जिनेंद्रदेव ने स्थविरकल्पी का स्वरूप इस प्रकार बताया है कि जो मुनि पाँचों प्रकार के वस्त्रों का अर्थात् सूत, रेशम, ऊन, चर्म और वृक्ष की छाल से बने वस्त्रों का सर्वथा त्याग कर देते हैं, अकिंचन व्रत धारण करते हैं और मयूर पंख की पिच्छिकारूप प्रतिलेखन ग्रहण करते हैं, पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं, बिना याचना किये, श्रावक द्वारा भक्तिभाव से दिये गये आहार को खड़े होकर करपात्र में ग्रहण करते हैं, बाह्य और अभ्यंतर तप को करने में उद्यमी रहते हैं, हमेशा छह आवश्यक क्रियाओं में तत्पर रहते हैं, क्षितिशयन और केशलोंच मूलगुणोें का पालन करते हुए जिनेंन्द्र देव के समान ही माने जाते हैं, वे स्थविरकल्पी कहलाते हैं।
‘‘इस१ दु:षमकाल में शरीर के संहनन उत्तम-बलवान नहीं होते हैं इसलिए वे मुनि किसी नगर, गाँव या किसी पुर में रहते हैं और अपने तपश्चरण आदि के प्रभाव से स्थविरकल्प में स्थित होने से स्थविरकल्पी कहलाते हैं” वे मुनि अपने उपकरण ऐसे रखते हैं कि जिससे उनके चारित्र का किसी प्रकार से भंग न हो। वे अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार किसी के द्वारा दिए गए शास्त्र को ग्रहण करते हैं। इस पंचमकाल में ये मुनि संघ में रहकर समुदायरूप से विहार करते हैं, अपनी शक्ति के अनुसार धर्म प्रभावना करते हुये भव्यजीवों को धर्म का उपदेश देते हैं तथा शिष्यों का संग्रह करते हैं और उनका पालन करते हैं। यह काल दु:षम है, इस काल में शरीर के संहनन अत्यन्त हीन होते हैं, मन अत्यन्त चंचल रहता है, तथापि धीर-वीर पुरुष महाव्रतों का भार धारण करने में अत्यन्त उत्साहित रहते हैं यह भी एक आश्चर्य की बात है। पहले समय में जितने कर्मों को मुनि लोग अपने शरीर से हजार वर्ष में नष्ट करते थे, उतने ही कर्मों को आजकल स्थविरकल्पी मुनि अपने हीन संहनन वाले शरीर से एक वर्ष में ही क्षय कर डालते हैं।”
इसी प्रकार से अन्यत्र भी स्थविरकल्पी मुनि के विषय में कहा गया है कि ये मुनि स्थविर-वृद्ध साधुओं के रक्षण तथा पोषण में सावधान रहते हैं, इसीलिए महर्षि लोग इन्हें स्थविरकल्पी कहते हैं। इस भीषण दु:षमकाल में हीन संहनन के होने से ये मुनि स्थानीय नगर, ग्राम आदि के जिनालय में रहते हैं। यद्यपि यह काल दु:सह है, शरीर का संहनन हीन है, मन अत्यन्त चंचल है और मिथ्यामत सारे संसार में व्याप्त हो रहा है, तो भी ऐसे समय में भी ये मुनि संयम के पालन करने में तत्पर रहते हैं, यही एक विशेषता है।”