आचार्य के छत्तीस गुणों के अंतर्गत दस स्थितिकल्प गुण माने हैं। उनके नाम क्रमश:- आचेलक्य, औद्देशिकपिंडत्याग, शय्याधर पिंडत्याग, राजकीय पिंडत्याग, कृतिकर्म, व्रतारोपण योग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासैकवासिता और योग हैं। उनमें से मासैकवासिता नाम के नवमें स्थितिकल्प का लक्षण निम्नलिखित है-
तीस अहोरात्र-एक महीने तक किसी एक ग्राम आदि में निवास करना ऐसा जो व्रत है, वह मासैकवासिता है।”
मूलाराधना ग्रंथ में इसी का अर्थ ऐसा किया है कि २‘‘वर्षायोग के पहले और वर्षायोग के अनंतर उस स्थान में एक महीना तक रहना।”
मूलाचार में इन्हीं दस स्थितिकल्पों का नाम श्रमणकल्प है। वहाँ पर भी इस नवमें ‘मास’ नामक श्रमणकल्प का ऐसा ही अर्थ है। यथा-१‘‘वर्षायोग ग्रहण करने के पहले एक महीने तक वहाँ पर रहकर वर्षाकाल में योग ग्रहण करना चाहिए तथा योग को समाप्त करके एक महीने तक वहाँ रहना चाहिए। ऐसा क्यों? तो लोकस्थिति को समझने के लिए और अहिंसा आदि व्रतों के परिपालन हेतु पहले एक मास तक रहने का विधान है तथा श्रावकजनों के संक्लेश आदि को दूर करने के लिए वर्षायोग समाप्ति के अनंतर भी एक महीने तक वहाँ रहने का विधान है।”
अभिप्राय यह निकला कि साधुगण वर्षायोग के स्थान में एक महीने पहले इसलिए रहें कि वहाँ के वातावरण का निरीक्षण हो जावे कि यह स्थान चातुर्मास के लिए उपयुक्त है या नहीं? हमारे संयम में किसी प्रकार से बाधा तो नहीं आएगी तथा कभी-कभी वर्षा भी पहले से ही शुरू हो जाती है अत: वहाँ के धार्मिक अनुकूल वातावरण को समझने के लिए और अहिंसा महाव्रत आदि के पालन हेतु वे एक महीने पहले से वहाँ स्थान पर रह सकते हैं तथा चातुर्मास समाप्ति के अनंतर भी यदि श्रावकों की विशेष भक्ति अथवा धर्म प्रभावना आदि निमित्त है तो वहाँ पुनरपि एक महीने तक रह सकते हैं अन्यथा श्रावकों के आग्रह करने पर भी यदि साधु विहार कर जाते हैं तो उन्हें संक्लेश हो जाता है इत्यादि कारणों से वे वहाँ रह सकते हैंं।मूलाराधना ग्रंथ में इन दश स्थितिकल्प को श्रमणकल्प नाम दिया है तथा नवमें ‘मास’ श्रमणकल्प का ऐसा अर्थ किया है कि-
२छहों ऋतुओं में से एक-एक ऋतु में एक-एक मासपर्यंत एक जगह रहना और अन्यथा एक-एक मास विहार करना यह नवमां स्थितिकल्प है” तथा दशवें ‘पर्या’ नामक श्रमणकल्प का लक्षण इस प्रकार किया है कि-
‘‘दशवां पर्या नाम का श्रमणकल्प है। वर्षाकाल में चार महीने एक जगह रहना, भ्रमण का त्याग करना, यह इसका अर्थ है। चूंकि वर्षाकाल में यह पृथ्वी स्थावर और त्रस जीवों से सहित हो जाती है, ऐसे समय में यदि मुनि विहार करेंगे तो महान असंयम होगा अथवा जलवर्षा और शीत हवा के निमित्त से उनकी आत्मा का विघात होगा अर्थात् रोग आदि हो जाने से अपघात आदि हो सकता है। इस मौसम में पृथ्वी पर जल की बहुलता होने से कहीं पर यदि जल के गड्ढे आदि ढके हुये हैं-ऊपर से नहीं दिख रहे हैं, उन पर घास या रेत आदि पड़ गयी है, उन गड्ढों पर पैर पड़ जाने से उनमें गिरने आदि की संभावना हो सकती है अथवा पैर आदि फिसल जाने से कहीं भी बावड़ी- गड्ढे आदि में पड़ सकते हैं अथवा ठूंठ, काँटे आदि से या जलवृष्टि से भी बाधा हो सकती है इत्यादि दोषों से बचने के लिए एक सौ बीस दिन तक एक स्थान पर रहना, यह उत्सर्ग नियम है। कारणवश इससे कम या अधिक दिवस भी निवास किया जाता है।
संयतजन आषाढ़ सुदी दशमी से लेकर कार्तिक सुदी पूर्णिमा के अनन्तर भी और एक मास तक अर्थात् मगसिर सुदी पूर्णिमा तक भी वहाँ पर रह सकते हैं। वृष्टि की बहुलता, श्रुत का अध्ययन, शक्ति का अभाव, अन्य साधुओं की वैयावृत्ति आदि प्रयोजनों के निमित्त से अधिक दिन भी रहा जा सकता है।मारी रोग के हो जाने पर, दुर्भिक्ष के आ जाने पर, ग्राम के अथवा देश के लोगों का अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र जाने का प्रसंग आ जाने पर, संघ के विनाश होने के निमित्तों के उपस्थित हो जाने पर इत्यादि कारणों से मुनि वर्षायोग में भी अन्यत्र जा सकते हैं। यदि वे वहीं पर रहते हैं तो रत्नत्रय की विराधना हो जाएगी इसलिए आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के व्यतीत हो जाने पर भी प्रतिपदा आदि तिथि में वे अन्यत्र चले जाते हैं अर्थात् ‘‘प्रतिपदा’’१ से चतुर्थी तक चार दिन में कहीं अन्यत्र योग्य स्थान में पहुँच सकते हैं इसलिए एक सौ बीस दिनों में बीस दिन कम किए जाते हैं। इस तरह काल की हीनता का विधान है।” यह सब दशवें स्थितिकल्प का वर्णन है।
अभिप्राय यह हुआ कि श्रमण संघ आषाढ़ सुदी चतुर्दशी से लेकर कार्तिक सुदी पूर्णिमा तक चार महीने के एक सौ बीस दिन तक एकत्र निवास करता है यह उत्सर्ग अर्थात् राजमार्ग है और इसी कारण से इसे चातुर्मास भी कहते हैं किन्तु कारणवश अधिक दिन अर्थात् आषाढ़ सुदी दशमी से लेकर मगसिर सुदी पूर्णिमा तक भी एक जगह रहते हैं। अथवा वर्षायोग ग्रहण के एक मास पहले और एक मास अनन्तर भी रहने का विधान होने से आषाढ़ वदी एकम् से मगसिर वदी अमावस्या तक ऐसे साढ़े पाँच महीने अर्थात् एक सौ पंैसठ दिन भी रहते हैं जैसा कि पहले मूलाचार में कथित नवम स्थितिकल्प के लक्ष्ाण से स्पष्ट है अर्थात् वर्षायोग की समापन विधि कार्तिक वदी चतुर्दशी को हो जाती है, इस हिसाब से साढ़े पाँच महीने लिया है। अथवा चातुर्मास के सामान्यतया चार महीने लेने से तथा उसके आदि और अंत के एक-एक महीने को ले लेने से छ: महीने भी एकत्र रह सकते हैं, ऐसा परंपरागत अर्थ लिया जाता है इसी प्रकार से चातुर्मास में कदाचित् अधिक मास के आ जाने से भी एक मास और अधिक हो जाता है। यह सब अधिक दिनों की गणना में सम्मिलित है।कम दिनों के वर्णन में एक सौ बीस दिन में बीस दिन घटाने से सौ दिन का भी वर्षायोग होता है। श्रावण कृष्णा चतुर्थी से कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी तक सौ दिन ही होते हैं। यथा श्रावण कृष्णा पंचमी से पूर्णिमा तक २५, भाद्रपद और आश्विन के ३०-३० तथा कार्तिक वदी एकम् से अमावस्या तक १५ ऐसे २५±३०±३०±१५·१०० दिनोें का भी वर्षायोग आगम से मान्य है। इस तरह से चातुर्मास का हेतु और उसमें अधिक से अधिक तथा कम से कम दिनों का वर्णन किया गया है।