पापं धु्रवं परे दु:खात् पुण्यं च सुखतो यदि।
अचेतनाऽकषायौ च, बध्येयातां निमित्तत:।।९२।।
यदि पर को दु:ख देने से ही, पाप बंध सुख से हो पुण्य।
कंटक आदि अचेतन को तब, पाप बंध हो पय१ को पुण्य।।
यदि चेतन नहिं बंधते है तब, अकषायी मुनि गतरागी।
जन को सुख-दु:ख के निमित्त से, पुण्य-पाप के हों भागी।।९२।।
अन्वयार्थ-(यदि परे दु:खात् पापं ध्रुवं सुखत: च पुण्यं) यदि पर को दु:ख देने से निश्चित ही पाप का बंध होता है और पर को सुख देने से पुण्य बंध होता है (अचेतनाकषायौ च निमित्तत: बध्येयातां) तब तो अचेतन और कषाय रहित भी निमित्त से बंध जावेंगे।
कारिकार्थ-यदि दूसरे प्राणी में दु:ख उत्पन्न करने से एकांतत: पाप का बंध तथा सुख देने से पुण्य का बंध माना जायेगा, तब तो अचेतन पदार्थ एवं वीतरागी भी निमित्त से पुण्य-पाप रूप बंध को प्राप्त हो जावेंगे।
पुण्यं ध्रुवं स्वतो दु:खात् पापं च सुखतो यदि।
वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युञ्ज्यान्निमित्तत:।।९३।।
यदि अपने को दु:ख देने से, पुण्य बंध सुख से हो पाप।
तब तो वीतराग मुनि निज में, कायक्लेश से सहते ताप।।
मुनि विद्वान् तत्त्व को समझें, संतोषामृत सुख भोगी।
ये दोनों फिर पुण्य-पाप से, बंधे मुक्ति किसको होगी।।९३।।
अन्वयार्थ-(यदि स्वत: दु:खात् ध्रुवं पुण्यं सुखत: च पापं) यदि स्वयं में दु:ख उत्पन्न करने से निश्चित ही पुण्य का बंध एवं स्वयं को सुख देने से पाप का बंध होता है तब तो (वीतरागो विद्वान् मुनि: निमित्तत: ताभ्यां युंज्यात्) कषाय रहित वीतराग मुनि और विद्वान् मुनिजन भी पुण्य-पाप का बंध करने लगेंगे क्योंकि ये भी अपने सुख-दु:ख की उत्पत्ति में निमित्त कारण होते हैं।
कारिकार्थ-यदि अपने आप में दु:ख को उत्पन्न करने से एकांत से पुण्य बंध एवं सुख उत्पादन करने से पाप बंध माना जावे, तो वीतराग एवं विद्वान् मुनि भी निमित्त से पुण्य, पाप से बंध जाने चाहिए।
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते।।९४।।
पुण्य-पाप के बध्ां, उभय का, यदि एकात्म्य लिया जावे।
स्याद्वाद विद्वेषी जन में, सदा विरोधि रहा आवे।।
यदि दोनों की ‘अवक्तव्यता’, कहो सदा एकांत सही।
तब तो ‘अवक्तव्य’ इस वच से, स्वमत कथन यह शक्य नहीं।।९४।।
अन्वयार्थ-(स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्) स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ इन पुण्य-पापरूप दोनों सिद्धांतों का एकात्म्य भी नहीं है क्योंकि परस्पर में विरोध आता है (अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते) यदि दोनों को अवाच्य ही एकांत से कहा जाये, तो यह पुण्य-पाप बंध अवाच्य है यह कथन भी अशक्य हो जावेगा।
कारिकार्थ-स्याद्वादविद्वेषी के यहाँ उभयैकात्म्य भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि परस्पर में विरोध आता है। सर्वथा ‘अवाच्य’ तत्त्व को स्वीकार करने पर तो ‘अवाच्य’ यह कथन भी नहीं बन सकेगा।
विशुद्धिसंक्लेशाङ्गं चेत् स्वपरस्थं सुखाऽसुखम्।
पुण्यपापास्रवौ युक्तौ न चेद्व्यर्थस्तवाऽर्हत:।।९५।।
यदी स्व-पर का सुख उनके, परिणाम विशुद्धी में हेतू।
तथा स्व-पर का दु:ख उनके, संक्लेश भाव में यदि हेतू।।
तब ये सुख-दु:ख पुण्य-पाप के, आस्रव में हेतू बनते।
यदि ऐसा नहिं तब तो अर्हन्! तव मत में यह व्यर्थ कहे।।९५।।
अन्वयार्थ-(चेत् स्वपरस्थं सुखासुखं विशुद्धिसंक्लेशांङ्गं) यदि स्वपर को होने वाला सुख और दु:ख विशुद्धि और संक्लेश के कारण है (पुण्यपापास्रवौ युक्तौ न चेत् तव अर्हत: व्यर्थ:) तब तो उनसे पुण्य और पाप का आस्रव होना युक्त है। यदि वे सुख-दु:ख विशुद्धि और संक्लेश के कारण नहीं है तब तो अर्हन् भगवन्! वे व्यर्थ ही हैं।
कारिकार्थ-यदि अपने सुख-दु:ख एवं परसंंबंधी सुख, दु:ख विशुद्धि एवं संक्लेश के निमित्त से होते हैं तब तो उनसे ही पुण्य और पाप का आस्रव होना युक्त ही है। यदि विशुद्धि और संक्लेश रूप परिणाम नहीं है, तब तो वे व्यर्थ ही हैं अर्थात् पुण्य, पाप का आस्रव हो ही नहीं सकता है, ऐसा आप अर्हत्प्रभु का सिद्धान्त है।
।।इति नवम: परिच्छेद:।।