भगवान के अभिषेक, पूजा व साधु के आहार दान में
यज्ञोपवीत धारण करना आवश्यक है
खान में से निकला हुआ सोना तब तक रूप रंग में सुन्दर नहीं बन पाता, जब तक कि उसका विधिपूर्वक अग्नि से तपाकर संस्कार नहीं हो जाता। अग्नि के अनेक तापों से तपकर ही सुवर्ण मूल्यवान बना करता है। धूल पत्थर में मिले हुए हीरे का कुछ विशेष मूल्य नहीं होता, जब उसे शिल्पी अच्छी तरह काटकर, शाण पर चढ़ाकर उसको ठीक तरह घिसकर उसकी चमक प्रगट करता है, तब वह खान का तुच्छ पाषाण बहुमूल्य हीरा बन जाता है।पत्थर की खान से निकले हुए पत्थर का मूल्य कोई विशेष नहीं होता। जब उस पाषाण को मूर्तिकार शिल्पी अपने सधे हुए हाथों से गढ़कर सुन्दर मूर्ति बना देता है, तब वह पाषाण बहुमूल्य बन जाता है। यदि उस पाषाण से अर्हन्त भगवान की मूर्ति बनाई गई हो, तब तो उस पाषाण का मूल्य तथा सम्मान और अधिक हो जाता है।
परन्तु वह अर्हन्त भगवान की प्रतिमा तब तक अपूज्य साधारण मूर्ति ही बनी रहती है, जब तक कि उसका मंत्र, पूजा प्रतिष्ठा आदि विधान द्वारा संस्कार नहीं किया जाता। संस्कार हो जाने पर वह प्रतिमा अर्हन्त भगवान के समान पूज्य बन जाती है।इसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी तब तक मूल्यवान नहीं बन पाता, जब तक कि उसे विविध संस्कारों द्वारा संस्कृत न किया जावे। मानवीय जीवन को सुसंस्कृत बनाने के लिए १६ संस्कार आचार्यों ने बतलाये हैं। उनमें से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्णों के लिए यज्ञोपवीत संस्कार बहुत महत्वपूर्ण है।माता के गर्भ से प्रगट होना मनुष्य का पहला जन्म है और सद्गुणों में प्रविष्ट होने के लिए यज्ञोपवीत (जनेऊ) संस्कार होना मनुष्य का दूसरा गुणमय जन्म माना गया है। इन दो जन्मों के कारण ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को ‘द्विज’ (दो जन्म वाले) कहा जाता है।
द्विजातो हि द्विजन्मेष्ट: क्रियातो गर्भतश्च य:।
क्रिया-मंत्र-विहीनस्तु केवलं नाम-धारक:।।
संस्कार के बिना मनुष्य पूज्य नहीं हो सकता। इसलिए तीन वर्ण वालों को जनेऊ संस्कार अवश्य कराना चाहिए।
मुक्ति प्राप्त करने के लिए मनुष्य भव प्राप्त करना आवश्यक है, क्योंकि देव, पशु, नारकी जीव संयम धारण नहीं कर सकते। परन्तु मनुष्यों में जो मनुष्य अपनी कुल परम्परा से हीन-आचरणी हैं, जिनके नीच गोत्र का उदय होता है, वे मुनि-दीक्षा लेकर संयम धारण नहीं कर सकते। अत: मनुष्य भव की तरह मुक्ति प्राप्त करने के लिए वङ्काऋषभनाराच संहनन तथा उच्च गोत्र कर्म का उदय भी होना एवं हीनांग न होना भी आवश्यक होता है।
उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार उच्च कुलीन पुरुषों के ही होता है, ऐसा ही आर्ष वाक्य है-
जातिगोत्रादि कर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतव:।
येषां स्युस्ते त्रयो वर्णा: शेषा: शूद्रा: प्रकीर्तिता:।।
अर्थ-उच्च गोत्र, सज्जाति आदि कर्म शुक्ल ध्यान के कारण हैं। ये उच्च गोत्र, सज्जाति आदि कर्म जिनके होते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीन वर्ण हैं, इनके सिवाय सब शूद्र कहे गये हैं।
यज्ञोपवीत संस्कार के समय बालक को ब्रह्मचर्य व्रत दिया जाता है, जिससे उसका आत्मतेज प्रदीप्त होता है। विद्या अध्ययन के लिए, शारीरिक बल बढ़ाने के लिए तथा मंत्र-साधन आदि ऋद्धि-सिद्धि के लिए भी ब्रह्मचर्य परम आवश्यक है। इसके सिवाय जीवन को सच्चरित्र बनाने के लिए अन्य व्रत भी यज्ञोपवीत संस्कार के समय दिये जाते हैं।
यज्ञोपवीत संस्कार विधि ‘षोडशसंस्कार’ या ‘श्रावक संस्कार निर्देशिका’ पुस्तक से कराना चाहिए।
बालकों को यथा-नियत काल तक ब्रह्मचर्य धारण करने वालों को एक तथा गृहस्थों को दो यज्ञोपवीत धारण करना योग्य है।
यदि यज्ञोपवीत गिर जाये अथवा टूट जाये, तो अन्य एक दूसरा नवीन यज्ञोपवीत पहनना चाहिए। जनेऊ पहनते समय ‘‘ॐ नम: परमशान्ताय शान्तिकराय पवित्रीकृतार्ह रत्नत्रयस्वरूपयज्ञोपवीतं दधामि मम गात्रं पवित्रं भवतु अर्हं नम: स्वाहा’’ यह मंत्र पढ़ना है।
यज्ञोपवीत धारण करके ही भगवान के अभिषेक व पूजा का विधान है। यथा-
श्री पूज्यपादस्वामीकृत अभिषेक पाठ से-
ब्रह्मस्थानमिदं दिशावलयमप्येतन्पवित्रांकुशै-
रर्हद्ब्रह्ममहामहाध्वरविधिप्रत्यूहविध्वंसिभि:।
जैनब्रह्मजनैकभूषणमिदं यज्ञोपवीतं मया
विभ्राणेन महेन्द्रविभ्रमकरं संघार्यते मण्डनम्।।५।।
श्री गुणभद्राचार्य कृत अभिषेक पाठ से–
ॐ मतिनिर्मलमुक्ताफलललितं यज्ञोपवीतमतिपूतम्।
रत्नत्रयमिति मत्वा करोमि कलुषापहरणमाभरणम्।।१५।।
श्री अभयनंदि आचार्यकृत अभिषेक पाठ से-
पूर्वं पवित्रतरसूत्रविनिर्मितं यत्
प्रीत: प्रजापतिरकल्पयदङ्गसङ्गि।
सद्भूषणं जिनमहे निजकन्धरायां
यज्ञोपवीतमहमेष तदातनोमि।।४।।
श्री गजांकुशकविकृत अभिषेक पाठ से-
श्रीमन्मंदरसुन्दरे शुचिजलैर्धौते सदर्भाक्षते,
पीठे मुक्तिवरं निधाय रचितं तत्पादपुष्पस्रजा।
इंद्रोऽहं निजभूषणार्थममलं यज्ञोपवीतं दधे,
मुद्राकंकणशेखरानपि तथा जैनाभिषेकोत्सवे।।१।।
अन्य अभिषेक पाठ-
अतिनिर्मलमुक्ताफलललितं यज्ञोपवीतमतिपूतम्।
रत्नत्रयमिति मत्वा करोमि कलुषापहरणमाभरणम्।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय नम: स्वाहा।
(१) जिनेन्द्र देव के दर्शन प्रतिदिन करना।
(२) देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति करना।
(३) छना हुआ जल पीना।
(४) रात्रि में अन्न का भोजन न करना।
(५) उदंबर फल (बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, अंजीर) नहीं खाना।
(६) मांस, मदिरा (शराब), मधु (शहद) नहीं खाना।
(७) सप्त दुर्व्यसनों का त्याग करना।
(१) पेशाब-टट्टी आदि अशौच कर्म के समय जनेऊ को उच्च स्थान (कर्ण) में लगाना। भूल जाने पर नौ बार णमोकार मंत्र जपने से शुद्धि होती है।
(२) जनेऊ टूट जाने पर, सूतक और पातक आदि होने पर अशुद्ध हो जाता है। इसलिए नवीन जनेऊ पहनना और पुरानी जनेऊ को नदी आदि में डाल देना चाहिए।
(३) बिना जनेऊ के मनुष्य को श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा और पात्र दान करने का अधिकार नहीं है।
(४) जनेऊ पहनकर, महाव्रत धारण करने से पहले जनेऊ उतार देने से प्रतिज्ञा भंग का दोष लगता है।