दैवादेवार्थसिद्धिश्चेद्दैवं पौरुषत: कथम्।
दैवतश्चेदनिर्मोक्ष: पौरुषं निष्फलं भवेत्।।८८।।
यदी भाग्य से सभी कार्य की, सिद्धि मान लिया तब तो।
पुरुषारथ से भाग्यरूप यह, कार्य बना यह कहना क्यों।।
यदी भाग्य यह पूर्व-पूर्व के, भाग्यों से ही बन जाता।
तब तो मोक्ष नहीं किसको भी, पौरुष भी निष्फल होगा।।८८।।
अन्वयार्थ-(चेत् दैवात् एव अर्थसिद्धि: पौरुषत: दैवं कथं) यदि एकांत से भाग्य से ही सभी कार्यों की सिद्धि हो जाती है तब पुरुष के व्यापाररूप पुरुषार्थ द्वारा भाग्य का निर्माण वैâसे होता है ? (दैवत: चेत् अनिर्मोक्ष: पौरुषं निष्फलं भवेत्) यदि पूर्व के भाग्य से भाग्य बनता है, तब तो कभी भी किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगी क्योंकि पूर्व-पूर्व के भाग्य से भाग्य का निर्माण होता ही रहेगा और मोक्ष का अभाव मानने से तो पुरुषार्थ निष्फल ही हो जावेगा।
कारिकार्थ-यदि दैव-भाग्य से ही अर्थ-प्रयोजन की सिद्धि मानी जाये, तब तो वह दैव पौरुष से पुरुष के व्यापार से वैâसे सिद्ध होगा ? यदि ऐसा कहो कि उस दैव की सिद्धि भी दैव से ही होती है, तब तो मोक्ष भी कभी नहीं हो सकेगा अत: उस मोक्ष का अभाव हो जावेगा एवं मोक्ष के कारणरूप से स्वीकृत पौरुष-पुरुषार्थ भी निष्फल हो जावेगा।
रुषादेव सिद्धिश्चेत् पौरुषं दैवत: कथम्?
पौरुषाच्चेदमोघं स्यात्, सर्वप्राणिषु पौरुषम्।।८९।।
यदि पुरुषार्थ अकेले से ही, सभी कार्य की सिद्धि कहो।
तब तो भाग्य उदय से यह, पुरुषारथ वैâसे बना अहो!।।
यदि पुरुषार्थ स्वयं पौरुष से, होता तब तो सब जन के।
सभी कार्य की सिद्धी होगी, चूंकि सभी में पौरुष है।।८९।।
अन्वयार्थ-(चेत् पौरुषात् एव सिद्धि: दैवत: पौरुषं कथं) यदि पुरुषार्थ से ही सम्पूर्ण कार्यों की सिद्धि मानी जाये, तो भाग्य से पुरुषार्थ वैâसे माना जावेगा? (पौरुषात् चेत् अमोघं स्यात् सर्वप्राणिषु पौरुषं) यदि कहो कि पुरुषार्थ से ही पुरुषार्थ बनता है तब तो सभी के कार्य सिद्ध हो जावेंगे, क्योंकि पुरुषार्थ तो सभी प्राणियों में पाया जाता है।
कारिकार्थ-यदि केवल पुरुषार्थ से ही अर्थ की सिद्धि मानी जावे, तब तो दैव से पुरुषार्थ देखा जाता है, वह वैâसे घटेगा? यदि कहो कि पुरुषार्थ भी पुरुषार्थ से ही उत्पन्न होता है पुन: किये गये सभी कार्य सफल होने चाहिए, क्योंकि पुरुषार्थ तो सभी प्राणियों में पाया जाता है।
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते।।९०।।
भाग्य और पुरुषार्थ उभय का, ऐक्य नहीं है आपस में।
चूँकि विरोधी हैं ये दोनों, स्याद्वाद नय द्वेषी के।।
यदि इन दोनों की ‘अवाच्यता’, कहो सर्वथा की विधि से।
तब तो वचनों से ‘अवाच्य’ इस, पद को वाच्य किया वैâसे?।।९०।।
अन्वयार्थ-(स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्) स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ भाग्य और पुरुषार्थ इन दोनों का एकात्म्य भी संभव नहीं है क्योंकि दोनों का परस्पर में विरोध है (अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: ्ना युज्यते) यदि अवाच्यता का एकांत माना जाता है तो ‘ये दोनों तत्त्व अवाच्य हैं’’ ऐसा कहना भी असंभव हो जाता है।
कारिकार्थ-स्याद्वाद न्याय के बैरियों के यहाँ उभय ऐकात्म्य भी नहीं हैं अर्थात् पृथक् कार्य की अपेक्षा से दैव एवं पौरुष के एकात्म्य को मीमांसक ने माना है वह भी सिद्ध नहीं है, क्योंकि परस्पर में विरोध आता है। एकांत से अवाच्यता के मानने पर ‘अवाच्य’ यह उक्ति ही असंभव है।
अबुद्धिपूर्वाऽपेक्षाया-मिष्टानिष्टं स्वदैवत:।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात्।।९१।।
बिना विचारे अनायास ही, इष्ट अनिष्ट कार्य कोई।
जब बन जावे तब समझो तुम, भाग्य प्रधान हमारा ही।।
बुद्धीपूर्वक यदि प्रयत्न से, इष्ट अनिष्ट कार्य बनते।
तब तो निज के पुरुषार्थ को, मुख्य भाग्य को गौण कहें।।९१।।
अन्वयार्थ-(अबुद्धिपूर्वापेक्षायां इष्टानिष्टं स्वदैवत:) बुद्धि व्यापार की अपेक्षा रखे बिना अनायास ही जो इष्ट-अनिष्ट कार्य सिद्ध हो जाते हैं वे अपने-अपने भाग्य से सिद्ध होते हैं। (बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायां इष्टानिष्टं स्वपौरुषात्) एवं बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा करके जो इष्ट-अनिष्ट कार्य सिद्ध होते हैं वे पुरुषार्थकृत हैं।
कारिकार्थ-अबुद्धिपूर्वक की अपेक्षा में जो इष्ट एवं अनिष्ट कार्य होते हैं वे स्वभाग्य से होते हैं एवं बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा करने पर सभी इष्ट, अनिष्ट कार्य अपने पुरुषार्थ से होते हैं।
भावार्थ-ये भाग्य और पुरुषार्थ सदैव एक-दूसरे की अपेक्षा रखकर होते हैं भाग्य के बिना अकेला पुरुषार्थ एवं पुरुषार्थ के बिना अकेला भाग्य असंभव है। जब कोई भी कार्य बिना प्रयास के सफल होते हैं तब भाग्य की प्रधानता और पुरुषार्थ गौण है एवं जब कोई भी कार्य प्रयत्नपूर्वक सिद्ध होते हैं तब पुरुषार्थ प्रधान है भाग्य गौण है।
।।इति अष्टम: परिच्छेद:।।