(अनगार धर्मामृत के आधार से)
अभिषेकवन्दनाक्रियां मङ्गलगोचरक्रियां च लक्षयति१-
सा नन्दीश्वरपदकृतचैत्या त्वभिषेकवन्दनास्ति तथा।
मङ्गलगोचरमध्यान्हवन्दना योगयोजनोज्झनयो:।।६४।।
सा तु सैव नन्दीश्वरक्रिया अभिषेकवन्दनास्ति जिनमहास्नपनदिवसे वन्दना भवति। कीदृशी ? नन्दीश्वरपदकृतचैत्या नन्दीश्वरस्थानपठितचैत्या। तथा सैवाभिषेकवन्दना भवति। कासौ ? मङ्गलगोचरमध्यान्हवन्दना। कयो: ? योगयोजनोज्झनयोर्वर्षायोग-ग्रहणविसर्जनयो:। मङ्गलगोचरे मङ्गलार्थगोचारे मध्यान्हवन्दना मङ्गलगोचरमध्यान्हवन्दना।
उक्तं च-
अहिसेय२ वंदणासिद्धचेदिपंचगुरुसंतिभत्तीहिं।
कीरइ मंगलगोयर मज्झंण्हियवंदणा होइ।।
मङ्गलगोचरबृहत्प्रत्याख्यानविधिमाह-
लात्वा बृहत्सिद्धयोगिस्तुत्या मङ्गलगोचरे।
प्रत्याख्यानं बृहत्सूरिशान्तिभक्ती प्रयुञ्जताम्।।६५।।
प्रयुञ्जतां प्रयोजयन्तु आचार्यादय:। के ? बृहत्सूरिशान्तिभक्ती बृहतीमाचार्यभक्तिं बृहतीं च शान्तिभक्तिम्। किं कृत्वा ? लात्वा गृहीत्वा। किं तत् ? प्रत्याख्यानं भक्तप्रत्याख्यानम्। क्व ? मङ्गलगोचरे। कया ? बृहत्सिद्धयोगिस्तुत्या बृहत्या सिद्धभक्त्या बृहत्या च योगिभक्त्या। प्रयुञ्जतामित्यत्र बहुत्वनिर्देश: सर्वैर्मिलित्वा कार्योयं विधिरिति बोधयति।।
वर्षायोगग्रहणमोक्षविध्युपदेशार्थं श्लोकद्वयमाह-
ततश्चतुर्दशीपूर्वरात्रे सिद्धमुनिस्तुती।
चतुर्दिक्षु परीत्याल्पाश्चैत्यभक्तीर्गुरुस्तुतिम्।।६६।।
शान्तिभक्तिं च कुर्वाणैर्वर्षायोगस्तु गृह्यताम्।
ऊर्जकृष्णचतुर्दश्यां पश्चाद्रात्रौ च मुच्यताम्।।६७।।युग्मम्।।
तत: प्रत्याख्यानप्रयोगविध्यनन्तरं गृह्यतां प्रतिष्ठाप्यताम्। कोसौ ? वर्षायोग:। वैâ:? आचार्यादिश्रमणै:। किं कुर्वाणै: ? कुर्वाणै: साधुत्वेन कुर्वद्भि:। के ? सिद्धमुनिस्तुती सिद्धभक्तिं योगिभक्तिं च। क्व ? चतुर्दशीपूर्वरात्रे आषाढ़शुक्लचतुर्दश्या रात्रे: प्रथमप्रहरोद्देशे न केवलं, चैत्यभक्तीश्च कुर्वाणै:। किंविशिष्टा: ? अल्पा लघ्वी:। अर्थाच्चतस्र:। कया? परीत्या प्रदक्षिणया। कासु ? चतुर्दिक्षु चतसृषु पूर्वादिककुप्सु। तद्यथा। ‘‘यावन्ति जिनचैत्यानि’’ इत्यादिश्लोकं पठित्वा वृषभाजितस्वयंभूस्तवद्वयमुच्चार्य चैत्यभक्तिं साञ्चलिकां पठेत्। इति पूर्वदिक्चैत्यालयवन्दना। एवं दक्षिणादिदिव्âत्रयेपि नवरमुत्तरोत्तरौ द्वौ द्वौ स्वयंभूस्तवौ प्रयोक्तव्यौ। चतुर्दिक्षु भावेनैव प्रदक्षिणा कार्यास्थानस्थैरेव च योगतण्डुला: प्रक्षेप्तव्या इति वृद्धव्यवहार:। न केवलं, गुरुस्तुतिं च पञ्चगुरुभक्तिं, न केवलं, शान्तिभक्तिं च कुर्वाणै:। तुर्विशेषे। तथा मुच्यतां च निष्ठाप्यतां वर्षायोग: श्रमणैस्तेनैव विधानेन। क्व ? पश्चाद्रात्रौ पश्चिमयामोद्देशे। कस्याम् ? १ऊर्जकृष्णचतुर्दश्यां कार्तिकस्य कृष्णचतुर्दशीतिथौ।
तच्छेषविधिं श्लोकद्वयेनाह-
मासं वासोन्यदैकत्र योगक्षेत्रं शुचौ व्रजेत्।
मार्गेतीते त्यजेच्चार्थवशादपि न लङ्घयेत्।।६८।।
नभश्चतुर्थी तद्याने कृष्णां शुक्लोर्जपञ्चमीम्।
यावन्न गच्छेत्तच्छेदे कथंचिच्छेदमाचरेत्।।६९।। (युग्मम्)
वासो निवास: श्रमणै: कर्तव्य इति शेष:। कियन्तं कालम्? मासम्। क्व ? अन्यदा हेमन्तादिऋतुषु। क्व ? एकत्रैकस्मिन्स्थाने नगरादौ ? तथा ब्रजेद् गच्छेत् श्रमणसंघ:। कम् ? योगक्षेत्रं वर्षयोगस्थानम्। क्व ? शुचौ आषाढ़े। त्यजेच्च श्रमणगण:। किं तत् ? योगक्षेत्रम् । क्व ? मार्गे मार्गशीर्षे मासि। किंविशिष्टे ? अतीतेऽतिक्रान्ते। तथा न लङ्घयेन्नातिक्रामेत्। काम् ? नभश्चतुर्थी श्रावणस्य चतुर्थतिथिम् ? किंविशिष्टाम् ? कृष्णामसिताम्। क्व ? तद्याने योगक्षेत्रगमने। कस्मात् ? अर्थवशादपि प्रयोजनवशेनापि। तथा साधुसंघो न गच्छेत् स्थानान्तरे न विहरेदर्थवशादपि। कथम् ? शुक्लोर्जपञ्चमीं यावत् सितां कार्तिकपञ्चमीतिथिमवधीकृत्य। तथा साधुसंघ: छेदं प्रायश्चित्तमाचरेदनुतिष्ठेत्। क्व सति। तच्छेदे यथोक्तयोगप्रयोगातिक्रमे। कथंचिद्दुर्निवारोपसर्गादिना।
ऊपर जो नन्दीश्वर जिनचैत्यवन्दना की क्रिया बताई गई है वही क्रिया जिन भगवान के अभिषेक के समय करनी चाहिए। अन्तर इतना है कि यहाँ पर नन्दीश्वर भक्ति न करके चैत्यभक्ति ही की जाती है। इसी प्रकार वर्षायोग के ग्रहण करने पर और उसके समापन पर यह अभिषेक वंदना की विधि ही मंगलगोचरमध्यान्हवन्दना कही जाती है।अर्थात् सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति के द्वारा अभिषेकवंदना की जाती है और इन्हीं के द्वारा मंगलगोचर मध्यान्हवन्दना भी हुआ करती है।
मंगलगोचर बृहत्प्रत्याख्यान की विधि बताते हैं-मंगलगोचर क्रिया करने में आचार्य आदि को बृहत् सिद्धभक्ति और बृहत् योगिभक्ति करके भक्त प्रत्याख्यान को ग्रहण कर बृहत् आचार्यभक्ति और बृहत् शांतिभक्ति करनी चाहिए। यहाँ पर ‘‘प्रयुञ्जताम्’’ यह बहुवचन क्रिया का जो निर्देश किया है, उससे इस बात का बोध कराया है कि यह क्रिया आचार्य आदि सब संघ को मिलकर करनी चाहिए।
प्रकरण के अनुसार दो श्लोकों में वर्षायोग के ग्रहण और त्याग करने की विधि का उपदेश करते हैं-ऊपर भक्त प्रत्याख्यान को ग्रहण करने की जो विधि बताई है तदनुसार उसके ग्रहण करने के अनंतर आचार्य- प्रभृति साधुओं को वर्षायोग का प्रतिष्ठापन करना चाहिए और चातुर्मास के अंत में उसका निष्ठापन करना चाहिए। इस प्रतिष्ठापन और निष्ठापन की विधि इस प्रकार है-चार लघु चैत्यभक्तियों को बोलते हुए और पूर्वादिक चारों ही दिशाओं की प्रदक्षिणा देते हुए आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की रात्रि को पहले ही प्रहर में सिद्धभक्ति और योगिभक्ति का भी अच्छी तरह पाठ करते हुए और पंचगुरुभक्ति तथा शांतिभक्ति को भी बोलकर आचार्य और इतर सम्पूर्ण साधुओं को वर्षायोग का प्रतिष्ठापन करना चाहिए।
भावार्थ-पूर्व दिशा की तरफ मुख करके वर्षायोग का प्रतिष्ठापन करने के लिए ‘‘यावन्ति जिनचैत्यानि’’ इत्यादि श्लोक का पाठ करना चाहिए पुन: आदिनाथ भगवान और दूसरे अजितनाथ भगवान इन दोनों का ही स्वयंभू स्तोत्र बोलकर अंचलिका सहित चैत्यभक्ति करनी चाहिए। यह पूर्व दिशा की तरफ की चैत्य-चैत्यालय की वंदना है। इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की तरफ की वंदना भी क्रम से करनी चाहिए। अंतर इतना है कि जिस प्रकार पूर्व दिशा की वंदना में प्रथम, द्वितीय तीर्थंकर का स्वयंभूस्तोत्र बोला जाता है, उसी प्रकार दक्षिण दिशा की तरफ तीसरे, चौथे संभवनाथ और अभिनंदननाथ का पश्चिम की तरफ की वंदना करते समय पाँचवें, छठे सुमतिनाथ और पद्मप्रभु भगवान का और उत्तर दिशा की वंदना करते समय सातवें, आठवें सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभु का स्वयंभूस्तोत्र बोलना चाहिए और बाकी क्रिया पूर्व दिशा के समान ही समझनी चाहिए।यहाँ पर चारों दिशाओं की प्रदक्षिणा करने के लिए जो लिखा है, उस विषय में वृद्धसम्प्रदाय ऐसा है कि पूर्वदिशा की तरफ मुख करके और उधर की वंदना करके वहीं बैठे-बैठे केवल भावरूप से ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए।यह वर्षायोग के प्रतिष्ठापन की विधि है, यही विधि निष्ठापन में भी करनी चाहिए अर्थात् कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि को अंतिम प्रहर में पूर्वोक्त विधान के अनुसार ही आचार्य और साधुओं को वर्षायोग का निष्ठापन कर देना चाहिए।
वर्षायोग के सिवाय दूसरे समय-हेमन्त आदि ऋतु में भी आचार्य आदि श्रमण संघ को किसी भी एक स्थान या नगर आदि में एक महीने तक के लिए निवास करना चाहिए तथा आषाढ़ में मुनिसंघ को वर्षायोगस्थापन के लिए जाना चाहिए अर्थात् जहाँ चातुर्मास करना है वहाँ आषाढ़ में पहुँच जाना चाहिए और मगसिर महीना पूर्ण होने पर उस क्षेत्र को छोड़ देना चाहिए परन्तु इतना और भी विशेष है कि उस योगस्थान पर जाने के लिए श्रावण कृष्णा चतुर्थी का अतिक्रमण कभी नहीं करना चाहिए।
भावार्थ-यदि कोई धर्मकार्य ऐसा विशेष प्रसंग उपस्थित हो जाए कि जिसमें रुक जाने से योगक्षेत्र में आषाढ़ के भीतर पहुँचना न बन सके, तो श्रावण कृष्णा चतुर्थी तक पहुँच जाना चाहिए परन्तु इस तिथि का उल्लंघन किसी प्रयोजन के वशीभूत होकर भी करना उचित नहीं है। इसी प्रकार साधुओं को कार्तिक शुक्ला पंचमी तक योगक्षेत्र के सिवाय अन्यत्र प्रयोजन रहते हुए भी विहार न करना चाहिए अर्थात् यद्यपि वर्षायोग का निष्ठापन कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को हो जाता है फिर भी साधुओं को कार्तिक शुक्ला पंचमी तक उसी स्थान पर रहना चाहिए। यदि कोई कार्य विशेष हो, तो भी तब तक उस स्थान से नहीं जाना चाहिए।