-दोहा-
सिद्धप्रभू श्रीपद्म को, नमन करूँ शत बार।
कोटि निन्यानवे साधु को, वन्दन बारम्बार।।१।।
प्राप्त किया शिवधाम को, तुंगी गिरि पर जाय।
बने सिद्ध परमात्मा, आत्मधाम को पाय।।२।।
मांगीतुंगी तीर्थ का, चालीसा सुखकार।
पढ़े पढ़ावें भव्यजन, पावें सौख्य अपार।।३।।
जय श्री पद्म जगत के स्वामी, वीतराग शुद्धातम ज्ञानी।।४।।
जिन मुनि बनकर कर्म नशाया, तुंगीगिरि से शिवपदपाया।।५।।
तीर्थ अयोध्या में जन्मे थे, पुण्य किया बलभद्र बने थे।।६।।
निज पितु के प्रिय पुत्र कहाए, प्यारे प्यारे भाई पाए।।७।।
राज पुत्रि संग ब्याह रचाया, राजसुखों की थी ही छाया।।८।।
राजा बनने के दिन आए, तब संकट के बादल छाए।।९।।
तात वचन की रक्षा खातिर, विचरे वे वन-वन में जाकर।।१०।।
पत्नी अरु भाई थे संग में, दु:ख भी सुख था वन उपवन में।।११।।
कई परीक्षा के क्षण आए, रामायण से सुनो कथाएँ।।१२।।
पत्नी ने फिर दीक्षा ले ली, हुए कालकवलित भाई भी।।१३।।
पद्म के मन वैराग्य समाया, दीक्षा ले सार्थक की काया।।१४।।
उत्तर से दक्षिण में जाकर, तुंगीगिरि पर ध्यान लगाकर।।१५।।
अष्टकर्म को नष्ट कर दिया, शिवलक्ष्मी का वरण कर लिया।।१६।।
निन्यानवे कोटि मुनि ने भी, तप कर मुक्तीकन्या वर ली।।१७।।
तब से यह मांगीतुंगी गिरि, कहलाता है सिद्धक्षेत्र गिरि।।१८।।
इतिहासों में इसका वर्णन, पढ़ने में आता है स्वर्णिम।।१९।।
एक और बलभद्र भी मुनि बन, तप करने आए यहाँ गिरि पर।।२०।।
उनकी मूरत पाषाणों में, बनी आज भी है खण्डहर में।।२१।।
यात्रीगण वन्दन को जाते, पाप कर्म उनके नश जाते।।२२।।
जिनवर मुनिवर की प्रतिमाएँ, कहती हैं प्राचीन कथाएँ।।२३।।
तीरथ यद्यपि पौराणिक था, दक्षिण भारत में प्रसिद्ध था।।२४।।
श्री आचार्य शांतिसागर भी, आ पर्वत वंदना करी थी।।२५।।
संवत उन्निस सौ तिरानवे में, पंचकल्याणक उन सन्निधि में।।२६।।
पुन: उन्हीं की परम्परा के, पंचम पट्टाचार्य मुनी थे।।२७।।
श्री श्रेयांससिंधु गुरु जानो, उनकी प्रबल प्रेरणा मानो।।२८।।
तीर्थोद्धार हुआ वर्षों तक, बनी मूर्तियाँ चौबीसों प्रभु।।२९।।
मुनिसुव्रत की सुन्दर प्रतिमा, चौबीसी मंदिर की महिमा।।३०।।
मानस्तंभ बना है नीचे, कितने ही अतिशय वहाँ दीखे।।३१।।
पार्श्वनाथ पद्मासन प्रतिमा, इन सबसे तीरथ की गरिमा।।३२।।
गणिनी ज्ञानमती जी पधारीं, हुआ पंचकल्याणक भारी।।३३।।
सहस्रकूट मंदिर बनवाया, गिरि पर जाकर ध्यान लगाया।।३४।।
हो गई एक नई उपलब्धी, इक सौ अठ फुट की हो मूर्ती।।३५।।
ऋषभदेव प्रतिमा प्रगटाओ, पर्वत पर अतिशय दिखलाओ।।३६।।
वही हुई साकार प्रेरणा, सफल हुई माता की देशना।।३७।।
सबसे ऊँची है यह प्रतिमा, जिनशासन की बढ़ गई गरिमा।।३८।।
जिनवर की निर्वाणभूमि यह, सन्तों की है कर्मभूमि यह।।३९।।
न्याय यहाँ विजयी होता है, मान यहाँ खण्डित होता है।।४०।।
-दोहा-
चालीस दिन तक जो पढ़े, यह चालीसा पाठ।
निजगुण में उत्तुंग वे, करें जगत में ठाठ।।१।।
ज्ञानमती गणिनीप्रमुख, की शिष्या अज्ञान।
रचा ‘‘चन्दनामति’’ सुखद, सिद्धक्षेत्र गुणगान।।२।।