श्रीमते वर्धमानाय, नमो नमितविद्विषे।
यज्ज्ञानान्तर्गगतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदायते।।१।।
जैन मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका आदि चतुर्विध संघ वर्षा ऋतु में एक जगह रहने का नियम कर लेते हैं, अन्यत्र विहार नहीं करते हैं इसलिए इसे वर्षायोग कहा है तथा सामान्यतया श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक इन चार महीनेपर्यंत एक जगह रहना होता है अत: इसे चातुर्मास भी कहते हैं।इस वर्षायोग को ग्रहण करने की तथा इसे समाप्त करने की तिथियाँ कौन सी हैं?‘‘आषाढ़ सुदी चतुर्दशी की पूर्वरात्रि में सिद्धभक्ति आदि विधिपूर्वक इस वर्षायोग को साधुजन ग्रहण करें और कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में विधिपूर्वक उस वर्षायोग को समाप्त कर देवें।”
आगे इसी शास्त्र में और भी विशेष बताते हैं कि-
‘‘श्रमण संघ हेमंत आदि ऋतुओं में अर्थात् मगसिर, पौष आदि महीनों में किसी गाँव, नगर आदि एक स्थान पर एक-एक महीने तक रह सकता है पुन: वह आषाढ़ मास में वर्षायोग करने के स्थान पर पहुँच जावे और मगसिर मास पूर्ण हो जाने पर वहाँ नहीं ठहरे अर्थात् मगसिर के बाद अन्यत्र विहार कर जावे तथा प्रयोजनवश भी श्रावण कृष्णा चतुर्थी का उल्लंघन न करे अर्थात् किसी विशेष कारणवश यदि साधु संघ आषाढ़ सुदी चतुर्दशी को वर्षायोग स्थान पर नहीं पहुँच सके तो श्रावणवदी चतुर्थी तक भी वहाँ पहुँचकर वर्षायोग स्थापना करे, ऐसा विधान है किन्तु इस चतुर्थी का उल्लंघन करना उचित नहीं है। आगे कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में वर्षायोग निष्ठापन-समाप्त कर देने पर भी कार्तिक शुक्ला पंचमी के पहले विहार न करें।यदि कदाचित् दुर्निवार उपसर्ग आदि के निमित्त से इस उपर्युक्त योग का उल्लंघन हो जावे अर्थात् यदि विहार करना ही पड़ जावे तो साधु शास्त्रविहित प्रायश्चित्त ग्रहण करें, ऐसा विधान है।”
अभिप्राय यह हुआ कि साधु और साध्वीगण चातुर्मास के सिवाय अन्य दिनों में एक-एक महीने तक किसी भी गाँव, नगर या शहर में रह सकते हैं अनंतर चातुर्मास काल में आषाढ़ सुदी चतुर्दशी की पूर्व रात्रि में चातुर्मास स्थापना कर लेते हैं पुन: कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में चातुर्मास समाप्त करके वीर निर्वाण संबंधी क्रिया आदि करते हैं पुन: पंचमी के बाद विहार कर सकते हैं, ऐसी आगम की आज्ञा है।