आगम में मुनि के सामान्यतया दो भेद किए हैं-जिनकल्पी और स्थविरकल्पी। उसमें से पहले आप जिनकल्पी मुनि की चर्या देखिए-
‘‘ये जिनकल्पी मुनि उत्तम संहननधारी होते हैं, यदि जिनकल्पी मुनियों के पैर में कांटा लग जाए अथवा नेत्रों में धूलि पड़ जावे तो वे महामुनि अपने हाथ से न तो कांटा निकालते हैं और न धूलि ही निकालते हैं। यदि अन्य कोई दूसरा मनुष्य उस कांटे या धूलि को निकालता है तो वे मौन रहते हैं। जब वर्षाऋतु आ जाती है और मुनियों का गमन करना बंद हो जाता है उस समय वे जिनकल्पी महामुनि छह महीने तक निराहार रहते हैं और छह महीने तक कायोत्सर्ग धारण कर किसी एक ही स्थान पर खड़े रहते हैं अर्थात् उनका उत्तम संहनन होता है। अस्थि आदि सब वङ्कामय होती हैं इसीलिए उनमें इतनी शक्ति होती है। वे महामुनि ग्यारह अंग के पाठी होते हैं, धर्मध्यान व शुक्लध्यान में लीन रहते हैं, समस्त कषायों के त्यागी होते हैं, मौनव्रत को धारण करने वाले होते हैं और पर्वतों की गुफा-कंदराओं में रहते हैं, बाह्य-अभ्यंतर समस्त परिग्रहों के त्यागी होते हैं, स्नेह रहित परम वीतराग होते हैं और समस्त इच्छाओं से सर्वथा रहित होते हैं, ऐसे ये यतीश्वर महामुनि भगवान् जिनेंद्र के समान सदाकाल विहार करते रहते हैं, इसलिए ये जिनकल्पी मुनि कहलाते हैं१।
इन जिनकल्पी महामुनियों के कतिपय उदाहरण देखिए-
‘‘जंबूद्वीप के पूर्वविदेह में रत्नसंचय नगर में वङ्काायुध नाम के चक्रवर्ती हुए हैं। उन्होंने क्षेमंकर तीर्थंकर के पास दीक्षा लेकर सिद्धिगिरि नामक पर्वत पर जाकर एक वर्ष के लिए प्रतिमायोग धारण कर लिया। उनके चरणों का आश्रय पाकर बहुत सी सर्पों की वामियाँ तैयार हो गईं और उनके शरीर को चारों तरफ से लताओं ने वेष्ठित कर लिया था। एक वर्ष का योग समाप्त होने के बाद ये मुनिराज अन्यत्र चिरकाल तक विहार करते हुये घोराघोर तपश्चरण करते रहे। अंत में समाधिपूर्वक मरण करके ऊर्ध्व ग्रैवेयक में अहमिंद्र हो गये। ये ही महापुरूष इस वङ्काायुध चक्रवर्ती के भव से पाँचवें भव में भगवान शांतिनाथ तीर्थंकर हुए हैं, जोकि पुनरपि यहाँ भरतक्षेत्र के पाँचवें चक्रवर्ती हुए हैं।”