वर्षाकाल में पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएँ तथा विवाह आदि कार्य नहीं होते हैं तथा वृष्टि की बहुलता से श्रावकों के व्यापार भी मंद गति से चलते हैं। यही कारण है कि श्रावकजन भी साधुओं के चातुर्मास से अत्यधिक लाभ ले लिया करते हैंं। इन चार महीनों के अंतर्गत अनेक धार्मिक पर्व आ जाते हैं जिनके निमित्त से विशेष धार्मिक आयोजन, विधि विधान, उत्सव तथा धर्मोपदेश का लाभ मिलता है।वर्षायोग प्रारम्भ होते ही सर्वप्रथम श्रावण बदी एकम को वीर शासन जयंती दिवस आ जाता है। छ्यासठ दिन बाद विपुलाचल पर्वत पर गौतम स्वामी के आते ही भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि इसी दिन प्रगट हुई थी। वीर प्रभु का धर्मशासन इसी दिन से चला है इसलिए इस पर्व को मनाते हैं। पुन: श्रावण सुदी एकम से सप्तमी तक सात दिन सप्तपरमपद की प्राप्ति हेतु सप्तपरमस्थानव्रत किया जाता है। सज्जाति, सद्गार्हस्थ्य, पारिव्राज्य, सुरेंद्रता, साम्राज्य, आर्हन्त्य और परिनिर्वाण ये सात पद परमस्थान के नाम से कहे गये है। अनंतर श्रावण शुक्ला सप्तमी को ही इसी दिन बहुत सी महिलाएँ और कन्याएँ मुकुट सप्तमी व्रत करती है पुन: श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों की रक्षा की खुशी में रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है। इसी दिन श्री विष्णु कुमार मुनि और अकंपनाचार्यादि मुनियों की पूजा करके उनकी कथा सुनाई जाती है।
भाद्रपद तो व्रतों का भंडार ही है। भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा से ही तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिए कारणस्वरूप ऐसी षोडशकारण भावनाओं की उपासना एक मास तक चलती है। बहुत से श्रावक, श्राविकागण सोलहकारण व्रत करते हैंं। भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा, दूज और तीज इन तीन दिन लब्धि विधान व्रत किया जाता है। तीन महिलाओं ने इस व्रत को करके कालांतर में इन्द्रभूति, वायुभूति और अग्निभूति होकर भगवान महावीर के गणधर के पद को प्राप्त किया हैै। भाद्रपद शुक्ला पंचमी के दिन आकाशपंचमी व्रत होता है। इसी दिन से उत्तम क्षमा आदि धर्मों की उपासना हेतु दश दिन दशलक्षण पर्व मनाया जाता है। इसी पंचमी से नवमी तक पाँच दिन पँचमेरू के चैत्यालयों की उपासना के हेतु पुष्पांजलि व्रत होता है। पुन: दशमी को सुगंध दशमी व्रत होता है। तेरस, चौदह और पूर्णिमा को रत्नत्रय व्रत किया जाता है। अनंतचतुर्दशी व्रत को तो प्राय: किसी न किसी रूप से सभी समाज मनाती हैं। अनंतर सोलहकारण व्रत के अंतिम दिन आसोज वदी प्रतिपदा को सर्वत्र मंदिरों में पूर्णाभिषेक होता है और इस दिन क्षमावणी पर्व बड़े पवित्र भावों से मनाया जाता है। इस भाद्रपद में और भी अनेक व्रत होते हैंं जो कि व्रत विधान की पुस्तकों से जाने जाते हैं।
आश्विन सुदी पूर्णिमा के दिन भी धार्मिक कार्यक्रम होते हैंं पुन: कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रभात में वीर प्रभु का निर्वाण दिवस बहुत ही उल्लासपूर्ण वातावरण में सम्पन्न होता है उसी दिन शाम को गौतम गणधर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था, इसी की स्मृति में उसी दिन शाम को गौतम गणधर के केवलज्ञान लक्ष्मी की पूजा करके गणधर देव की पूजा करते हैं तथा इस पूजा को नूतन वर्ष के प्रारंभ में मंगलकारी मानकर पूजा करके नवीन बही आदि में स्वस्तिक बनाते हैंं। इस बात को न समझ कर कुछ अज्ञानी लोग बही की पूजा हेतु गणेश और लक्ष्मी की पूजा करने लगे हैं वास्तव में गौतम गणधर ही गणों के ईश होने से गणेश हंै और केवलज्ञान लक्ष्मी ही महालक्ष्मी है। इनकी पूजा ही संपूर्ण मंगल की देने वाली है। धन-धान्य-समृद्धि को करते हुए परम्परा से केवलज्ञान लक्ष्मी और मुक्ति लक्ष्मी को भी प्राप्त कराने वाली है।
कार्तिक शुक्ला अष्टमी से पूर्णिमापर्यंत आठ दिन महानंदीश्वर पर्व मनाया जाता है। इस पर्व में श्रावक प्राय: सिद्धचक्र विधान आदि प्रारंभ कर देते है अत: साधु संघ को भी आग्रहपूर्वक रोक लेते हैं और रथयात्रा आदि उत्सवपूर्वक चातुर्मास सम्पन्न करते हैं।
इन चार महीनों में वर्तमान आचार्य परम्परा के मूलस्रोत चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज का आषाढ़ वदी छठ का जन्म दिवस और भाद्रपद शुक्ला द्वितीया का सल्लेखना दिवस आ जाता है। आचार्य श्री वीरसागर महाराज का आषाढ़ सुदी पूर्णिमा को जन्म दिवस और आश्विन वदी अमावस को सल्लेखना दिवस मनाया जाता है। इसी आश्विन की अमावस के दिन ही आचार्य पायसागर जी महाराज का भी सल्लेखना दिवस है। इसी प्रकार से और भी अनेक पर्व और व्रत इन दिनों में आते हैं, जिन्हें श्रावक उत्सव के साथ मनाते हैं।