बीसवीं शताब्दी में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज दक्षिण में हुये। इन्होंने पंचामृत अभिषेक को प्रमाणिक सिद्ध किया और अपने शिष्यों को करने का उपदेश ही नहीं, आदेश भी दिया। वे आचार्य देव स्वयं चर्या से पूर्व भगवान का पंचामृत अभिषेक देखकर गंधोदक लेकर ही आहार को उठते थे।मैं स्वयं सन् १९५५ में कुंथलगिरी में उन आचार्यदेव की यम सल्लेखना देखने के लिए गयी थी। वहां स्वयं देखा कि आचार्य श्री भगवान की प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक अंत तक देखते रहे हैं। जब भगवान की प्रतिमा को चंदन का विलेपन किया जाता, कटोरा भर चंदन लगाया जाता तो वे भावविभोर हो उठते और गद्गद्वाणी से स्तुति पढ़ते हुये पुलकित हो जाते थे। वहां प्रतिदिन अभिषेक की बोली होती थी और श्रावक बोली लेकर सपत्नीक अभिषेक करते थे।
उनके प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के श्री चरणों में मुझे लगभग दो वर्ष रहने का सौभाग्य मिला। उन्हीं के करकमलों से मैंने सन् १९५६ में वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन आर्यिका दीक्षा ग्रहण की थी। आचार्य- श्री प्रतिदिन प्रात: श्रीजी का पंचामृत अभिषेक देखते थे उस समय संघ के ब्रह्मचारी सूरजमल जी प्रमुख रहते थे। संघ के अन्य ब्रह्मचारीगण एवं ब्रह्मचारिणी बाईयाँ भी अभिषेक करती थीं।
उन्हीं के पट्टाचार्य श्री शिवसागर जी महाराज भी प्रतिदिन भगवान का पंचामृत अभिषेक देखते थे। उसी परंपरा में तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज भी प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक देखते थे। दिल्ली में लाल- मंदिर, दरियागंज स्थानों में भी सन् १९७४ में आचार्य श्री अपने विशाल संघ सहित ठहरे थे। वहां भी प्रतिदिन संघ के ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी वर्ग अभिषेक करके आचार्य श्री को दिखाते थे।इन्हीं आचार्य धर्मसागर जी के पट्ट पर आसीन हुये चतुर्थ पट्टाचार्य श्री अजितसागर जी महाराज भी अपने संघ सहित प्रतिदिन प्रात: भगवान का पंचामृत अभिषेक देखते थे। पंचम पट्टाचार्य श्री श्रेयांससागर जी महाराज प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक देखते थे।इन्हीं आचार्य शांतिसागर जी के शिष्यों में आचार्य श्री पायसागर जी, आचार्य श्री सुधर्मसागर जी, आचार्य श्री कुंथुसागर जी आदि आचार्य हुये हैं। ये सभी पंचामृत अभिषेक देखते थे। आ.कल्प चंद्रसागर जी महाराज तो इसके विशेष ही समर्थक प्रसिद्ध हुये हैं।
इसी प्रकार आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज भी प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक देखते थे। इनके शिष्य सन्मार्ग दिवाकर पूज्य आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज ने अपने विशाल संघ सहित सारे भारत में भ्रमण किया था। दक्षिण से उत्तर तक शायद ही उन्होंने कोई ग्राम या तीर्थ छोड़ा हो। इनके संघ में ब्र. चित्राबाई जी प्रतिदिन आहार से पूर्व आचार्यश्री को अभिषेक दिखाती थी पुन: गंधोदक लेकर आचार्यश्री आहार के लिए निकलते थे।ऐसे आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज भी प्रतिदिन अभिषेक देखते थे। आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी महाराज जाति से ओसवाल थे। ये दिगंबर बन गये, कट्टर तेरापंथी थे। पुन: आचार्य श्री वीरसागर जी द्वारा जयधवला पृष्ठ १०० का प्रमाण दिखाने पर प्रभावित होकर बीसपंथी श्रावक बनकर सन् १९५७ में इन्हीं आचार्यश्री से मुनि दीक्षा लेकर दिगंबर मुनि बन गये। आप भी बराबर पंचामृत अभिषेक देखते थे।वर्तमान में आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज, आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज, आचार्य श्री रयणसागर जी महाराज आदि भी बराबर पंचामृत अभिषेक देखते हैं। इनके संघों में जिनप्रतिमाएँ हैं।
आर्यिकाओं में आचार्य श्री शांतिसागर जी की शिष्या आ. चन्द्रमतीजी के संघ में भी जिनप्रतिमा थी वे भी अभिषेक देखती थीं। आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की शिष्या आर्यिका वीरमती जी भी प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक देखती थीं। आचार्य श्री वीरसागर जी की शिष्या इंदुमती जी भी प्रतिदिन अभिषेक देखती थीं। ये स्त्रियोें द्वारा अभिषेक करने के पक्ष में बहुत ही कट्टर थीं। इन्हीं के संघ में आ.सुपार्श्वमती जी भी पंचामृत अभिषेक के विषय में और स्त्रियों द्वारा अभिषेक करने के पक्ष में दृढ़ रही हैं।मैंने स्वयं सन् १९५६ से ही आचार्य श्री वीरसागर जी की आज्ञा से संघ में जिनप्रतिमा रखी थी। प्रतिदिन संघस्थ ब्रह्मचारिणियाँ पंचामृत अभिषेक करती थीं। सन् ६३ में कलकत्ते के चातुर्मास में ब्र. प्यारेलाल जी भगतजी ने भी मेरी विचारधाराओं को बहुमान दिया था।
ब्र. प्यारेलाल भगत (कलकत्ता निवासी) जैसे प्रबुद्ध लोगों ने जब जय- धवला ग्रंथ की पंक्तियां देखीं तब यही कहा कि, ‘‘वास्तव में जो आगम में है वही सही है। मध्य के युग में शिथिलाचार के हो जाने से श्रावकों में विवेक कम हो जाने से यह तेरापंथ चलाया गया है किंतु यह मनगढ़ंत ही है। फिर भी हम लोग केवल मंदिरों में और जनता में आपस में विसंवाद न हो, फूट न पड़े इसीलिए तेरापंथी बने हुये हैं।”आज तक भी मैंने गुरूपरंपरा को नहीं छोड़ा है। वास्तव में मैंने आचार्य श्री पूज्यपादस्वामी का पंचामृत अभिषेक पाठ देखकर अपनी श्रद्धा को मजबूत किया है।आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज की शिष्या गणिनी आर्यिका विजयमती जी भी पंचामृत अभिषेक प्रतिदिन कराती थीं।मेरी शिष्या आर्यिका जिनमती जी प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक देखती थीं। आर्यिका आदिमती जी भी पंचामृत अभिषेक देखती हैं। ये आदिमती जी अंगूरीबाई थीं संघ में मेरे पास आयी स्वयं ही आगमप्रमाण देखकर अभिषेक करने लगी थीं।आर्यिका विशुद्धमती जी आचार्य श्री शिवसागर जी की शिष्या थीं। ये सागर महिलाश्रम की संचालिका सुमित्राबाई तेरापंथी थीं। आचार्य श्री के करकमलों से दीक्षा लेते समय आचार्य श्री की आज्ञा से इन्होंने स्वयं संघस्थ जिनप्रतिमा का पंचामृत अभिषेक किया था।
आगमपंथ-यहां तक मैंने अनेक प्रमाण पंचामृत अभिषेक के, शासन देव-देवी के दिये हैं। इस दृष्टि से ये सब प्रमाण आगम सम्मत हैं। अत: पंचामृत अभिषेक करने-कराने वाले अथवा उसका उपदेश, आदेश देने वाले हम लोग साधु-साध्वी वर्ग आगमपंथी हैं। यह स्पष्ट दिख रहा है।
बीसपंथ-तेरापंथ-आजकल इन उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार पंचामृत अभिषेक आदि करने वालों को बीसपंथी कहा जाता है और इनसे अतिरिक्त मात्र जल से अभिषेक करने वाले तथा फल, फूल नहीं चढ़ाने वालों को तेरापंथ कहा जाता है। यद्यपि यह पंथ-भेद किसी भी आगम ग्रंथ में-प्राचीन शास्त्र या पुराणों में देखने को नहीं मिलता है फिर भी आज वर्तमान में प्रचलित है।