रमाणता की कसौटी करनी होती है तब उस ज्ञान के द्वारा जाने गये पदार्थों की ओर दृष्टि डालनी पड़ती है।यदि ज्ञान का विषयभूत पदार्थ जिस रूप से ज्ञान से जाना गया है। वैसा ही दिख रहा है तब तो वह ज्ञान सत्य माना जाता है। यदि उस रूप से नहीं दिख रहा है। तब वह ज्ञान असत्य माना जाता है। इसलिए ज्ञान में प्रमाणता और अप्रमाणता बाह्यार्थ के होने पर ही आती है अन्यथा नहीं। वैसे ही शब्द में प्रमाणता और अप्रमाणता भी बाह्य अर्थ के होने पर ही आती है अन्यथा नहीं, क्योंकि स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण शब्द बिना एवं बाह्य अर्थ के बिना नहीं बन सकते हैं। इसलिए बाह्य अर्थ वास्तविक हैं, ऐसा मानना चाहिए।
।।इति सप्तम: परिच्छेद:।।