नमोऽस्तु मंगलगोचरभक्तप्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पूर्ववत् दण्डक, जाप्य, थोस्सामि करके सिद्धभक्ति पढ़ें।)
प्राकृत सिद्धभक्ति का पद्यानुवाद
(अथवा प्राकृत या संस्कृत की सिद्धभक्ति भी पढ़ सकते हैं)
श्री सिद्धचक्र सब आठ कर्म, विरहित औ आठ गुणों युत हैं।
अनुपम हैं सब कार्य पूर्ण कर, अष्टम पृथ्वी पर स्थित हैं।।
ऐसे कृतकृत्य सिद्धगण का, हम नितप्रति वंदन करते हैं।
मन वचन काय की शुद्धी से, शिरसा अभिनन्दन करते हैं।।१।।
तीर्थंकर होकर सिद्ध हुए, बिन तीर्थंकर जो सिद्ध हुए।
जल से थल से जो सिद्ध हुए, जो भी आकाश से सिद्ध हुए।।
जो हुए अंतकृत केवलि या, बिन हुए सिद्धि को प्राप्त हुए।
उत्तम जघन्य मध्यम तनु की, अवगाहन धर जो सिद्ध हुए।।२।।
जो ऊर्ध्वलोक औ अधोलोक, औ तिर्यक् लोक से सिद्ध हुए।
उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के भी, छह कालों से जो सिद्ध हुए।।
उपसर्ग सहन कर सिद्ध हुए, उपसर्ग बिना भी सिद्ध हुए।
उन सबको वंदूँ ढाई द्वीप, दो समुद्र से जो सिद्ध हुए।।३।।
मति-श्रुत से केवलज्ञान प्राप्त, या तीन ज्ञान या चार सहित।
केवलज्ञानी हो सिद्ध हुए, पाँचों संयम या चार सहित।।
संयम समकित औ ज्ञान आदि से, च्युत हो पुनि ग्रह सिद्ध हुए।
जो संयम समकित ज्ञान आदि से, बिना पतित हो सिद्ध हुए।।४।।
जो साधु संहरण सिद्ध बिना, संहरण प्राप्त हो सिद्ध हुए।
जो समुद्घात कर सिद्ध हुए, बिन समुद्घात भी सिद्ध हुए।।
खड्गासन और पर्यंकासन से, कर्म नाश कर सिद्ध हुए।
उन परम ज्ञानयुत सिद्धों को, मैं वंदूँ त्रिकरण शुद्धि किए।।५।।
जो भाव पुरुषवेदी मुनिवर, वर क्षपक श्रेणि चढ़ सिद्ध हुए।
जो भाव नपुंसक वेदी भी, थे पुरुष ध्यान धर सिद्ध हुए।।
जो भाववेद स्त्री होकर भी, द्रव्य पुरुष अतएव उन्हें।
हो शुक्लध्यान सिद्धि जिससे, सब कर्म नाश कर सिद्ध बने।।६।।
प्रत्येकबुद्ध और स्वयंबुद्ध, औ बोधित बुद्ध सुसिद्ध बनें।
उन सबको पृथक्-पृथक् प्रणमूँ, औ एक साथ भी नमूँ उन्हें।।७।।
पण नव दो अट्ठाईस चार, तेरानवे दो औ पाँच प्रकृति।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, सब सिद्ध हुए प्रणमूँ नित प्रति।।८।।
जो अतिशय अव्याबाध सौख्य, औ अनंत अनुपम परम कहा।
इंद्रिय विषयों से रहित पूर्व, अप्राप्त-ध्रौव्य को प्राप्त किया।।९।।
लोकाग्रशिखर पर स्थित वे, अंतिम तनु से किंचित् कम हैं।
गल गया मोम सांचे अंदर, आकार सदृश आकृति धर हैं।।१०।।
वे जन्म-मरण औ जरा रहित, सब सिद्ध भक्ति से नुति उनको।
बुधजन प्रार्थित औ परम शुद्ध, वर ज्ञानलाभ देवो मुझको।।११।।
बत्तिस दोषों से रहित शुद्ध, जो कायोत्सर्ग विधी करके ।
अतिभक्तीयुत वंदन करते, वे तुरतहिं परम सौख्य लभते।।१२।।
अंचलिका (चौबोल छंद)-
हे भगवन् ! श्री सिद्धभक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसका।
आलोचन करना चाहूँ, जो सम्यग्रत्नत्रय युक्ता।।
अठविध कर्मरहित प्रभु ऊर्ध्व-लोक मस्तक पर संस्थित जो।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयम सिद्ध चरितसिध जो।।
भूत भविष्यत् वर्तमान, कालत्रय सिद्ध सभी सिद्धा।
नित्यकाल मैं अर्चूूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ भक्ति युक्ता।।
दुःखों का क्षय, कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधि मरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।
नमोऽस्तु मंगलगोचरभक्तप्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं योगिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पूर्ववत् पृ. १२ से सामायिक दंडक, ९ जाप्य, पृ. १२ से थोस्सामि पढ़कर संस्कृत या हिन्दी की योगभक्ति पढ़ें।)
(संस्कृत का पद्यानुवाद)
(अथवा संस्कृत की योगिभक्ति पृ. ३४ से पढ़ें)
जन्म-जरा बहु मरण रोग अरु, शोक सहस्रों से तापित।
दुःसह नरक पतन से डरते, सम्यग्बोध हुआ जाग्रत।।
जलबुदबुदवत् जीवन चंचल, विद्युतवत् वैभव सारे।
ऐसा समझ प्रशमहेतू मुनि-जन वन का आश्रय धारें।।१।।
पंच महाव्रत पंच समिति, त्रय गुप्ति सहित हैं मोह रहित।
शम सुख को मन में धारण कर, चर्या करते शास्त्र विहित।।
ध्यान और अध्ययनशील नित, इन दोनों के वश रहते।
कर्म विशुद्धी करने हेतू, घोर तपश्चर्या करते।।२।।
ग्रीष्म ऋतू में सूर्य किरण से, तपी शिलाओं पर बैठें।
मल से लिप्त देहयुत निस्पृह, कर्म बंध को शिथिल करें।।
काम-दर्प-रति-दोष-कषायों, से मत्सर से रहित मुनीश।
पर्वत के शिखरों पर रवि के, सन्मुख मुख कर खड़े यतीश।।३।।
सम्यग्ज्ञान सुधा को पीते, पाप ताप को शांत करें।
क्षमा नीर से पुण्यकाय का, वे मुनि सिंचन नित्य करें।।
धरें सदा संतोष छत्र को, तीव्र ताप संताप सहें।
ऐसे मुनिवर ग्रीष्म काल में, कर्मेन्धन को शीघ्र दहें।।४।।
वर्षाऋतु में मोरकण्ठ सम, काले इन्द्रधनुष वाले।
खूब गरजते शीतल वर्षा, वङ्कापात बिजली वाले।।
ऐसे मेघों को लखकर वे, मुुनिगण सहसा रात्रि में।
पुनरपि वृक्षतलों में बैठें, निर्भय ध्यान धरें वन में।।५।।
मूसल जलधारा बाणों से, ताड़ित होते मुनिपुंगव।
फिर भी चारित से नहिं डिगते, सदा अटल नरसिंह सदृश।।
भव दुःख से भयभीत परीषह, शत्रू का संहार करें।
शूरों में भी शूर महामुनि, वीरों में भी वीर बनें।।६।।
शीत में बरफ कणों से पीड़ित, महाधैर्य कंबल ओढ़ें।
चतुष्पथों में खड़े शीत की, रात बितावें ध्यान धरें।।७।।
आतापन तरुमूल चतुष्पथ, इस विध तीन योगधारी।
सकल तपश्चर्याशाली नित, पुण्य याेग वृद्धिंकारी।।
परमानन्द सुखामृत इच्छुक, वे भगवान महामुनिगण।
हमको श्रेष्ठ समाधि शुक्ल, शुचि ध्यान प्रदान करें उत्तम।।८।।
ग्रीष्म ऋतू में गिरि शिखरों पर, वर्षा रात्रि में तरु तल।
शीतकाल में बाहर सोते, उन मुनि को वंदूँ प्रतिपल।।९।।
पर्वत कंदर दुर्गों में जो, नग्न दिगम्बर हैं रहते।
पाणिपात्रपुट से आहारी, वे मुनि परमगती लभते।।१०।।
हे भगवन्! इस योगभक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से।
उसकी आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।
ढाई द्वीप अरु दो समुद्र की, पन्द्रह कर्मभूमियों में।
आतापन तरुमूल योग, अभ्रावकाश से ध्यान धरें।।१।।
मौन करें वीरासन कुक्कुट, आसन एकपार्श्व सोते।
बेला तेला पक्ष मास, उपवास आदि बहु तप तपते।।
ऐसे सर्व साधुगण की मैं, सदा काल अर्चना करूँ।
पूजूँ वंदूँ नमस्कार भी, करूँ सतत वंदना करूँ।।२।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपद् होवे।।३।।
पुनः सभी शिष्य-मुनि, आर्यिकायें आदि आचार्यश्री से उपवास मांगें या अस्वस्थ आदि हों, उपवास नहीं कर सकते हों तो गुरु की आज्ञा से अगले दिन आहार लेने तक प्रत्याख्यान मांंगें। तब आचार्यदेव स्वयं उपवास आदि ग्रहण कर सबको उपवास आदि प्रदान करें। अनंतर सभी शिष्यवर्ग मिलकर आचार्य वंदना करें-
नमोऽस्तु मंगलगोचरभक्तप्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां आचार्यवंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं आचार्यभक्ति-कायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पृ. १२ से सामायिक दंडक पढ़कर, ९ जाप्य करके पृ. १२ से थोस्सामि स्तव पढ़कर आचार्यभक्ति पढ़ें।)
(संस्कृत का हिन्दी पद्यानुवाद)
सिद्ध गुणों की स्तुति में तत्पर, क्रोध अग्नि का नाश किया।
गुप्ती से परिपूर्ण मुक्तियुत, सत्य वचन से भरित हिया।।१।।
मुनि महिमा से जिनशासन के, दीपक भासुरमूर्ति स्वभाव।
सिद्धि चाहते कर्मरजों के, कारण घातन में पटुभाव।।२।।
गुणमणि विरचित तनु षट् द्रव्योंं, की श्रद्धा के नित आधार।
दर्शनशुद्ध प्रमादीचर्या, रहित संघ सन्तुष्टीकार।।३।।
उग्र तपस्वी मोहरहित शुभ, शुद्ध हृदय शोभन व्यवहार।
प्रासुक जगह निवास पापहत, आश कुपथ विध्वंसि विचार।।४।।
दशमुंडनयुत दोषरहित, आहारी मुनिगण से अति दूर।
सकल परीषहजयी क्रिया में, तत्पर नित प्रमाद से दूर।।५।।
व्रत में अचलित कायोत्सर्गयुत, कष्ट दुष्ट लेश्या से हीन।
विधिवत् गृहत्यागी निर्मलतनु, इन्द्रियविजयी निद्राहीन।।६।।
उत्कुटिकासन धरें विवेकी, अतुल अखण्डित स्वाध्यायी।
राग-लोभ-शठ-मद-मात्सर्यों, रहित पूर्ण शुभ परिणामी।।७।।
धर्मशुक्ल से भावित शुचिमन, आर्तरौद्र द्वय पक्ष रहित।
कुगतिविनाशी पुण्यऋद्धि के, उदय सहित गारवविरहित।।८।।
आतापन तरुमूल योग, अभ्रावकाश में राग सहित।
बहुजन हितकर चरित अभय, निष्पाप महान् प्रभाव सहित।।९।।
इन सब गुण से युक्त तुम्हें, स्थिर योगी आचार्य प्रधान।
बहुत भक्तियुत विधिवत् मुकुलित, करपुट कमल धरूँ शिरधाम।।१०।।
नमूँ तुम्हें कर्मोेदय संभव, जन्म-जरा-मृति बंध रहित।
होवे इति शिव-अचल-अनघ, अक्षय-निर्बाध मुक्तिसुख नित।।११।।
हे भगवन् ! आचार्य भक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से।
उसके आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।१।।
सम्यग्ज्ञान दरश चारितयुत, पंचाचार सहित आचार्य।
आचारांग आदि श्रुतज्ञानी, उपाध्याय उपदेशकवर्य।।२।।
रत्नत्रय गुण पालन में रत, सर्व साधु का मैं हर्षित।
अर्चन पूजन वंदन करता, नमस्कार करता हूूँ नित।।३।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपद् होवे।।४।।
इस तरह आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्य की वंदना करें। आचार्य भी परोक्ष में ही गुरु की वंदना करते हैं।
नमोऽस्तु मंगलगोचरभक्तप्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं शांतिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पूर्ववत् कायोत्सर्ग आदि करके संस्कृत या हिन्दी शांति भक्ति पढ़ें।)
(संस्कृत का हिन्दी पद्यानुवाद)
(अथवा पृ. २० से संस्कृत की भक्ति पढ़ें)
भगवन् ! सब जन तव पद युग की, शरण प्रेम से नहिं आते।
उसमें हेतु विविध दुःखों से, भरित घोर भववारिधि हैं।।
अतिस्फुरित उग्र किरणों से, व्याप्त किया भूमण्डल है।
ग्रीषम ऋतु रवि राग कराता, इंदुकिरण छाया जल में।।१।।
कुद्धसर्प आशीविष डसने, से विषाग्नियुत मानव जो।
विद्या औषध मंत्रित जल, हवनादिक से विष शांति हो।।
वैसे तव चरणाम्बुज युग-स्तोत्र पढ़ें जो मनुज अहो।
तनु नाशक सब विघ्न शीघ्र, अति शांत हुए आश्चर्य अहो।।२।।
तपे श्रेष्ठ कनकाचल की, शोभा से अधिक कांतियुत देव।
तव पद प्रणमन करते जो, पीड़ा उनकी क्षय हो स्वयमेव।।
उदित रवी की स्फुट किरणों से, ताड़ित हो झट निकल भगे।
जैसे नाना प्राणी लोचन-द्युतिहर रात्रि शीघ्र भगे।।३।।
त्रिभुवन जन सब जीत विजयि बन, अतिरौद्रात्मक मृत्यूराज।
भव-भव में संसारी जन के, सन्मुख धावे अति विकराल।।
किस विध कौन बचे जन इससे, काल उग्र दावानल से।
यदि तव पादकमल की स्तुति-नदी बुझावे नहीं उसे।।४।।
लोकालोक निरन्तर व्यापी, ज्ञानमूर्तिमय शान्ति विभो।
नानारत्न जटित दण्डेयुत, रुचिर श्वेत छत्रत्रय हैं।।
तव चरणाम्बुज पूतगीत रव, से झट रोग पलायित हैं।
जैसे सिंह भयंकर गर्जन, सुन वन हस्ती भगते हैं।।५।।
दिव्यस्त्रीदृगसुन्दर विपुला, श्रीमेरु के चूड़ामणि।
तव भामण्डल बाल दिवाकर, द्युतिहर सबको इष्ट अति।।
अव्याबाध अचिंत्य अतुल, अनुपम शाश्वत जो सौख्य महान्।
तव चरणारविंदयुगलस्तुति, से ही हो वह प्राप्त निधान।।६।।
किरण प्रभायुत भास्कर भासित, करता उदित न हो जब तक।
पंकजवन नहिं खिलते, निद्राभार धारते हैं तब तक।।
भगवन् ! तव चरणद्वय का हो, नहीं प्रसादोदय जब तक।
सभी जीवगण प्रायः करके, महत् पाप धारें तब तक।।७।।
शांति जिनेश्वर शांतचित्त से, शांत्यर्थी बहु प्राणीगण।
तव पादाम्बुज का आश्रय ले, शांत हुए हैं पृथिवी पर।।
तव पदयुग की शांत्यष्टकयुत, संस्तुति करते भक्ति से।
मुझ भाक्तिक पर दृष्टि प्रसन्न, करो भगवन् ! करुणा करके।।८।।
शशि सम निर्मल वक्त्र शांतिजिन, शीलगुण व्रत संयम पात्र।
नमूँ जिनोत्तम अंबुजदृग को, अष्टशतार्चित लक्षण गात्र।।९।।
चक्रधरों में पंचमचक्री, इन्द्र नरेन्द्र वृंद पूजित।
गण की शांति चहूँ षोडश-तीर्थंकर नमूँ शांतिकर नित।।१०।।
तरु अशोक सुरपुष्पवृष्टि, दुंदुभि दिव्यध्वनि सिंहासन।
चमर छत्र भामण्डल ये अठ, प्रातिहार्य प्रभु के मनहर।।११।।
उन भुवनार्चित शांतिकरं, शिर से प्रणमूँ शांति प्रभु को।
शांति करो सब गण को मुझको, पढ़ने वालों को भी हो।।१२।।
मुकुटहारकुंडल रत्नों युत, इन्द्रगणों से जो अर्चित।
इन्द्रादिक से सुरगण से भी, पादपद्म जिनके संस्तुत।।
प्रवरवंश में जन्मे जग के, दीपक वे जिन तीर्थंकर।
मुझको सतत शांतिकर होवें, वे तीर्थेेश्वर शांतिकर।।१३।।
संपूजक प्रतिपालक जन, यतिवर सामान्य तपोधन को।
देश राष्ट्र पुर नृप के हेतू, हे भगवन् ! तुम शांति करो।।१४।।
सभी प्रजा में क्षेम नृपति, धार्मिक बलवान् जगत में हो।
समय-समय पर मेघवृष्टि हो, आधि व्याधि का भी क्षय हो।।
चोरि मारि दुर्भिक्ष न क्षण भी, जग में जन पीड़ाकर हो।
नित ही सर्व सौख्यप्रद जिनवर, धर्मचक्र जयशील रहो।।१५।।
वे शुभद्रव्य क्षेत्र अरु काल, भाव वर्तें नित वृद्धि करें।
जिनके अनुग्रह सहित मुमुक्षू, रत्नत्रय को पूर्ण करें।।१६।।
घातिकर्म विध्वंसक जिनवर, केवलज्ञानमयी भास्कर।
करें जगत में शांति सदा, वृषभादि जिनेश्वर तीर्थंकर।।१७।।
हे भगवन् ! श्री शांतिभक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसके।
आलोचन करने की इच्छा, करना चाहूँ मैं रुचि से।।
अष्टमहाप्रातिहार्य सहित जो, पंचमहाकल्याणक युत।
चौंतिस अतिशय विशेष युत, बत्तिस देवेन्द्र मुकुट चर्चित।।
हलधर वासुदेव प्रतिचक्री, ऋषि मुनि यति अनगार सहित।
लाखों स्तुति के निलय वृषभ से, वीर प्रभू तक महापुरुष।।
मंगल महापुरुष तीर्थंकर, उन सबको शुभ भक्ती से।
नित्यकाल मैं अर्चूं, पूजूँ, वंदूँ, नमूँ महामुद से।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।
नमोऽस्तु मंगलगोचरभक्तप्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्ध-योगि-आचार्यशांतिभक्तीः कृत्वा तद्धीनाधिकदोषविशुद्ध्यर्थं आत्मपवित्रीकरणार्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पूर्ववत् सामायिक दण्डक आदि पूर्वक कायोत्सर्ग करके समाधिभक्ति पढ़ें।)
(संस्कृत का हिन्दी पद्यानुवाद)
(अथवा पृ. ५९ से संस्कृत की समाधिभक्ति पढ़ें)
स्वात्मरूप के अभिमुख, संवेदन को श्रुतदृग् से लखकर।
भगवन् ! तुमको केवलज्ञान, चक्षु से देखूँ झट मनहर।।१।।
शास्त्रों का अभ्यास जिनेश्वर, नमन सदा सज्जन संगति।
सच्चरित्रजन के गुण गाऊँ, दोष कथन में मौन सतत।।
सबसे प्रिय हित वचन कहूँ, निज आत्म तत्त्व को नित भाऊँ।
यावत् मुक्ति मिले तावत्, भव-भव में इन सबको पाऊँ।।२।।
जैनमार्ग में रुचि हो अन्य, मार्ग निर्वेग हों भव-भव में।
निष्कलंक शुचि विमल भाव हों, मति हो जिनगुण स्तुति में।।३।।
गुरुपदमूल में यतिगण हों, अरु चैत्यनिकट आगम उद्घोष।
होवे जन्म-जन्म में मम, संन्यासमरण यह भाव जिनेश।।४।।
जन्म-जन्म कृत पाप महत अरु, जन्म करोड़ों में अर्जित।
जन्म-जरा-मृत्यू के जड़ वे, जिन वंदन से होते नष्ट।।५।।
बचपन से अब तक जिनदेवदेव! तव पाद कमल युग की।
सेवा कल्पलता सम मैंने, की है भक्तिभाव धर ही।।
अब उसका फल माँगूँ भगवन् ! प्राण प्रयाण समय मेरे।
तव शुभ नाम मंत्र पढ़ने में, कंठ अकुंठित बना रहे।।६।।
तव चरणाम्बुज मुझ मन में, मुझ मन तव लीन चरणयुग में।
तावत् रहे जिनेश्वर! यावत्, मोक्षप्राप्ति नहिं हो जग में।।७।।
जिनभक्ती ही एक अकेली, दुर्गति वारण में समरथ।
जन का पुण्य पूर्णकर मुक्ति-श्री को देने में समरथ।।८।।
पंच अरिंजय नाम पंच-मतिसागर जिन को वंदूँ मैं।
पंच यशोधर नमूँ पंच-सीमंधर जिन को वंदूँ मैं।।९।।
रत्नत्रय को वंदूँ नित, चउवीस जिनवर को वंदूूँ मैं।
पंचपरमगुरु को वंदूँ, नित चारण चरण को वंदूँ मैं।।१०।।
‘‘अर्हं’’ यह अक्षर है ब्रह्मरूप, पंचपरमेष्ठी का वाचक।
सिद्धचक्र का सही बीज है, उसको नमन करूँ मैं नित।।११।।
अष्टकर्म से रहित मोक्ष-लक्ष्मी के मंदिर सिद्ध समूह।
सम्यक्त्वादि गुणों से युत, श्रीसिद्धचक्र को सदा नमूँ।।१२।।
सुरसंपति आकर्षण करता, मुक्तिश्री को वशीकरण।
चतुर्गति विपदा उच्चाटन, आत्म-पाप में द्वेष करण।।
दुर्गति जाने वाले का, स्तंभन मोह का सम्मोहन।
पंचनमस्कृति अक्षरमय, आराधन देव! करो रक्षण।।१३।।
अहो अनंतानंत भवों की, संतति का छेदन कारण।
श्री जिनराज पदाम्बुज है, स्मरण करूँ मम वही शरण।।१४।।
अन्य प्रकार शरण नहिं जग में, तुम ही एक शरण मेरे।
अतः जिनेश्वर करुणा करके, रक्ष मेरी रक्षा करिये।।१५।।
त्रिभुवन में नहिं त्राता कोई, नहिं त्राता है नहिं त्राता।
वीतराग प्रभु छोड़ न कोई, हुआ न होता नहिं होगा।।१६।।
जिन में भक्ती सदा रहे, दिन-दिन जिनभक्ती सदा रहे।
जिन में भक्ती सदा रहे, मम भव-भव में भी सदा रहे।।१७।।
तव चरणाम्बुज की भक्ती को, जिन! मैं याचूँ मैं याचूँ।
पुनः पुनः उस ही भक्ति की, हे प्रभु! याचन करता हूँ।।१८।।
विघ्नसमूह प्रलय हो जाते, शाकिनि भूत पिशाच सभी।
श्री जिनस्तव करने से ही, विष निर्विष होता झट ही।।१९।।
दोहा-
भगवन् ! समाधिभक्ति अरु, कायोत्सर्ग कर लेत।
चाहूँ आलोचन करन, दोष विशोधन हेत।।१।।
रत्नत्रय स्वरूप परमात्मा, उसका ध्यान समाधि है।
नितप्रति उस समाधि को अर्चूं, पूजूँ वंदूँ नमूँ उसे।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।२।।