अज्ञानाच्चेद्ध्रुवो बन्धो, ज्ञेयाऽनन्त्यान्न केवली।
ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद्बहुतोऽन्यथा।।९६।।
यदि अज्ञान बंध का हेतू, निश्चित है मानो, तब तो।
ज्ञेय पदारथ कहे अनन्तों, कोई केवली वैâसे हो?।।
अल्पज्ञान से यदि मुक्ती हो, तब तो उसका बहु अज्ञान।
बंध हेतु होगा निश्चित तब, नहीं किसी को मुक्तिलाभ।।९६।।
अन्वयार्थ-(चेत् अज्ञानात् ध्रुवो बंधो ज्ञेयानन्त्यात् केवली न) यदि अज्ञान से निश्चित बंध होता है तब ज्ञेय पदार्थ अनंत है उनका ज्ञान न हो सकने से कोई भी केवली नहीं हो सकता है (चेत् ज्ञानस्तोकात् विमोक्ष: बहुतो अज्ञानात् अन्यथा) यदि अल्पज्ञान से मोक्ष होता है तब उसी जीव के बहुत सा अज्ञान रहने से बंध भी होता रहेगा पुन: मोक्ष नहीं हो सकेगा।
कारिकार्थ-यदि सांख्य मत के अनुसार अज्ञान से बंध अवश्यंभावी मानों तब तो ज्ञेय पदार्थों के अनन्त होने से कोई केवली नहीं बन सकेगा। यदि एकांत से अल्पज्ञान से ही मोक्ष मानी जावे, तब तो अवशिष्ट बहुत से अज्ञान से अन्यथा-बंध की प्राप्ति हो जावेगी।
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते।।९७।।
यदि अज्ञान-ज्ञान से बंध-मोक्ष उभय का ऐक्य कहो।
स्याद्वाद विद्वेषी मत में, उभय विरोधी हैं तब तो।।
यदि दोनों का ‘अवक्तव्य’ ही, अनपेक्षित हो मान लिया।
तब तो अवक्तव्य इसको भी, वैâसे वच से प्रकट किया।।९७।।
अन्वयार्थ-(स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्) स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ अज्ञान से बंध और अल्पज्ञान से मोक्ष इनका उभय एकात्म्य भी ठीक नहीं है। क्योंकि परस्पर में विरोध है (अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते) यदि सर्वथा इन दोनों का अवाच्य ही कहा जाये, तो अज्ञान-ज्ञान से बंध-मोक्ष की व्यवस्था कह नहीं सकते अत: ‘अवाच्य है’ यह कथन भी वाच्य ही होने से आपका एकांत नहीं रहता है।
कारिकार्थ-स्याद्वादन्याय के द्वेषियों के यहाँ इन दोनों का परस्पर निरपेक्ष एकांत भी श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि विरोध आता है। एकांत में अवाच्यता को स्वीकार करने पर ‘अवाच्य’ यह वचन ही कथमपि शक्य नहीं है।
अज्ञानान्मोहिनो बन्धो नाऽज्ञानाद्-वीतमोहत:।
ज्ञानस्तोकाच्च मोक्ष: स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा।।९८।।
स्याद्वाद में मोह सहित, अज्ञान बंध का कारण है।
मोहरहित अज्ञान बहुत भी, नहीं बंध का कारण है।।
अल्पज्ञान भी मोहरहित है, उससे मोक्ष प्राप्त होगा।
किन्तु मोहयुत बहुत ज्ञान से, कर्मबंध निश्चित होता।।९८।।
अन्वयार्थ-(मोहिनो अज्ञानात् बंध: वीतमोहत: अज्ञानात् न) मोह सहित अज्ञान से बंध होता है एवं मोहरहित अज्ञान से बंध नहीं होता है (अमोहात् ज्ञानस्तोकात् च मोक्ष: स्यात् मोहिनो अन्यथा) मोह रहित अल्पज्ञान से मोक्ष होता है और मोह सहित अल्पज्ञान से बंध ही होता है।
कारिकार्थ-मोह सहित अज्ञान से बंध एवं मोह रहित अज्ञान से बंध नहीं होता है। मोह रहित अल्पज्ञान से भी मुक्ति होती है किन्तु मोह सहित ज्ञानस्तोक से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है।
कामादिप्रभवश्चित्र: कर्मबन्धाऽनुरूपत:।
तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्ध्यशुद्धित:।।९९।।
काम क्रुधादिक भावों से है, यह उत्पन्न भाव संसार।
स्वयं उपार्जित कर्मों के, अनुरूप दिखे हैं विविध प्रकार।।
वह ही कर्म हुआ है अपने, रागादिक परिणामों से।
कर्म सहित प्राणी दो विध हैं, भव्य-अभव्य प्रकारों से।।९९।।
अन्वयार्थ-(कामादिप्रभव: चित्र: कर्मबंधानुरूपत:) यह काम, क्रोध आदि से होने वाला संसार विचित्ररूप है वह संसार अपने-अपने कर्म के अनुकूल ही होता है (तत् च कर्मस्वहेतुभ्य:) और वह कर्म भी अपने-अपने रागादि परिणाम के निमित्त से होता है (ते जीवा: शुद्ध्यशुद्धित:) जिनको कर्मबंध होता है, वे जीव भी शुद्धि और अशुद्धि के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
कारिकार्थ-जो काम-रागादिकों का उत्पाद होता है वह कार्यरूप-भाव संसार नाना प्रकार का है वह ज्ञानावरणादि कर्मबंध के अनुसार ही होता है और वह कर्म अपने हेतुभूत रागादि परिणामों से ही होता है तथा वे जीव शुद्धि-भव्यत्व और अशुद्धि-अभव्यत्व के भेद से दो प्रकार के हैं।
भावार्थ-कोई इस संसार को ईश्वर कृत मानते हैं, किन्तु जैनाचार्यों ने इस संसार को कर्मबंध के निमित्त से होता है, ऐसा माना है। कर्मसहित संसारी जीव के भी दो भेद माने हैं भव्य और अभव्य। आगे कारिका में इसी का स्पष्टीकरण करते हैं।
शुद्ध्यशुद्धी पुन: शक्ती ते पाक्याऽपाक्यशक्तिवत्।
साद्यनादी तयोर्व्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचर:।।१००।।
भव्य अभव्य कही दो शक्ती, पकने योग्य न पकने योग्य।
उड़द शक्तिवत् इन दोनों की, अभिव्यक्ती है सादि-अनादि।।
सम्यक्त्वादि प्रकट भव्यों के, अभव्य कोरडू मूंग समान।
वस्तु स्वभाव तर्क करने का, विषय नहीं हो सके प्रधान।।१००।।
अन्वयार्थ-(पुन: ते शुद्ध्यशुद्धी शक्ती पाक्याऽपाक्यशक्तिवत्) पुन: जीव की वे शुद्धि-अशुद्धि शक्तियाँ पकने योग्य न पकने योग्य की शक्ति के समान हैं (तयो: व्यक्ती साद्यनादी) उन दोनों शक्तियों की व्यक्ति-प्रकटता सादि और अनादि है (स्वभाव: अतर्कगोचर:) क्योंकि स्वभाव तर्क के गोचर नहीं होता है।
कााfरकार्थ-जीवों की ये शुद्धि और अशुद्धि रूप दो शक्तियाँ मूंग आदि के पकने योग्य एवं न पकने योग्य शक्ति के समान हैं पुन: इन दोनों की शक्ति भव्य एवं अभव्य जीवों की अपेक्षा से सादि एवं अनादि है वस्तु का यह स्वभाव तर्क के अगोचर है।
भावार्थ-संसारी जीव के भव्य-अभव्य के भेद से दो भेद हैं उनमें जो शक्तियाँ हैं, वे पकने योग्य उड़द या नहीं पकने योग्य उड़द के समान है। जैसे- कोरडू मूंग या उड़द चाहे जितना पकाओ नहीं पकता है वैसे ही अभव्य जीव कभी भी मोक्ष नहीं जा सकते हैं उनकी शुद्धता प्रकट नहीं हो सकती है, इसीलिए ये अशुद्ध ही हैं इनकी अशुद्धि अनादि है, अनंत हैं किन्तु भव्य जीव कर्मों का नाश करके शुद्ध हो जाते हैं इसलिए इनकी शुद्धता की प्रकटता सादि है। कोई कहे ऐसा क्यों ? तो इसका कोई उत्तर नहीं है, क्योंकि वस्तु का स्वभाव प्रश्न का विषय नहीं होता है।
तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते, युगपत्सर्वभासनम्।
क्रमभावि च यज्ज्ञानं, स्याद्वादनयसंस्कृतम्।।१०१।।
भगवन्! तव शासन में तत्त्वज्ञान प्रमाण कहा जाता।
उसमें युगपत् सर्वप्रकाशी, केवलज्ञान कहा जाता।।
क्रमभावी हैं मतिज्ञानादिक, तत्त्व प्रमाणीभूत सही।
स्याद्वाद से नय से संस्कृत, जो क्रमभावी ज्ञान वही।।१०१।।
अन्वयार्थ-(ते तत्त्वज्ञानं प्रमाणं युगपत् सर्वभासनं) हे भगवन्! आपके तत्त्वज्ञान को प्रमाण कहा है, उसमें युगपत् सर्व पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान केवलज्ञान है (क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंंंस्कृतं) और क्रम से उत्पन्न होने वाले जो ज्ञान हैं वे स्याद्वाद और नयों से संस्कृत हैं।
कारिकार्थ-हे भगवन्! आपके सिद्धान्तानुसार तत्त्वज्ञान ही प्रमाण है, उसमें युगपत् सर्वपदार्थों का अवभासन करने वाला ज्ञान केवलज्ञान है एवं क्रमभावी जो ज्ञान हैं वे स्याद्वाद और नय से संस्कृत मतिश्रुतज्ञानादि हैं।
उपेक्षा फलमाद्यस्य, शेषस्यादानहानधी:।
पूर्वं वाऽज्ञाननाशो वा, सर्वस्याऽस्य स्वगोचरे।।१०२।।
केवलज्ञान प्रमाणरूप का, कहा उपेक्षा फल जानो।
शेषज्ञान क्रमभावी का फल, ग्रहण त्याग बुद्धी मानों।।
अथवा क्रमभावी ज्ञानों का, कहा उपेक्षा फल यदि वा।
सब ज्ञानों का फल स्व-स्व, विषयक अज्ञान नाश होना।।१०२।।
अन्वयार्थ-(आद्यस्य फलं उपेक्षा शेषस्य आदानहानधी:) आदि के केवल- ज्ञान का फल उपेक्षा है एवं शेष क्रमवर्ती ज्ञानों का फल ग्रहण योग्य को ग्रहण करना और छोड़ने योग्य को छोड़ना इस बुद्धि का होना है (सर्वस्य अस्य पूर्वा वा स्वगोचरे अज्ञाननाशो वा) अथवा सभी ज्ञानों का फल उपेक्षा है अथवा सभी ज्ञानों का फल अपने-अपने विषय में अज्ञान का अभाव होना ही है।
कारिकार्थ-केवलज्ञान का व्यवहित फल उपेक्षा, शेष, मति, श्रुत आदि चारों ज्ञानों का व्यवहित फल ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करना, छोड़ने योग्य को छोड़ना तथा उपेक्षा करना है एवं इन पाँचों ज्ञानों का ही साक्षात् फल अपने-अपने विषयभूत पदार्थों में अज्ञान का नाश होना ही है।
वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम्।
स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि।।१०३।।
नाथ! आपके या श्रुतकेवलि मुनियों के भी वाक्यों में।
स्यात् शब्द है निपात् चूँकि, अर्थ साथ संबंधित है।।
इसीलिए यह सब वाक्यों में, ‘अनेकांत’ का द्योतक है।
गम्य वस्तु के प्रती विशेषण, अर्थ विवक्षित सूचक है।।१०३।।
अन्वयार्थ-(तव केवलिनां अपि स्यात् निपातो अर्थयोगित्वात्) हे भगवन्! आपके तथा श्रुतकेवलियों के भी मतानुसार ‘स्यात्’ यह निपात शब्द है जो कि अर्थ के साथ संबंधित है (वाक्येषु अनेकांतद्योती गम्यं प्रति विशेषणम्) यह वाक्यों में अनेकांत का द्योतक तथा गम्य रूप अर्थ के प्रति विशेषण माना गया है।
कारिकार्थ-हे भगवन्! श्रुत केवलियों के सिद्धान्त में एवं आप केवलज्ञानी के सिद्धांतानुसार ‘‘स्यात्’’ यह शब्द निपात सिद्ध है वाक्यों में अनेकांत का उद्योतन करने वाला है और गम्य-अर्थ के प्रति समर्थ विशेषण रूप है क्योंकि यह अपने अर्थ से रहित है।
स्याद्वाद: सर्वथैकान्त-त्यागात् किंवृत्तचिद्विधि:।
सप्तभंगनयापेक्षो हेयाऽऽदेयविशेषक:।।१०४।।
सदा सर्वथैकांत त्याग से, स्याद्वाद है सुखकर ही।
स्यात्-कथंचित् और कथंचन, शब्दों से एकार्थ सही।।
सप्तभंग अरु सभी नयों की, सदा अपेक्षा रखता है।
सभी वस्तु में हेय और आदेय व्यवस्था करता है।।१०४।।
अन्वयार्थ-(स्याद्वाद: सर्वथैकांतत्यागात् किं वृत्तचिद्विधि:) यह ‘स्याद्वाद’ पद सर्वथा एकांत का त्याग करने वाला है िंक शब्द से चित् अव्यय लगकर जो शब्द ‘कथंचित्’ आदि निष्पन्न होते हैं, वे इसके पर्यायवाची हैं (सप्तभंग नयापेक्षो हेयादेयविशेषक:) यह स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखने वाला है तथा हेय और उपादेय का भेद करने वाला होता है।
कारिकार्थ-सर्वथा एकांत के त्याग से ही स्याद्वाद होता है और कथंचित् आदि इसके पर्यायवाची ही हैं। यह सप्तभंग नयों की अपेक्षा रखने वाला है और हेय उपादेय की विशेष व्यवस्था करने वाला है।
स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने।
भेद: साक्षादसाक्षाच्च, ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत्।१०५।।
स्याद्वाद वैâवल्यज्ञान ये, सभी तत्त्व के परकाशक।
स्याद्वाद सब परोक्ष जाने, केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रगट।।
अंतर इतना ही इन दोनों, में परोक्ष-प्रत्यक्ष कहा।
इन दोनों से नहीं प्रकाशित, अर्थ अवस्तूरूप हुआ।।१०५।।
अन्वयार्थ-(स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने) स्याद्वाद अौर केवलज्ञान दोनों ही सभी तत्त्वों के प्रकाशक हैं (भेद: साक्षात् असाक्षात् च अन्यतमं हि अवस्तु भवेत्) इन दोनों के प्रकाशन में पदार्थों का साक्षात् करने और साक्षात् न करने का ही अंतर है इन दोनों ज्ञानों में से जो वस्तु किसी ज्ञान के द्वारा प्रकाशित नहीं होती है, वह अवस्तु कहलाती है।
कारिकार्थ-स्याद्वाद और केवलज्ञान ये दोनों ही सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले हैं। इन दोनों में अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञान साक्षात् सम्पूर्ण तत्त्वों का प्रकाशक है एवं स्याद्वाद असाक्षात् परोक्षरूप से प्रकाशक है, क्योंकि इन दोनों के बिना प्रकाशित वस्तु अवस्तु रूप ही है।
सधर्मणैव साध्यस्य, साधर्म्यादविरोधत:।
स्याद्वादप्रविभक्ताऽर्थ-विशेषव्यञ्जको नय:।।१०६।।
जो सपक्ष के साथ साध्य के, साधर्म्यों से अविरोधी।
साध्य अर्थ का ज्ञान कराने, वाला ‘नय’ है प्रगट सही।।
स्याद्वाद से प्रगट किये ही, अर्थ विशेषों का व्यंजक।
सुप्रमाण से ज्ञात वस्तु के, अंश-अंश को करे प्रगट।।१०६।।
अन्वयार्थ-(सधर्मणा एव साधर्म्यात् अविरोधत:) सपक्ष के साथ ही अपने साध्य के साधर्म्य से जो बिना किसी विरोध से (स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेष्यव्यञ्जक: नय:) श्रुत प्रमाणरूप स्याद्वाद के द्वारा जाने गये अर्थ विशेष का व्यंजक होता है, वह नय कहलाता है।
कारिकार्थ-सपक्ष (दृष्टान्त) के साथ ही साध्य के साधर्म्य से अविरोध रूप से जो स्याद्वादश्रुत प्रमाण के द्वारा विषयीकृत पदार्थ विशेष का व्यंजक होता है वह नय कहलाता है। यह नय का लक्षण है इसे ही हेतु कहते हैं।
भावार्थ-नय हेतुवाद है और स्याद्वादरूप आगम अहेतुवाद है। इन दोनों से संस्कृत तत्त्वज्ञान ही युक्ति एवं आगम से अविरुद्ध होता हुआ सुनिश्चित रूप से बाधक प्रमाण होने से रहित है। यहाँ नय का लक्षण प्रगट किया है और उसे हेतु स्वरूप बतलाया है। क्योंकि जो हेतु का स्वरूप है वही नय का स्वरूप है जो आपने साध्य के साथ अविनाभाव संबंध रखता है, वही हेतु है इससे यह स्पष्ट है कि विलक्षण और पंचरूप हेतु वास्तविक नहीं है केवल एक अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का निर्दोष वास्तविक लक्षण है।
जिस प्रकार नय स्याद्वाद से जाने गये अर्थ विशेष का प्रगट करने वाला है उसी प्रकार हेतु भी ऐसा ही होता है।
नयोपनयैकान्तानां, त्रिकालानां समुच्चय:।
अविभ्राड्भावसम्बन्धो, द्रव्यमेकमनेकधा।।१०७।।
त्रिकालवर्ती नय-उपनय के, एकांतों का जो समुदाय।
अपृथक् है तादात्म्य भावयुत, वही द्रव्य है सहज स्वभाव।।
द्रव्य कहा यह एकरूप भी, और अनेकरूप भी है।
अनंतधर्मा द्रव्य के इक-इक, धर्म कहे नय वो ही हैं।।१०७।।
अन्वयार्थ-(त्रिकालानां नयोपनयैकान्तानां समुच्चय:) त्रिकालवर्ती नय और उपनयों के एकांत विषयों का जो समुच्चय है (अविभ्राट् भावसंबंध: द्रव्यं एकं अनेकधा) वह कथंचित् तादात्म्य स्वभाव के संबंध को लिए हुए है उसी का नाम द्रव्य है वह द्रव्य एक है और अनेक भेदरूप है।
कारिकार्थ-त्रिकाल विषयक, नय और उपनयों के एकांत का जो समुच्चय है और अविभ्राड् भाव संबंध-अपृथक् स्वभाव संबंधरूप है वही द्रव्य है और वह एक भी है अनेक प्रकार का भी है।
भावार्थ-द्रव्य और पर्याय के भेद से नय के अनेक भेद हैं वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाले वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं एवं नयों की शाखा-उपशाखा को उपनय कहते हैं। अनंतधर्म विशिष्ट वस्तु के एक धर्म को ही ग्रहण करना इनका एकांत है त्रिकालवर्ती इन नय और उपनयों का विषयभूत जो पर्याय विशेषों का समुदाय है वह द्रव्य है, वह एकानेक स्वरूप है। यह समुदाय कथंचित् तादात्म्य संबंध रूप है।
मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्ततास्ति न:।
निरपेक्षा नया मिथ्या, सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत।।१०८।।
यदि मिथ्या एकांतों का, समुदाय हुआ वह मिथ्या ही।
तब तो सदा हमारे मत में, वह मिथ्या एकांत नहीं।।
नय निरपेक्ष कहे मिथ्या हैं, नय सापेक्ष कहे सम्यव्â।
सुनय अर्थ क्रियाकारी हैं, उसका समुदय है सम्यक्।।१०८।।
अन्वयार्थ-(मिथ्या समूहो मिथ्या चेत् न: मिथ्यैकांतता न अस्ति) यदि कहो कि नयों और उपनयों के एकांतों का जो समूह है वह मिथ्याओं का समूह है वह मिथ्या ही है यदि ऐसा कहो तो ठीक नहीं है, क्योंकि हमारे यहाँ मिथ्या एकांतता नहीं है (ते निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा अर्थकृत् वस्तु) हे भगवन्! आपके मत में जो नय परस्पर में निरपेक्ष हैं वे मिथ्या हैं एवं जो नय परस्पर में सापेक्ष हैं वे सम्यव्â हैं उनके विषय में अर्थक्रियाकारी हैं इसलिए उनका समूह ही वस्तु है।
कारिकार्थ-मिथ्याभूत एकांत का समुदाय यदि मिथ्यारूप ही है तब तो वह मिथ्या एकांत हम जैनियों के यहाँ नहीं है। हे भगवन्! आपके मत में निरपेक्ष नय मिथ्या हैं और सापेक्ष नय वस्तु हैं, अर्थक्रियाकारी हैं।
नियम्यतेऽर्थो वाक्येन विधिना वारणेन वा।
तथाऽन्यथा च सोऽवश्य-मविशेष्यत्वमन्यथा।।१०९।।
विधिवाक्य या निषेधवाक्यों से, पदार्थ का कथन सही।
विधिवाक्य से वस्तु अस्ति है, निषेध वच से नास्ति कही।।
यदि ऐसा नहिं मानों तब तो, वस्तु विशेषण शून्य रही।
पुन: विशेष्य नहीं होने से, वस्तु ‘अवस्तू’ असत् हुई।।१०९।।
अन्वयार्थ-(विधिना वारणेन वा वाक्येन अर्थ: नियम्यते) विधि वाक्य अथवा निषेध वाक्य के द्वारा पदार्थ का नियम किया जाता है (स: तथा अन्यथा च अवश्यं अन्यथा अविशेष्यं) जो अर्थ जिस वाक्य से निश्चित है वह अन्यथारूप होने से विशेष्य न होकर अविशेष्य ही है।
कारिकार्थ-विधि वाक्य अथवा निषेध वाक्य के द्वारा अर्थ का निश्चय किया जाता है। यह अर्थ विधि वाक्य से विधि और प्रतिषेध वाक्य से प्रतिषेध रूपसिद्ध है, अन्यथा-एकांत रूप से विचार करने पर तो अर्थ के सत्त्व-असत्त्व में भेद ही नहीं हो सकेगा।
भावार्थ-प्रत्येक वस्तु विधीवाक्य अथवा निषेध वाक्य के द्वारा प्रसिद्ध है विधिवाक्य से वस्तु अस्तिरूप है एवं निषेध वाक्य से नास्तिरूप है। यदि ऐसा न मानो तो वह वस्तु किसी भी विशेषण से कही नहीं जा सकेगी।
तदतद्वस्तुवागेषा, तदेवेत्यनुशासती।
न सत्या स्यान्मृषावाक्यै:, कथं तत्त्वार्थदेशना।।११०।।
वस्तू तत् अरु अतत् रूप है, परन्तु जो ‘तत्’ ही कहते।
ऐसे वच तो असत्य ही हैं, चूँकि वस्तु ‘अतत्’ भी है।।
पुन: मृषा वचनों से वैâसे, तत्त्वों का उपदेश घटे।
विधीवाक्य से अस्ति मात्र ही, कोई पदारथ नहीं दिखे।।११०।।
अन्वयार्थ-(तत् अतत् वस्तु तत् एव इति अनुशासती एषा वाक् सत्या न स्यात्) प्रत्येक वस्तु तत् अतत् रूप हैं किन्तु वस्तु ‘तत् रूप ही है’ इस प्रकार से कहने वाले वचन सत्य नहीं हैं (मृषावाक्यै: तत्त्वार्थदेशना कथं) अत: मृषा वचनों से तत्त्वार्थ का उपदेश वैâसे हो सकता है।
कारिकार्थ-ये वचन ‘‘तत्, अतत्’’ स्वभाव वाली वस्तु का प्रतिपादन करते हैं, यदि वचन वह ही है, इस प्रकार स्वरूप के समान पररूप से भी विधिरूप मात्र ही वस्तु को प्रतिपादित करें तब तो वे वचन असत्य हो जायेंगे पुन: असत्य वचनों से तत्त्वार्थ का उपदेश कथन वैâसे हो सकेगा ?
भावार्थ-विधिवादी वेदांती लोगों का कहना है कि वचन केवल वस्तु के अस्तित्व को ही कहते हैं, किन्तु यह बात गलत है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु विधि- निषेध आदि रूप से अनंत धर्मात्मक है और प्रत्येक वचन अपने अर्थ को कहते हुए अन्य अर्थ का निषेध अवश्य कर देते हैं।
वाक्स्वभावोऽन्यवागर्थ-प्रतिषेधनिरंकुश:।
आह च स्वार्थसामान्यं, तादृग् वाच्यं खपुष्पवत्।।१११।।
अन्य वचन के अर्थों के, प्रतिबोध हेतु निरअंकुश ही।
निज सामान्य अर्थ को कहना, ऐसा वचन स्वभाव सही।।
किन्तू केवल निषेध मुख से, वचन स्वार्थ प्रतिपादक हैं।
ऐसे वच से कथित वस्तु ही, गगनकमलवत् ‘असत्’ रहे।।१११।।
अन्वयार्थ-(वाक् स्वभाव: अन्यवागर्थ प्रतिषेधनिरंकुश: स्वार्थसामान्यं च आह) वचन का यह स्वभाव है कि अन्य वचन के अर्थ के प्रतिषेध करने में निरंकुश और अपने अर्थ सामान्य को कहता है (तादृक् वाच्यं खपुष्पवत्) इस वचन के स्वभाव से भिन्न जो वचन केवल निषेध मुख अर्थ का प्रतिपादन करते हैं वे आकाशपुष्पवत् असत् हैं।
कारिकार्थ-वचन का स्वभाव अन्य वचन के अर्थ का प्रतिषेध करने से निरंकुश है और वह पदार्थ सामान्य निरपेक्ष अपने अर्थ सामान्य को कहता है। किन्तु ‘केवल निषेध मुख से ही वचन अपने अर्थ को कहते हैं।’ ऐसा बौद्धों का कथन आकाश पुष्प के समान असत् है।
भावार्थ-बौद्धों ने वचनों को अन्यापोह अर्थ का कहने वाला माना है अर्थात् किसी ने गौ: शब्द कहा उस शब्द का यह अर्थ है कि ‘‘अगो: व्यावृत्ति: गौ:’’ गो से भिन्न अन्य अश्व नहीं है गधा नहीं है इत्यादि से अन्य अर्थों का निषेध करके ही शब्द अर्थ को कहते हैं। गौ शब्द से गाय अर्थ को नहीं कहते हैं।
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि केवल अन्य अर्थ के निषेध को कहने वाले वचन असत्य हैं क्योंकि प्रत्येक शब्द प्रथम अपने अर्थ को अवश्य कहते हैं। गौ शब्द के सुनते ही मनुष्य को गाय का बोध हो जाता है।
सामान्यवाग् विशेषे चेन्न शब्दार्थो मृषा हि सा।
अभिप्रेतविशेषाप्ते: स्यात्कार: सत्यलाञ्छन:।।११२।।
ये सामान्य वचन ही कहते, अन्यापोह विशेषार्थक।
ऐसा कथन असंगत चूंकी, ये वच नहिं शब्दार्थ कथक।।
अत: वचन ये मृषा परन्तू जो अभिप्रेत विशेषारथ।
प्राप्त कराने हेतू ऐसा, स्यात्कार है चिन्ह सुतथ्य।।११२।।
अन्वयार्थ-(सामान्यवाग् विशेषे चेत् शब्दार्था मृषा हि सा) यदि कहा जाये कि सामान्य वाक्य पर के अभावरूप विशेष में ही रहता सो ठीक नहीं है। क्योंकि यह वाक्य विशेष शब्द के अर्थ को नहीं कहता है अत: यह वाक्य मिथ्या ही हैं (अभिप्रेतविशेषाप्ते: स्यात्कार: सत्यलाञ्छन:) अभिप्राय में स्थित अभिप्रेत विशेष की प्राप्ति कराने में सच्चा साधनभूत सत्य चिन्ह वाला यह ‘स्यात्कार’ शब्द है।
कारिकार्थ-सामान्य वचन विशेष का कथन नहीं करते हैं फिर भी यदि आप मान लेंवे तब तो शब्दार्थ असत्य ही हो जायेंगे। अतएव अभिप्रेत विशेष की प्राप्ति के लिए सत्य लाञ्छन वाला स्यात्कार पद ही है।
भावार्थ-अभिप्राय में इष्ट अर्थ विशेष को बताने वाला यह ‘स्यात्’ शब्द चिन्हित स्याद्वाद ही है अन्य सामान्य वचन आदि नहीं है।
विधेयमीप्सितार्थाङ्गं प्रतिषेध्याऽविरोधि यत्।
तथैवाऽऽदेय-हेयत्व-मिति स्याद्वादसंस्थिति:।।११३।।
जो विधेय है वह अपने, प्रतिषेध्य नास्ति सह अविरोधी।
इच्छित अर्थों का साधन वह, स्याद्वाद उभयात्मक ही।।
वैसे ही आदेय-हेय है, वस्तु का सर्वथा नहीं।
इस प्रकार से स्याद्वाद की, सम्यक् स्थिति घटित हुई।।११३।।
अन्वयार्थ-(यत् विधेयं ईप्सितार्थाङ्गं प्रतिषेध्याऽविरोधि) जो विधि वाक्य के द्वारा कहा गया विधेय है वह इच्छित अर्थ का कारण है और अपने प्रतिषेध्य-नास्ति के साथ अविन्ााभावी होने से अविरोधी है (तथैव आदेयहेयत्वं इति स्याद्वादसंस्थिति:) और उसी प्रकार वस्तु का उपादेय एवं हेयपना सिद्ध है अन्यथा नहीं। इस प्रकार से स्याद्वाद की सम्यक् प्रकार से व्यवस्था हो जाती है।
कारिकार्थ-‘अस्ति’ इत्यादि शब्द से वाच्य विधेय वाक्य ही ईप्सित अर्थक्रिया के प्रति कारण है और वह प्रतिषेध्य-नास्तित्वादि धर्म से अविरोधी-अविनाभावी है एवं उसी प्रकार से ही आदेय और हेय हैं इस प्रकार से स्याद्वाद की सम्यक् व्यवस्था हो जाती है।
इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम्१।
सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ।।११४।।
हित के इच्छुक भव्यजनों को, सत्य-असत्य बताने को।
सम्यक् मिथ्या उपदेशों के, अर्थ विशेष समझाने को।।
इस प्रकार से रची गई यह, आप्त समीक्षा को करती।
कुशल ‘आप्तमीमांसा’ स्तुति यह, सम्यक् ‘‘ज्ञानमती’’ करती।।११४।।
अन्वयार्थ-(इति इयं आप्तमीमांसा हितं इच्छतां) इस प्रकार से यह आप्तमीमांसा हित के चाहने वालों को (सम्यक्-मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये विहिता) सम्यक् उपदेश और मिथ्या उपदेश के अर्थ विशेष का ज्ञान कराने के लिए की गई है।
कारिकार्थ-हित प्राप्ति की इच्छा करने वाले भव्य जीवों को सम्यव्â उपदेश और मिथ्या उपदेश के अर्थ विशेष का ज्ञान कराने के लिए यह आप्तमीमांसा नाम की स्तुति रचना मैंने (श्री समंतभद्र स्वामी ने) बनाई है।
भावार्थ-जो भव्य हैं वे ही अपनी आत्मा के हित की भावना करेंगे न कि अभव्य, अत: भव्य जीव ही सम्यक् उपदेश को प्राप्तकर-ग्रहणकर मिथ्या उपदेश का त्याग करेंगे। यह आप्तमीमांसा स्तोत्र हमारे और आपके सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति और विशुद्धि में निमित्त बनें, यही श्रीजिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है।
।।इति ग्रन्थ: समाप्त:।।