-स्थापना (शंभु छंद)-
श्री ऋषभगिरी मांगीतुंगी की, पुण्य धरा को नमन करूँ।
निन्यानवे कोटि मुनीश्वर की, निर्वाणभूमि को नमन करूँ।।
इस पर्वत पर प्रगटित जिनवर श्री ऋषभदेव को नमन करूँ।
इक शतक आठ फुट ऋषभदेव, तीर्थंकर पद को नमन करूँ।।१।।
-दोहा-
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण महान।
मांगीतुंगी तीर्थ का, करूँ हृदय में ध्यान।।२।।
ऋषभदेव तीर्थेश की, प्रतिमा बनी महान।
जिनशासन की वृद्धि हो, जग का हो कल्याण।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्रऋषभगिरिमांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्रऋषभगिरिमांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्रऋषभगिरिमांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
हिमवन गिरि पद्म सरोवर से, बहती गंगा की धारा है।
उससे प्रभु पद प्रक्षाल करूँ, भवदधि से मिले किनारा है।।
इक शतक आठ फुट ऋषभदेव की, प्रतिमा का निर्माण जहाँ।
उस ऋषभगिरि मांगीतुंगी की, पूजन का शुभ भाव हुआ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्र ऋषभगिरि मांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन की नश्वर शीतलता, अविनश्वर भी बन जाती है।
प्रभु पद में चर्चन करने से, भवदाह शांत हो जाती है।।
इक शतक आठ फुट ऋषभदेव की, प्रतिमा का निर्माण जहाँ।
उस ऋषभगिरि मांगीतुंगी की, पूजन का शुभ भाव हुआ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्र ऋषभगिरि मांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्राय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सच्चे मोती के पुंज समर्पित, करने की नहिं शक्ति प्रभो!
चावल के पुंज चढ़ाकर ही, मैं चाहूँ अक्षय धाम प्रभो।।
इक शतक आठ फुट ऋषभदेव की, प्रतिमा का निर्माण जहाँ।
उस ऋषभगिरि मांगीतुंगी की, पूजन का शुभ भाव हुआ।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्र ऋषभगिरि मांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्राय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
इक कल्पवृक्ष का पुष्प प्रभो! चिरकाल सुगंधी देता है।
प्रभु पद के पुष्प चढ़ाकर मानव, शाश्वत सुख पा लेता है।।
इक शतक आठ फुट ऋषभदेव की, प्रतिमा का निर्माण जहाँ।
उस ऋषभगिरि मांगीतुंगी की, पूजन का शुभ भाव हुआ।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्र ऋषभगिरि मांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मिष्टान्न विविध पकवानों से, तन मन को तृप्त किया मैंने।
प्रभु पद में उन्हें चढ़ाकर आत्मा को संतृप्त किया मैंने।।
इक शतक आठ फुट ऋषभदेव की, प्रतिमा का निर्माण जहाँ।
उस ऋषभगिरि मांगीतुंगी की, पूजन का शुभ भाव हुआ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्र ऋषभगिरि मांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्राय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युत के लाखों दीप जगत को, चकाचौंध कर देते हैं।
प्रभु सन्मुख दीप जलाने से, मोहांधकार हर लेते हैं।।
इक शतक आठ फुट ऋषभदेव की, प्रतिमा का निर्माण जहाँ।
उस ऋषभगिरि मांगीतुंगी की, पूजन का शुभ भाव हुआ।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्र ऋषभगिरि मांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन कपूर की धूप बनाकर, जिनवर सम्मुख दहन करूँ।
मांगीतुंगी की पूजन कर, मैं भी कर्मों को दहन करूँ।।
इक शतक आठ फुट ऋषभदेव की, प्रतिमा का निर्माण जहाँ।
उस ऋषभगिरि मांगीतुंगी की, पूजन का शुभ भाव हुआ।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्र ऋषभगिरि मांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्राय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अंगूर अनार संतरा, के उपवन हैं भरे जहाँ।
उस महाराष्ट्र के तीरथ की, पूजन में फल का थाल धरा।।
इक शतक आठ फुट ऋषभदेव की, प्रतिमा का निर्माण जहाँ।
उस ऋषभगिरि मांगीतुंगी की, पूजन का शुभ भाव हुआ।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्र ऋषभगिरि मांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्राय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
चांदी-सोने के पुष्प और, रत्नों का अर्घ्य बना करके।
‘‘चंदनामती’’ मैं पद अनर्घ्य, चाहूँ प्रभु अर्घ्य चढ़ा करके।।
इक शतक आठ फुट ऋषभदेव की, प्रतिमा का निर्माण जहाँ।
उस ऋषभगिरि मांगीतुंगी की, पूजन का शुभ भाव हुआ।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्र ऋषभगिरि मांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर मूर्ति विशाल, शांति करे इस लोक में।
कर लूँ शांतीधार, ऋषभदेव पद धोक दे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पों के उद्यान, मांगीतुंगी तीर्थ के।
पुष्पांजलि कर आज, चाहूँ निजगुण कीर्ति मैं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:
तर्ज-मनमंदिर में आय जइयो……
जिनवर की पूजा रचाएंगे, ऋषभगिरि पर्वत पर।
पर्वत के ऊपर, ऋषभगिरी के ऊपर।।जिनवर की….।।टेक.।।
पर्वत व सरवर नहीं कोई तीरथ।
जिनवर की महिमा से बनते हैं तीरथ।।
तीरथ को अर्घ्य चढ़ाएंगे, ऋषभगिरि पर्वत पर।।जिनवर..।।१।।
निन्यानवे कोटि मुनि मोक्ष भूमी।
है ऐतिहासिक यह तीर्थभूमी।।
उन सबको अर्घ्य चढ़ाएंगे, ऋषभगिरि पर्वत पर।।जिनवर..।।२।।
इतिहास इक जुड़ गया है इससे।
जिनवर ऋषभदेव प्रगटे हैं गिरि पे।।
सबसे ऊँची प्रतिमा को ध्याएंगे, ऋषभगिरि पर्वत पर।।जिनवर..।।३।।
हम पुण्यशाली हैं आज सबसे।
श्री ज्ञानमति मात के दर्श करके।।
उनका ही चिन्तन दिखाएंगे, ऋषभगिरि पर्वत पर।।जिनवर..।।४।।
है एक सौ आठ फुट ऊँची प्रतिमा।
दुनिया में इक मात्र है जिसकी गरिमा।।
ऐसा चमत्कार पाएंगे, ऋषभगिरि पर्वत पर।।जिनवर..।।५।।
ऋषभगिरि मांगीतुंगी को वन्दन।
ऋषभदेव का जाप्य भी कर लो प्रतिदिन।।
ऋषभदेव पूजा रचाएँगे, ऋषभगिरि पर्वत पर।।जिनवर..।।६।।
करने कराने वाले सुखी हों।
तीरथ की भी सर्वदा उन्नती हो।।
पुष्पों की माला चढ़ाएंगे, ऋषभगिरि पर्वत पर।।जिनवर..।।७।।
पर्वत की पूजन पर्वत का वंदन।
पर्वत पे जयमाला पूर्णार्घ्य अर्पण।।
पर्वत का ध्यान लगाएंगे, ऋषभगिरि पर्वत पर।।जिनवर..।।८।।
पर्वत सी ऊँचाई को हम भी पाएं।
पूजन का फल ‘‘चन्दनामति’’ ये चाहें।।
सबसे बड़े प्रभु को मनाएंगे, ऋषभगिरि पर्वत पर।।जिनवर..।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थाधिनाथश्रीऋषभदेवप्रतिमानिर्माणपवित्र ऋषभगिरि मांगीतुंगी-सिद्धक्षेत्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
-सोरठा-
ऊँचा पर्वतराज, लघु सम्मेदशिखर कहा।
मांगीतुंगी आज, पूज्य परम पावन रहा।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।।