लघु सिद्धभक्ति-
समकित दर्शनज्ञान वीर्य, सूक्ष्मत्व तथा अवगाहन हैं।
अव्याबाध अगुरुलघु ये, सिद्धों के आठ महागुण हैं।।१।।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयमसिद्ध चरित सिद्धा।
ज्ञान सिद्ध दर्शन से सिद्ध, नमूँ सब सिद्धों को शिरसा।।२।।
अंचलिका-
हे भगवन् ! श्री सिद्धभक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसका।
आलोचन करना चाहूँ जो, सम्यग् रत्नत्रय युक्ता।।१।।
अठविध कर्म रहित प्रभु ऊर्ध्व-लोक मस्तक पर संस्थित जो।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयमसिद्ध चरित सिद्ध जो।।२।।
भूत भविष्यत् वर्तमान, कालत्रय सिद्ध सभी सिद्धा।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ भक्ति युक्ता।।३।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।४।।
लघु श्रुतभक्ति-
एक सौ बारह कोटि तिरासी, लाख अठावन सहस रु पाँच।
द्वादशांग श्रुत के पद इतने, वंदन करूँ नमाकर माथ।।१।।
अर्हत् कथित अर्थमय सम्यक्, गूँथा है गणधरगुरु ने।
उस श्रुतज्ञान जलधि को शिर से, प्रणमूँ भक्ति समन्वित मैं।।२।।
अंचलिका-
हे भगवन् ! श्रुत भक्ती कायोत्सर्ग किया उसके हेतु।
आलोचन करना चाहूँ जो, आंगोपांग प्रकीर्णक श्रुत।।
प्राभृतकं परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग पूर्वादिगत।
पंच चूलिका सूत्र स्तव, स्तुति अरु धर्म कथादि सहित।।
सर्वकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ भक्तियुत से।
ज्ञानफलं शुचि ज्ञान ऋद्धि, अव्यय सुख पाऊँ झटिति से।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय,हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।
लघु आचार्यभक्ति-
श्रुतसमुद्रपारंगत स्वमत व, परमत ज्ञाता कुशलमती।
सच्चरित्र तपनिधियुत गुणगुरु, हे गुरु! तुमको करूँ नती।।१।।
छत्तिस गुण से पूर्ण पाँच, आचार क्रिया के धारी हो।
शिष्य अनुग्रह निपुण धर्म-आचार्य सदा वंदूँ तुमको।।२।।
गुरुभक्ति संयम से तिरते, भव्य भयंकर भव वारिधि।
अष्टकर्म छेदें वे फिर नहिं, पाते जन्म मरण व्याधी।।३।।
व्रत अरु मंत्र होम में तत्पर, ध्यान अग्नि में हवन करें।
तपोधनी षट् आवश्यकरत, साधू उत्तम क्रिया धरें।।
शीलवस्त्रधर गुण आयुधयुत, सूर्यचंद्र से तेज अधिक।
मोक्षद्वार उद्घाटन योद्धा, साधु हों प्रसन्न मुझ प्रति।।४।।
ज्ञानदर्श के नायक गुरुवर, नित मेरी रक्षा करिये।
चरितजलधिगंभीर मोक्षपथ, उपदेशक पथ में धरिये।।५।।
अंचलिका-
हे भगवन् ! आचार्य भक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से।
उसके आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।
सम्यग्ज्ञान दरश चारित युत, पंचाचार सहित आचार्य।
आचारांग आदि श्रुतज्ञानी, उपाध्याय उपदेशक वर्य।।
रत्नत्रय गुण पालन में रत, सर्वसाधु का मैं हर्षित।
अर्चन पूजन वंदन करता, नमस्कार करता हूँ नित।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपति होवे।।
पुन: आचार्य देव को नमोऽस्तु करें।