अयोध्या नगरी के प्रसिद्ध सेठ सिद्धार्थ अपनी बत्तीस स्त्रियों में से सेठानी जयावती पर अधिक प्रेम करते थे किन्तु इन स्त्रियों में से किसी के संतान नहीं थी। जयावती संतान के लिए हमेशा कुदेवों की उपासना किया करती थी। एक दिन कुदेवों की पूजा करते हुये दिगम्बर मुनिराज ने उसे देखा और सम्यक्त्व का उपदेश दिया। मुनिराज कहने लगे-हे भद्रे! धन, पुत्र आदि लौकिक सुख भी धर्म के प्रसाद से ही मिलते हैं अत: तू जिनधर्म पर विश्वास करते हुए सदैव पुण्य का अर्जन कर, तेरी इच्छा अवश्य पूरी होगी तथा अंत में चलते समय मुनिराज ने कहा कि तुझे सात के भीतर ही पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी।
मुनिराज के सदुपदेशमयी अमृत को पीकर सेठानी ने अतीव आनंद का अनुभव किया। कालांतर में उसने पुत्ररत्न को जन्म दिया किंतु सेठ सिद्धार्थ पुत्र के मुख का अवलोकन कर उसे तत्क्षण ही अपने पद पर स्थापित करके आप विरक्त हो नयंधर मुनिराज से दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे। जयावती को पति के वियोग का असह्य दु:ख हुआ इससे वह आर्तध्यान से पीड़ित रहने लगी। उसे मुनिराज सिद्धार्थ पर ही नहीं किन्तु सभी मुनियों पर कषाय हो गयी। उसने अपने घर में मुनियों का आना-जाना बंद कर दिया। वयप्राप्त होने पर सुकौशल की भी बत्तीस कन्याओं से शादी हो गयी। सुकौशल भी महान् पुण्य से प्राप्त असीम सम्पत्ति और सुख का भोग करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे।
किसी समय सुकौशल, माता जयावती, अपनी स्त्री और धाय के साथ महल की छत पर बैठे हुए अयोध्या की शोभा देख रहे थे। उन्होंने सामने से आते हुए एक मुनिराज को देखा। ये मुनि इनके पिता सिद्धार्थ ही थे। अकस्मात् जीवन में पहली बार दिगम्बर मुनि को देखकर सुकौशल आश्चर्यचकित होकर माँ से पूछते हैं कि मात:! ये कौन हैं? सिद्धार्थ को देखते ही जयावती के क्रोध भड़क उठा अत: उसने उपेक्षा और ग्लानि से कहा कि होगा कोई भिखारी, तुझे इससे क्या मतलब? अपनी माँ के इस उत्तर से सुकौशल को संतोष नहीं हुआ। पुन: प्रश्न किया-मात:! ये तो कोई महापुरूष अतितेजस्वी मालूम पड़ रहे हैं तुम इन्हें भिखारी वैâसे कह रही हो? उस समय जयावती के दुर्भाव को देखकर सुनंदा धाय से न रहा गया, उसने वास्तविक परिचय देना चाहा किन्तु जयावती के संकेत से वह पूरा नहीं बोल सकी। तब सुकौशल ने भोजन के समय भोजन न करने का हठ धर लिया और वास्तविक परिचय जानना चाहा अनंतर सुनंदा धाय ने सारी बातें बता दीं।
सुकौशल उसी समय विरक्त होकर अपनी सुभद्रा पत्नी के गर्भस्थ बालक को ही अपना श्रेष्ठीपद संभलाकर पिता के पास पहुँचे और उनसे जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। अपने प्रियपुत्र के भी दीक्षित हो जाने से जयावती अतीव दु:ख से पागल जैसी हो गयी। इस चिंता और आर्तध्यान से मरण कर वह व्याघ्री हो गई।‘‘एक समय सिद्धार्थ और सुकौशल मुनिराज (पिता और पुत्र) मौद्गिल पर्वत पर वर्षायोग ग्रहण करके स्थित हो गये। अनंतर योग पूर्ण करके चार मास उपवास के बाद वे दोनों महामुनि आहार के लिए पर्वत से नीचे उतरे। उस समय व्याघ्री ने (जयावती के जीव ने) पूर्व जन्म के क्रोध के संस्कारवश उन्हें शत्रु समझकर उनका भक्षण करना शुरू कर दिया। वे दोनों मुनि समाधिमरण से शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हो गये। आगे मनुष्यलोक मेंं आकर उसी भव से निर्वाण को प्राप्त करेंगे१।”
इस प्रकार जिनकल्पी मुनियों के चातुर्मास आदि के अनेक उदाहरण आगम में भरे हुए हैं।