मंगलाचरण
शार्दूलविक्रीडित छंद
शांति: कुंथ्वरनाथशक्रमहिता: सर्वै: गुणैरन्विता:।
ते सर्वे तीर्थेशचक्रिमदनै: पदवीत्रिभि: संयुता:।।
तीर्थंकरत्रयजन्ममृत्युरहिता: सिद्धालये संस्थिता:।
ते सर्वे कुर्वन्तु शान्तिमनिशं तेभ्यो जिनेभ्यो नम:।।१।।
तीर्थंकर श्री शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ भगवान इन्द्रों से वन्दित समस्त गुणों से विभूषित थे, तीर्थंकर-चक्रवर्ती और कामदेव इन तीन पदवियों से समन्वित वे तीनों भगवान जन्म-जरा-मृत्यु से रहित होकर सिद्धालय-सिद्धशिला पर विराजमान हो चुके हैं, उन्हें मेरा नमस्कार है, वे मुझे शीघ्र ही शान्ति को प्रदान करें।
तीर्थंकरत्रय भगवन्तों को नमन करके परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी की पावन प्रेरणा एवं उनके ही मार्गदर्शनरूप बिन्दुओं के आधार पर ‘‘पंचकल्याणक निर्देशिका’’ नामक कृति का शुभारंभ किया जा रहा है। देशव्रती प्रतिष्ठाचार्यगण निष्पक्ष और निर्मत्सर भाव से सूक्ष्मता से चिन्तन करके प्राचीन शास्त्रीय-आर्ष परम्परानुसार प्रतिष्ठा विधि को सम्पन्न करें, इस निर्देशिका के प्रस्तुतीकरण में एकमात्र यही भावना है।
सर्वप्रथम एक सर्वांगीण प्रतिष्ठाचार्य में किन-किन गुणों की विशेष आवश्यकता होती है, इस विषय पर ध्यान देना है-
(१) देश-कुल और जाति से शुद्ध सदाचारी श्रावक अथवा ब्रह्मचारी श्रावक ही प्रतिष्ठाचार्य बनने योग्य होते हैं। कम से कम अणुव्रती तो अवश्य होना चाहिए।
(२) प्रतिष्ठा ग्रंथ के साथ-साथ मुहूर्त, ज्योतिष, वास्तु शास्त्रों का अध्ययन भी प्रतिष्ठाचार्य को होना चाहिए।
(३) चारों अनुयोगों के भी कतिपय ग्रंथों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए, ताकि प्रत्येक विषय को स्पष्टरूप से प्रतिपादन करने में शास्त्रप्रमाण दिये जा सकें।
(४) कुशल वक्तृत्व कला प्रतिष्ठाचार्य का प्रमुख गुण है।
(५) चतुर्विध संघ के प्रति विनयभाव रखते हुए समाज में सभी साधु-संतों के प्रति भक्ति प्रवाहित करें।
(६) वात्सल्य स्वभावी और मन्दकषायी हों, किसी के द्वारा प्रश्न करने पर क्रोध या मान का प्रदर्शन न करें।
(७) दिगम्बर जैन समाज के अन्दर वर्तमान में प्रचलित बीसपंथ और तेरहपंथ इन दोनों परम्पराओं में मध्यस्थ भाव रखें।
किसी पंथ का विरोध न करें और जहाँ जिस पंथ की परम्परा चल रही हो, वहाँ उसी परम्परानुसार प्रतिष्ठाविधि करावें। कहीं पर अपनी परम्परा जबर्दस्ती लागू करने का दुराग्रह न करें, इससे सामाजिक शान्ति और सामंजस्य बना रहेगा।
(८) सार्वजनिक सभाओं में प्रतिष्ठाचार्य को मद्य, माँस, मधुत्याग, सप्तव्यसन त्याग, अहिंसा-सदाचार का पालन आदि का उपदेश देकर सभी सम्प्रदाय की जनता को प्रभावित करना चाहिए।
(९) प्रतिष्ठाचार्य को कभी किसी के दबाव से या ख्याति, लाभ, पूजादि की लालच से आगमविरुद्ध विषयों का प्रतिपादन नहीं करना चाहिए और न ही आगमविरुद्ध कथन का समर्थन करना चाहिए।
मैं एक भी शब्द यदि आगम के विरुद्ध बोलूँगा, तो नरक-निगोद का बंध हो जायेगा, इस प्रकार के भय से सहित होकर जिनेन्द्रदेव की आज्ञा उल्लंघन से हमेशा डरना चाहिए।
ये कतिपय आवश्यक गुण प्राथमिकरूप से एक प्रतिभावान् योग्य प्रतिष्ठाचार्य में होना ही चाहिए, तभी पाषाण, धातु, सोना, चाँदी या रत्न आदि से बनी जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में अतिशय आता है।
यदि उपर्युक्त गुणों से युक्त प्रतिष्ठाचार्य नहीं हैं और यजमान श्रावकगण विशेषगुणों से समन्वित हैं, तो भी ठीक नहीं है किन्तु यदि प्रतिष्ठाचार्य अपने गुणों से युक्त हैं और यजमान आदि अपने-अपने गुणों से युक्त नहीं हैं तो भी गुणवान प्रतिष्ठाचार्य के निमित्त से वे सभी योग्य हो जाते हैं इसीलिए प्रतिष्ठाचार्य को उज्जवल गुणों से युक्त, सद्गृहस्थ अथवा ब्रह्मचारी देशव्रती, शुभ आजीविका करने वाला, हित-मित-प्रिय वचन बोलने वाला, परोपकारी, सांगोपांग (हीनांग या अधिकांग न हो), शास्त्रज्ञानी अवश्य होना चाहिए।
ये कतिपय विशेष गुण यहाँ प्रतिष्ठाचार्य के लिए कहे गये हैं। इन गुणों से युक्त प्रतिष्ठाचार्य आगम विधि अनुसार प्रतिष्ठा में भाग लेने वाले यजमानों का चयन बोली आदि के अनुसार करते हैं। उसमें भी सज्जाति की शुद्धि का विशेष ध्यान रखना चाहिए, तभी प्रतिमाओं में अतिशय-चमत्कार अवतीर्ण होते हैं।
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा प्रारंभ होने से लेकर समापन होने तक प्रमुख प्रतिष्ठाचार्य, सहप्रतिष्ठाचार्य आदि सभी पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें, शुद्ध मर्यादित भोजन एक बार करें और एक बार फलाहार लें एवं यजमानों से भी सम्पूर्ण नियमों का पालन करावें तथा औषधि-जल आदि की उनके लिए छूट प्रदान कर दें किन्तु रात्रि में सभी को चारों प्रकार के आहार का त्याग करावें अर्थात् रात्रि में जल पीने का भी त्याग करा देवें।
प्रतिष्ठा ग्रंथ के संदर्भ में-
प्राचीन ग्रंथों के आधार से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न कराने वाले प्रतिष्ठाचार्यों को प्राय: ‘‘प्रतिष्ठातिलक’’ नामक ग्रंथ का प्रयोग करते देखा है तथा वर्तमान में निम्न प्रतिष्ठा ग्रंथ हमारे देखने में आये हैं-
(१) प्रतिष्ठातिलक-नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव द्वारा रचित
(२) प्रतिष्ठासारोद्धार-पं. आशाधर द्वारा रचित
(३) प्रतिष्ठाकल्प-आचार्य अकलंकदेव द्वारा रचित
(४) वसुविन्दु प्रतिष्ठा पाठ
(५) प्रतिष्ठापाठ-ब्र. शीतलप्रसाद द्वारा रचित
इनके अतिरिक्त भी कुछ लिखित या संग्रहीत ग्रंंथ हो सकते हैं किन्तु इन सबमें सबसे अधिक प्रचलित ग्रंथ है-प्रतिष्ठातिलक। इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें प्रारंभ से लेकर सम्पूर्ण विधि क्रमानुसार परिपूर्ण है अत: पंचकल्याणक में प्रारंभिक झण्डारोहण-अंकुरारोपण आदि से लेकर निर्वाणकल्याणक के बाद रथयात्रा महोत्सव, महाभिषेक आदि तक सम्पूर्ण विधि को १८ परिच्छेदों में वर्णित किया है। इस ग्रंथ को हाथ में लेने के बाद किसी भी विधि के लिए किसी अन्य ग्रंथ की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
इस प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ से परिचित कराने हेतु सर्वप्रथम उसके विषय में कुछ आवश्यक बिन्दु यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
प्रतिष्ठातिलक में क्या विशेषता है ?-
सम्यग्दर्शन के प्रभावना अंग का वर्णन करते हुए स्वामी श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा है-
अज्ञानतिमिरव्याप्ति-मपाकृत्ययथायथम्।
जिनशासनमाहात्म्य-प्रकाश: स्यात्प्रभावना।।
अर्थात् संसार में अज्ञानरूपी अंधकारसमूह को दूर करके यथासंभव जैन शासन की महिमा को प्रकाशित करना-जैनधर्म का प्रचार-प्रसार करना प्रभावना अंग का लक्षण है।
इस प्रभावना अंग का पालन करने में श्रावक और साधु दोनों का महत्वपूर्ण योगदान देखा जाता है। चतुर्थकाल में भी मुनिजन तीर्थयात्रा करके एवं रथोत्सव, पंचकल्याणक महापूजा आदि में अपना संघसानिध्य प्रदान करके जिनधर्म की प्रभावना करते थे और पंचमकाल में भी मुनियों के लिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव ने प्रवचनसार में बताया है-
दंसण णाणुवदेसो, सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं।
चरिया हि सरागाणां, जिणिन्दपूजोवदेसो य।।
अर्थात् पंचमकाल के छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती भावलिंगी सरागी मुनि जो वीतरागनिर्विकल्प ध्यान में जब तक स्थित नहीं हो सकते हैं, तब तक वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि का उपदेश देते हुए शिष्यों का संग्रह और उनका पोषण करें तथा जिनेन्द्र पूजा का उपदेश देकर भव्यात्माओं को मोक्षमार्ग में अग्रसर करें।
इसका तात्पर्य यह निकलता है कि निर्ग्रन्थ मुनि एवं आर्यिका आदि गुरुजन समाज के पथप्रदर्शक होते हैं अत: उन्हें शास्त्रानुकूल चर्यापालन के साथ-साथ सदैव जैनशासन के संरक्षण-संवर्धन हेतु पुण्यबंध कराने वाले सच्चे धर्म का उपदेश करना चाहिए। इसका साक्षात् प्रमाण श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने स्वयं गिरनार यात्रा करके, विपुलसाहित्यसृजन आदि करके प्रस्तुत किया। आचार्यश्री अकलंकदेव, समन्तभद्र ने अपने ज्ञान के द्वारा अनेकांत का ध्वज लहराया तथा आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने श्रवणबेलगोला के भगवान बाहुबली की प्रतिमा के पंचकल्याणक महोत्सव में सानिध्य प्रदान कर एक इतिहास बना दिया।इन्हीं पूर्वाचार्यों के मार्ग का अनुसरण करते हुए बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी मुनि महाराज ने भी कुंथलगिरि, कुम्भोज, दहिगाँव आदि स्थानों पर जिनप्रतिमा विराजमान करने की प्रेरणा देकर पुनीत कार्य किया है इसीलिए उनके प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर महाराज कहा करते थे कि ‘‘आचार्य शांतिसागर महाराज का दर्शन जिसने किया, उसने अपने जीवन को सफल कर लिया’’। पुन: आचार्यश्री वीरसागर महाराज के शिष्य द्वितीय पट्टाधीश आचार्य श्री शिवसागर महाराज की प्रेरणा से श्री महावीर जी अतिशयक्षेत्र पर ‘‘शान्तिवीरनगर’’ तीर्थ की स्थापना हुई, जहाँ विशाल खड्गासन भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा एवं अनेक जिनमंदिरों के निर्माण हुए हैं। ये सभी धर्मायतन भव्यात्माओं की पुण्यवृद्धि एवं मोक्षप्राप्ति के माध्यम बने हुए हैं।
मंदिर-मूर्तियों के निर्माण के पश्चात् उनकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, वेदीशुद्धि एवं शिखर पर कलशारोहण करना महत्त्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान माने जाते हैं। इन अनुष्ठानों को विधिपूर्वक सम्पन्न करने हेतु प्राचीनकाल से हमारे आचार्यों, मुनियों एवं विद्वानों ने पूर्व परम्परा से चले आए मंत्र आदि का आश्रय लेकर विधि-विधान के ग्रंथ लिखकर हमें प्रदान किये हैं।बंंधुओं! पूजा-विधान-पंचकल्याणक आदि महान पुण्यकार्यों में मंत्र संस्कारों का ही सर्वाधिक महत्त्व होता है, क्योंकि उनसे ही पाषाण-धातु या रत्नप्रतिमाओं में भगवान जिनेन्द्र की स्थापना होती है और तभी वे पूज्य मानी जाती हैं। लघु चैत्यालय या विशाल मंदिर के निर्माण से लेकर उसमें भगवान विराजमान करके पंचकल्याणक प्रतिष्ठा-कलशारोहण करने तक की सम्पूर्ण लघु एवं वृहत्विधि का वर्णन करने वाला यह ‘‘प्रतिष्ठातिलक’’ ग्रंथ है, जो श्रीनेमिचन्द्र सैद्धान्तिक देव की अद्भुत साहित्यिककृति है।वर्तमान में यद्यपि अनेक विद्वानों के द्वारा संग्रहीत किये गये कई प्रतिष्ठाग्रंथ प्रकाश में आये हैं किन्तु पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की मान्यता है कि यह प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ अति प्राचीन होने के साथ-साथ अपने आप में परिपूर्ण है। इसमें प्रारंभिक सकलीकरण विधि से लेकर यज्ञदीक्षा, यागमण्डल विधान, ध्वजारोहण, अंकुरारोपण, पंचकल्याणक आदि समस्त विधियों का १८ अध्यायों में विस्तृत वर्णन है तथा इसमें प्रतिष्ठा की विस्तार सहित वृहत्, मध्यम एवं संक्षिप्त विधि भी बताई गई है।
इस ग्रंथ में जिनबिंबों की प्रतिष्ठा के साथ-साथ आचार्य-उपाध्याय-साधु की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठाविधि, श्रुतदेवता (सरस्वतीदेवी), श्रुतस्कंध, जिनशासन यक्ष-यक्षी आदि की प्रतिष्ठाविधि भी अलग से वर्णित है। इससे सिद्ध होता है कि इनकी मान्यताएँ भी प्राचीन काल से थीं। आज कुछ लोग आचार्यादि की प्रतिमा का विरोध करते हैं किन्तु जहाँ इस ग्रंथ में इनकी प्रतिष्ठा विधि बताई है, वहीं देवगढ़, खजुराहो, मांगीतुंगी पर्वत आदि तीर्थों पर उत्कीर्ण इनकी प्राचीन मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। अत: यदि आचार्य धरसेन, कुंदकुंद आदि प्राचीन आचार्य एवं चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर, आचार्यश्री वीरसागर आदि मुनि महाराजों की प्रतिमाएँ बनाकर उनकी विधिवत् प्रतिष्ठा करके पूज्य बनाया जाता है तो कोई दोष नहीं प्रतीत होता है। इसी प्रकार शासन देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा भी प्राचीन पद्धति के अनुसार शास्त्रोक्त है और लगभग सभी प्राचीन मंदिरों में क्षेत्रपाल, धरणेन्द्र-पद्मावती, चक्रेश्वरी, अम्बिका, ज्वालामालिनी आदि देव-देवियों की प्रतिमाएँ देखी जाती हैं। वर्तमान में दिगम्बर जैन समाज में बीसपंथ और तेरहपंथ के नाम से दो परम्पराएँ प्रचलित हैं। उनमें से प्राचीन परम्परानुसार पंचामृत अभिषेक, स्त्रियों द्वारा अभिषेक, पूजन में फल-फूल-नैवेद्य-दीप-धूप आदि चढ़ाने वालों को एवं शासन देव-देवी का अस्तित्व मानने वालों को बीसपंथी आम्नाय की मान्यता वाला कहा जाता है तथा लगभग ३०० वर्षों से उत्तरभारत के कतिपय विद्वान् पण्डितों द्वारा बनाए गए १३ नियमों का पालन करने वालों को तेरहपंथी कह दिया गया है किन्तु प्राचीन आगम ग्रंथों में तेरह पंथ-बीसपंथ का कोई नामोनिशान भी नहीं है एवं वर्तमान में भी तेरहपंथी मंदिरों में से प्राय: अधिक मंदिरों में अंबिका देवी, पद्मावती-क्षेत्रपाल आदि की प्रतिमाएँ आज भी विराजमान हैं। जो भी हो, यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि यह भेद-भिन्नता मात्र श्रावकों की पूजा पद्धति में तो है किन्तु पूरे दिगम्बर जैन समाज में अन्य कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है इसीलिए दोनों परम्परा के लोग मिल-जुलकर दक्षिण-उत्तर का सेतुबंध बनाये रखकर बड़े-बड़े उत्सव-महोत्सवों को सम्पन्न करते रहते हैं। वर्तमान के उदारमना मस्तिष्क वाले युग में सभी को पक्षदुराग्रह की संकीर्ण मान्यताएँ छोड़कर जहाँ जैसी परम्परा पुरातन से चली आ रही है उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए। विशेषरूप से दिगम्बर जैन तीर्थों पर बीसपंथ और तेरहपंथ दोनों परम्पराओं का समन्वय रखना चाहिए, क्योंकि तीर्थ किसी की अधिकृत सम्पत्ति न होकर वे प्रत्येक दिगम्बर जैन की श्रद्धा के केन्द्र होते हैं।
पूजा विधि-मंत्र अनुष्ठान आदि के संबंध में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रतिष्ठाचार्य एवं यजमान की पिण्डशुद्धि, मंत्रशुद्धि, अनुष्ठान पद्धति, अनुशासनबद्धता, अणुव्रत पालन की क्षमता आदि जितनी प्रबल होती है, उतना ही अधिक चमत्कार प्रतिमाओं में आता है, पूजा-विधान का फल भी उसी प्रकार से भौतिक सुख की प्राप्ति आदि रूप प्राप्त होता है तथा क्रम से आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति करते हुए मोक्ष की परम्परा भी साकार होती है। ‘‘प्रतिष्ठातिलक’’ ग्रंथ में इन सभी शास्त्रीय विधियों का समावेश है इसीलिए इसमें वर्णित पूरी विधि के अनुसार भगवन्तों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करने से प्रतिष्ठेय प्रतिमाओं में विशेष चमत्कार प्रगट होता है।
इसमें कुल अठारह परिच्छेद हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है-
१. प्रथम परिच्छेद में नांदीमंगल विधानरूप प्रारंभिक विधि का वर्णन है। उसके अंतर्गत प्रतिष्ठा के प्रकार, प्रतिष्ठाचार्य का लक्षण, पूजामुखविधि, सकलीकरण, अभिषेकविधि आदि के वर्णन के साथ-साथ धर्माचार्य की अर्चना, श्रीबलि आदि को बताया है। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि ‘‘प्रतिष्ठाचार्य’’ को ‘‘इन्द्र’’ शब्द से तथा यजमान को ‘‘प्रतीन्द्र’’ संज्ञा से इंगित किया गया है किन्तु वर्तमान में प्रतिष्ठाचार्य, यज्ञनायक, सौधर्मादि १२ इन्द्रों की प्रमुखता प्रतिष्ठाओं में रहती है।
२. द्वितीय परिच्छेद में अंकुरारोपण विधि का वर्णन है जो प्रत्येक विधि-विधान एवं पंचकल्याणकों के प्रारंभ में की जाती है। इस ग्रंथानुसार यद्यपि अंकुरारोपण करने का निर्देश प्रारंभ में ही कर दिया है किन्तु वर्तमान में प्राय: सभी जगह झण्डारोहण के बाद अंकुरारोपण करने की परम्परा है।
३. तृतीय परिच्छेद में शांतिहोम विधान है, इसके अन्तर्गत होम का मण्डप एवं हवन कुण्डों के लक्षण आदि का विस्तृत वर्णन है।
४. चतुर्थ परिच्छेद में मण्डप विधान, वेदी निर्माण, यज्ञशाला आदि का वर्णन करते हुए नवग्रह पूजा विधि बताई है कि कौन से ग्रह की शांति हेतु किस प्रकार की समिधा (लकड़ी) से आहुति देनी चाहिए।
५. पंचम परिच्छेद में ध्वजारोहण विधि को विस्तार से प्रयोगात्मकरूप में बताया है। इसमें सर्वाण्ह यक्ष का स्वरूप बताकर उन्हें ध्वजदेवता के रूप में माना गया है और इसमें दश दिक्पाल पूजन, अष्ट दिक्कन्यका पूजन एवं दश प्रकार की ध्वजाओं की पूजा का वर्णन है। इस विधि का पूर्ण परिपालन करने से धर्म की ध्वजा तो आकाश की ऊँचाईयों का स्पर्श करती ही है, साथ ही ध्वजारोहण करने वाले यजमान की कीर्तिध्वजा भी संसार में लहराने लगती है। पुन: इसी में भेरीताड़न विधि का वर्णन है। इसका रहस्य यह है कि पंचकल्याणक जैसा महान विश्वशांति महायज्ञ करने से पहले पूरे नगर में विधिपूर्वक सभी सहधर्मियों को भेरी आदि बजाते हुए सूचित करना कि आप सभी इस यज्ञ में भाग लेकर जीवन सार्थक कीजिए। समाज को सूचित करने के साथ-साथ इस विधि द्वारा देवी-देवताओं को मंत्रपूर्वक बुलाकर उन्हें यज्ञपर्यन्त सर्वतोमुखी रक्षा का कार्यभार सौंपा जाता है जिससे कार्य निर्विघ्न सम्पन्न्ा होता है।
६. छठे परिच्छेद में घटयात्रा विधि से जल लाकर मंत्रित करना एवं उपवास ग्रहण विधि आदि हैं जो कि अनुष्ठानपर्यंत एक बार भोजन आदि नियम होते हैं।
७. सातवें परिच्छेद में ‘‘यागमण्डल विधान’’ विस्तृतरूप में है। प्रत्येक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में गर्भकल्याणक से पहले एक या दो दिन में इस ‘‘यागमण्डल विधान’’ को यज्ञनायक आदि के द्वारा सम्पन्न कराया जाता है। इस यागमण्डल विधान को पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने चूँकि हिन्दी में बना दिया है और वह जंबूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित भी हो चुका है, अत: प्राय: प्रतिष्ठाचार्य लोग उसी हिन्दी पुस्तक से यागमण्डल कराते हैं।वर्तमान में कुछ तेरहपंथी पंडित इस यागमण्डल में से सभी देवी-देवताओं की अर्चना हटाकर इसे बिल्कुल सारहीन बना देते हैं इसीलिए प्रतिष्ठा के कार्यों में निर्विघ्नता एवं अतिशय का संदेह बना रहता है। प्रतिष्ठाचार्यों को इस विषय में निष्पक्षरूप से सम्पूर्ण विधि सम्पन्न करानी चाहिए क्योंकि प्रतिष्ठा में चमत्कार तो प्रतिष्ठाविधि से ही आता है अत: इन प्रकरणों में अपनी व्यक्तिगत एवं प्रान्तीय मान्यता को छोड़कर प्राचीन आगम परम्परा का निर्वाह करना ही विद्वज्जनोें के लिए श्रेष्ठ प्रतीत होता है। पूज्य माताजी कई बार बताती हैं कि मेरे दीक्षागुरु आचार्यश्री वीरसागर महाराज कहा करते थे कि ‘‘मेरा सो खरा’’ नहीं बल्कि ‘‘खरा सो मेरा’’ की नीति हमें अपनानी चाहिए अर्थात् अपनी निजी मान्यता मिथ्या भी हो सकती है किन्तु जो शास्त्रीय सम्यक् मान्यता है वह कभी मिथ्या नहीं हो सकती है। वे आचार्यश्री इस प्रतिष्ठातिलक को अत्यधिक प्रामाणिक मानते थे।
८. आगे के आठवें परिच्छेद से पंचकल्याणक की सम्पूर्ण विधि प्रारंभ हो जाती है सो उसमें से सर्वप्रथम गर्भकल्याणक की पूरी विधि इस अध्याय में कही गई है। इसमें सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी, कुबेर आदि पदों को ग्रहण करने वाले श्रावक-श्राविकाओं को प्रतिष्ठाचार्य जी सकलीकरण, यज्ञदीक्षा विधि से शुद्ध करके स्थापना निक्षेप से वास्तविक इन्द्र-इन्द्राणी बना देते हैं, पुन: उन्हें प्रतिष्ठाकाल तक सूतक-पातक आदि नहीं लगता है।इस गर्भकल्याणक महोत्सव को अंतरिम विधि और बाह्य नाटक मंचन विधि इन दो रूपों में सम्पन्न किया जाता है। वर्तमान में प्राय: परम्परा है कि तीर्थंकर माता के सोलह स्वप्न आदि के अनन्तर देर रात्रि में प्रतिष्ठाचार्य विद्वान् संक्षेप में अंतरिम विधि को सम्पन्न कर देते हैं किन्तु पूज्य माताजी इसी विधि को सर्वाधिक महत्त्व देती हैं इसीलिए उनका कहना है कि एक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में कम से कम दो-तीन विद्वान् प्रतिष्ठाचार्य अवश्य होना चाहिए, उनमें से ही एक प्रतिष्ठाचार्य सभी यजमानों को दिन में बुलाकर उनसे गर्भकल्याणक की पूरी शास्त्रीय विधि सम्पन्न करावें।
इस विधि में एक बड़े मटके को रखकर उसकी सजावट आदि करके उसमें जिनमाता की स्थापनापूर्वक संपूर्ण विधि उनमें और उनके समक्ष करने का विधान है। इसे सम्पन्न करने में लगभग ३-४ घंटे का समय तो लगता है किन्तु विधि करने वाले यज्ञनायक और सौधर्म इन्द्रादिक का मन गद्गद हो जाता है, वे ऐसा अनुभव करने लगते हैं कि हमने मानों साक्षात् ही भगवान जिनेन्द्र के गर्भकल्याणक का उत्सव मना लिया है। प्रतिष्ठा में जो माता-पिता, कुबेर, अष्टदिक्कुमारी आदि की भूमिका निभाने वाले पात्र हों, उन्हें भी इस विधि में सम्मिलित करके इन्द्र के द्वारा सम्मानित कराया जाना चाहिए।कोई प्रतिष्ठाचार्य माता-पिता बनाने का निषेध करते हुए मात्र अंतरिम विधि के अनुसार मटके में स्थापित माता में ही पूरी विधि करते हैं किन्तु वसुविन्दु आदि कतिपय प्रतिष्ठापाठों में वर्णन आया है कि पतिव्रता कुलांगना में भी माता की स्थापना करना चाहिए। जैसा कि वसुविन्दु प्रतिष्ठा पाठ में स्पष्ट उल्लेख है कि-
अंबा सर्वा: सवित्र्यस्त्रिजगदधिपतिप्राप्तपूजाधिकारा।
अत्रागत्याध्वरोर्व्यां यजनकृतमिह स्वादरेण वृणन्तु।।
अध्वर्यूपत्निका वा धृततनुकुलयोर्दोषहीनां प्रकल्प्य।
वादित्रोद्धोषपूर्वं विहितयमदमां भूषयेत्पुण्यमूर्तिम्।।१७८।।
कदाचिदेषा न भवेद्गुणाढ्या, मंजूषिकां कल्पतु मातृकार्ये।
एवं चतुर्विंशतिजिनप्रसूनां, नामानि पुण्यानि कृती बहेत।।१७९।।
अर्थ-इन्द्रों से जिन्होंने पूजा का अधिकार-पात्रता प्राप्त की है, ऐसी तीर्थंकरों की जननी सभी अंबा-माताओं!
यहाँ आकर इस प्रतिष्ठायज्ञ की भूमि में आदरपूर्वक पूजा को स्वीकार करो।
जो शरीर से, कुल से दोषहीन हैं-सर्वांगपरिपूर्ण एवं कुल से शुद्ध हैं तथा जो यम और दम-इंद्रिय निग्रह से परिपूर्ण हैं, पुण्य की मूर्तिस्वरूप हैं ऐसी कुलांगना में वाद्य बजाते हुए घोषणापूर्वक उनमें तीर्थंकर माता की कल्पना करो।।१७८।।
कदाचित् ऐसी गुणों से समन्वित महिला नहीं मिलें तो माता के कार्य-विधि को करने के लिए मंजूषा-पेटी में माता की कल्पना करो। इस प्रकार २४ तीर्थंकरों की माताओं के नामों का उच्चारण करके विद्वान् पूजा करें।।१७९।।
इससे विपरीत कुछ दिन पूर्व एक प्रतिष्ठा में देखा गया कि पांडाल के मंच पर प्रसूतिगृह के बाजू में एक स्थान बनाकर उसमें माता-पिता बनने वाले दम्पत्ति को २-४ दिन शयन कराया गया। इस विषय में प्रश्न करने पर उत्तर मिला कि दाम्पत्य जीवन बिताये बिना संतान की उत्पत्ति वैâसे हो सकती है? किन्तु ये सब बातें शास्त्रीय दृष्टि से निराधार हैं। इसमें पारम्परिक समाधान यही है कि मटके में माता का संकल्प करके सम्पूर्ण विधि सम्पन्न करें और मंच के बाह्य दृश्यों के प्रदर्शन हेतु जाति-कुल की शुद्धि वाले अणुव्रती दम्पत्ति को माता-पिता बनावें। इससे उनके भावों में तीर्थंकर पुत्र उत्पन्न करने जैसी ही पवित्र भावनाएँ उत्पन्न होती हैं एवं इस निमित्त से वे अगले भव में भगवान के साक्षात् माता-पिता बनने का सौभाग्य भी प्राप्त कर सकते है किन्तु प्रतिष्ठा मंच पर उनके शयन का स्थान बनाना शोभास्पद नहीं लगता है क्योंकि संयमीजीवन के अभिलाषी को राग के नये बंधन में नहीं बांधना चाहिए। इन विषयों में सभी प्रतिष्ठाचार्यों को सम्मेलन करके एकमत होना चाहिए अन्यथा समाज में जितने प्रतिष्ठाचार्य, उतने मत और उतने प्रकार की विधि को देखकर जनता गुमराह हो जाती है।इसी प्रकार प्रतिष्ठा विधि सम्पन्न करने वाले इन्द्र-इन्द्राणियों के यज्ञदीक्षा में कंकण बंधन की विधि में भी आजकल काफी भिन्नता देखी जा रही है कि कुछ प्रतिष्ठाचार्य विद्वान् स्त्री-पुरुष दोनों के दाहिने हाथ में कंकण बांधते हैं और कुछ स्त्रियों के बाएँ हाथ में कंकण बांधते हैं। इस विषय में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार महिलाओं के बाएँ हाथ में ही कंकण बांधने की प्राचीन परम्परा है अत: उसे ही अपनाना चाहिए।इस आठवें परिच्छेद के अन्दर गर्भावतार कल्याणक की जलाधिवासन आदि विधि से विधिनायक प्रतिमा एवं अन्य प्रतिष्ठेय प्रतिमाओं की शुद्धि करने का प्रयोगात्मक वर्णन है।
९. नवमें परिच्छेद में जन्मकल्याणक की विधि करके जिनेन्द्र शिशु का पांडुकशिला पर जन्माभिषेक एवं शृंगार करके पालना झुलाने आदि की तो बाह्य विधि है ही, साथ ही ११७ कलशों से जो आकारशुद्धि करने की विधि है वह विशेष दृष्टव्य है। क्योंकि अनेक प्रकार के पत्ते, भस्म आदि के चूर्ण जल में डालकर अलग-अलग कलशों से जो प्रतिमाओं की आकारशुद्धि की जाती है उससे प्रतिमाओं में पवित्रता एवं पूज्यता आती है।
१०. दशवें परिच्छेद में दीक्षाकल्याणक के अंतर्गत लौकांतिक देवों द्वारा स्तुति, भगवान का वनगमन, केशलोंच, दीक्षा ग्रहण करके योगलीन होते ही चार ज्ञानधारी बन जाने आदि का वर्णन है।
इसमें यह विशेष जानना चाहिए कि भगवान चूँकि स्वयं ‘‘नम: सिद्धं’’ कहकर दीक्षा ग्रहण करते हैं अत: उन्हें कोई आचार्य, मुनि आदि दीक्षा तो दे ही नहीं सकते। केवल प्रतिष्ठाविधि में वर्णित दीक्षाकल्याणक मंत्रों द्वारा उनके दाएँ हाथ की ओर पिच्छी और बाएँ हाथ के पास कमंडलु स्थापित करना चाहिए।
इस दीक्षा विधि के बाद तीर्थंकर भगवान के नाम के साथ ‘सागर’ (जैसे-आदिनाथ को आदिसागर या शांतिनाथ को शांतिसागर) शब्द न लगाकर केवल तीर्थंकर महामुनि आदिनाथ तथा शांतिनाथ आदि बोलकर ही जयकारा लगाना चाहिए। इसी प्रकार बाल्यावस्था में भी भगवान को ऋषभ कुमार कहकर संबोधित नहीं करना चाहिए क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर जन्म लेने वाले महापुरुष प्रत्येक अवस्था में भगवान ही कहलाते हैं।
११. ग्यारहवें परिच्छेद में केवलज्ञान कल्याणक के अंतर्गत प्रतिमाओं पर केशर से अंकन्यास, तिलकदान, प्राणप्रतिष्ठा का वर्णन है। प्रतिष्ठातिलक में इस कल्याणक को ‘‘प्रतिष्ठादिवस’’ संज्ञा दी है क्योंकि इसी दिन सब प्रतिमाएँ प्राणप्रतिष्ठापूर्वक प्रतिष्ठित हो जाती हैं। इसमें वर्णित तिलकदान विधि का कहीं-कहीं बड़ा विकृतरूप देखा गया है कि यजमान श्रावकगण प्रतिष्ठाचार्य को तिलक करके उन्हें भेंट देने लगते हैं जबकि घिसी हुई मंत्रित केशर आदि को प्रतिमाओें की नाभि में स्वर्णशलाका से मंत्रपूर्वक रखकर जो तिलकदान विधि होती है उसी से प्रतिमा में प्राणों की स्थापना होती है। इस प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में कहीं भी सूरिमंत्र का कोई निर्देश नहीं है, फिर भी वर्तमान में पारम्परिक प्रतिष्ठाचार्यों से प्राप्त सूरिमंत्र और प्राण प्रतिष्ठा मंत्र परिशिष्ट में दे दिये गये हैं।
१२. बारहवें परिच्छेद में निर्वाणकल्याणक की पूरी विधि है पुन: प्रतिमाओं को यथास्थान विराजमान करके मंदिर के शिखर पर कलशारोहण, ध्वजस्थापन किया जाता है।
१३. आगे क्रमप्राप्त तेरहवें परिच्छेद में महोत्सव सम्पन्न होने के बाद सभी प्रतिमाओं के १००८ कलशों से महाभिषेक करने की विधि है।
१४. चौदहवें परिच्छेद में ११ प्रकार की कुंभन्यास विधि है।
१५-१६. पन्द्रहवें एवं सोलहवें परिच्छेद में मध्यम प्रतिष्ठाविधि एवं संक्षेप प्रतिष्ठाविधि दी गई है।
१७. सत्रहवें परिच्छेद में सिद्धप्रतिमा प्रतिष्ठाविधि के साथ-साथ आचार्य-उपाध्याय-साधु प्रतिमाओं की पृथक् प्रतिष्ठाविधि, श्रुतदेवता (सरस्वती प्रतिमा) की प्रतिष्ठा विधि, श्रुतस्कंध यंत्र, सिद्धचक्र यंत्र आदि की प्रतिष्ठा विधि तथा यक्ष-यक्षी प्रतिमाओं की भी प्रतिष्ठाविधि इसमें वर्णित है। इससे इन सबकी प्रामाणिकता को अवश्यमेव स्वीकार करना चाहिए।
१८. अंत में अठारहवें परिच्छेद में उत्सवों का वर्णन करते हुए कवि के वंश का परिचय तथा ग्रंथकर्ता का परिचय दिया है। इस प्रकार अठारह अध्यायों में निबद्ध यह प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ सभी पूर्वाचार्यों द्वारा मान्य है।
यह प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ श्रीनेमिचंद्र सैद्धान्तिक देव की संग्रहीत रचना है। जैसा कि उन्होंने स्वयं इसमें कहा है-
इदं प्रतिष्ठा शास्त्रौघप्रधानमिति युज्यते।
तत्सारसंग्रहात्मत्वाद्गन्धानां गंधयोगवत्।।
अर्थात् जैसे सभी सुगंधित पदार्थों को एकत्रित करके उनमें से निकाला गया अर्क अतिसुगंधित होता है, वैसे ही यह प्रतिष्ठापाठ भी सर्व प्रतिष्ठापाठों में प्रधानता को प्राप्त होता है। इतना ही नहीं, इसमें तो यह भी कहा है कि ‘‘प्रतिष्ठानां प्रधानत्वात् प्रतिष्ठातिलकं मतम्’’ अर्थात् यह सर्व प्रतिष्ठापाठों में प्रधान है, क्योंकि इसमें सभी प्रतिष्ठाओं का विस्तार से विवेचन किया गया है इसीलिए इसका ‘प्रतिष्ठातिलक’ नाम सार्थक है।इन नेमिचंद्र सैद्धान्तिक देव के बारे में कुछ विद्वानों का मत है कि आप मुनि थे। उनके अनुसार नेमिचंद्र नाम के तीन आचार्य मुनिराज हुए हैं उनमें से प्रथम नेमिचंद्राचार्य ईसवी सन् ५५६-५६५ के मध्य हुए, जो श्रीमद्प्रभाचन्द्राचार्य के शिष्य व श्रीमद् भानुचंद्राचार्य के गुरु थे।द्वितीय नेमिचंद्र आचार्य ईसवी सन् ९८१ के लगभग माने गये हैं, ये श्री अभयचंद्राचार्य के शिष्य एवं चामुण्डराय मंत्री के गुरु थे। ये ‘‘सिद्धान्तचक्रवर्ती’’ की पदवी से समन्वित थे। इन्होंने गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार आदि करणानुयोग ग्रंथों की रचना करके सिद्धांतचक्रवर्ती का पद सार्थक किया था। इनके सानिध्य में सम्पन्न हुई श्रवणबेलगोला की भगवान बाहुबली प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का प्रमुख उल्लेख प्राप्त होता है।
इसके पश्चात् तृतीय आचार्य प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ के रचयिता नेमिचंद्र सैद्धांतिक देव के नाम से माने गये हैं। इनका समय ईसवी सन् १०५०-६८ का माना गया है। आप महान तार्किक तथा दिग्गज तो थे ही, इसके साथ ही इसी प्रतिष्ठातिलक के अंत में ग्रंथकर्ता की प्रशस्ति में लिखा है-
पलायध्वं पलायध्वं, रे रे तार्किकदिग्गजा:।
नेमिचन्द्र: समायात:, स्याद्वादवनकेसरी।।
अर्थात् आप स्याद्वादरूपी वन के केसरी (सिंह) थे तथा आपकी कीर्ति जगत् में चहुँओर व्याप्त थी। आपके नाममात्र से ही एकांतवादी पलायमान कर जाते थे-भाग जाते थे।पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् १९५४-५५ तथा १९६५ में दक्षिण भारत के प्रवास में सभी स्थानों पर इसी ग्रंथ के आधार से प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न होती देखी हैं। दक्षिण के प्रतिष्ठाचार्य इस ग्रंथ के संस्कृत श्लोकों का उच्चारण बहुत ही शुद्ध और सौष्ठवपूर्ण भाषा में करते हैं इसलिए प्रतिष्ठा की गरिमा में चार चाँद लगते हैं, श्रोतागण उन कर्णप्रिय छन्दों को सुनते हुए मंत्रमुग्ध होकर असीम प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।इस ‘‘प्रतिष्ठातिलक’’ ग्रंथ को प्रतिष्ठाचार्य विद्वान् निर्मत्सर भाव से पढ़कर प्रयोग में लावें, यही हमारे कथन का अभिप्राय है।पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का शुभारंभ झण्डारोहण के साथ होता है अत: यहाँ प्रसंगोपात्त ध्वजा के संबंध में शास्त्रीय प्रमाण और वर्तमान प्रचलित परम्परा के संबंध में विषय का प्रस्तुतीकरण किया जाता है-