सामायिक शब्द का निरुक्ति अर्थ-
सं य: स्वार्थनिवृत्यात्मनेंद्रियाणाभयोऽयनम् ।
समय: सामायिकं नाम स एव समताह्वयम्।।२०।।
समस्यारागरोषस्य सर्ववस्तुष्वयोऽयनम् ।
समाय: स्यात्स एवोक्तं सामायिकमिति श्रुते।।२१।।
सम:स्याद्रत्यख्याप्तिहेतुवस्तुसमो वमौ।
समस्यभाव: समता तोषरोषव्यपेतता।।
तत्परिणत नोआगम सामायिक का अर्थ-
समतोपेतचित्तो य: स तत्परिणताह्वय:।
प्रकृतोऽत्रायमन्यासु क्रियास्वेवं निरूपयेत्।।२२।।
सर्वव्यासंगनिर्मुक्त: संशुद्धकरणत्रय:।
धौतहस्तपदद्वन्द्व: परमानंदमंदिरम् ।।२३।।
चैत्यचैत्यालयादीनां स्तवनादौ कृतोद्यम: ।
भवेदनन्तसंसारसन्तानोच्छित्तये यति:।।२४।।युग्मम्।।
यथा निश्चेतनाश्चिन्तामणिकल्पमहीरुहा:।
कृतपुण्यानुसारेण तदभीष्टफलप्रदा:।।२५।।
तथाऽर्हदादयश्चास्तरागद्वेषप्रवृत्तय: ।
भक्तभक्त्यनुसारेण स्वर्गमोक्षफलप्रदा:।।२६।।
गरापहारिणी मुद्रा गरुडस्य यथा तथा।
जिनस्याऽप्येनसो हंत्री दुरितारातिपातिन:।।२७।।
सुमन: संगमादंगतीहसूत्रं पवित्रताम् ।
पिष्ट:प्रकृष्टमाधुर्यं प्रकृष्टेक्षुरसाद्यथा ।।२८।।
चंपापावादिनिर्वाणक्षेत्रादीनि पवित्रताम् ।
वंद्यतां च व्रजत्येव वंद्यसंगमतस्तथा ।।२९।। युग्मम् ।।
मत्वेति जिनगेहादिं त्रि:परीत्य कृतांजुलि: ।
प्रकुर्वंस्तच्चतुर्दिक्षु सत्र्यावर्त्तां शिरोनतिम् ।।३०।।
घोरसंसारगंभीरवारिराशौ निमज्जताम् ।
दत्तहस्तावलंबस्य जिनस्यार्चार्थमाविशेत् ।।३१ युग्मम् ।।
जिनेशतारकाधीशपादसंपादितोत्सव:।
श्रीलीलामंदिरस्वीयलोचनेन्दीवर: पुन:।।३२।।
ईर्याऽऽग: शुद्ध्यै व्यत्सर्गं कृत्वाऽऽसीनोऽनुकंपया।
आलोच्य समतांवर्यां कुर्यादात्मेच्छयाऽन्यदा।।३३।।युग्मं।।
लक्षणं समतादीनां पुरोक्तं किन्तु वर्ण्यते।
व्युत्सर्गावसरोच्छ्वाससंख्यानामादि साम्प्रतम्।।३४।।
क्रियायामस्यां व्युत्सर्गं भक्तेरस्या: करोम्यहम्।
विज्ञाप्येति समुत्थाय गुरुस्तवनपूर्वकम्।।३५।।
कृत्वा करसरोजातमुकुलालंकृतं निजम् ।
भाललीलासर: कुर्यात् त्र्यावर्त्तां शिरसो नतिं।।३६।।
आद्यस्य दंडकस्यादौ मंगलादेरयं क्रम: ।
तदन्तेऽप्यंगव्युत्सर्ग: कार्योतस्तदनन्तरम् ।।३७।।
कुर्यात्तथैव ‘‘थोस्सामी’’ त्याद्यार्याद्यंतयोरपि ।
इत्यस्मिन् द्वादशावर्त्ता: शिरोनतिचतुष्टयम् ।।३८।।युग्मं।।
ग्रंथारंभे समाप्तौ च स्वाध्याये स्तवनादिषु ।
सप्तविंशतिरुच्छ्वासा व्युत्सर्गे दुर्मनस्यपि।।३९।।
व्रतेत्वन्यनमस्याऽतिचारशुद्धेर्दिनस्य च।
स्यान्प्रतिक्रमणोऽष्टाग्रशतं रात्र्यास्तु तद्दलम्।।४०।।
पाक्षिके त्रिशतं चातुर्मासिके स्याच्चतु: शतम्।
शतानिपंच संवत्सरस्य षट्सु क्रियान्तगे।।४१।।
पंचविंशतिरुच्छ्वासा गोचरेर्यातिचारयो:।
जिनसाधुनिषद्यानां विण्मूत्रोत्सर्जनैनसि।।४२।।
देवतास्तवने भक्तिचैत्यपंचगुरूभयो:।
चतुर्दश्यां तयोर्मध्ये श्रुतभक्तिर्विधोयते।।४३।।
त्रिशुद्धौ द्वादशावर्त्ते द्विनिषण्णे चतुर्नतौ।
बद्धांजुलौ त्यजेद्दोषान् कृतिकर्मव्रजेऽप्यमून्।।८७।।
सामायिक शब्द का निरुक्ति अर्थ-
अन्वयार्थ-(सं) सम्यक् प्रकारेण (आत्मना) अपनी आत्मा के साथ (इन्द्रियाणां) इन्द्रियों को (स्वार्थनिवृत्य) अपने अपने विषयों से विमुख करके (अय:) अय शब्द का अर्थ (अयनं) प्रवृति (स:) वह (समय:) समय है। (सामायिकं) समय का भाव सामायिक है (स:) वह (एवं) ही (समताह्वयं) समता है।
भावार्थ-‘सम’ का अर्थ इन्द्रियोें को अपने-अपने विषयों में निवृत्त करके ‘अय’ अपने आप में लीन होना है। अर्थात् बाह्यमुखी प्रवृत्ति को छोड़कर अन्तर्मुखी प्रवृत्ति करना समय है और समय का भाव सामायिक है। सामायिक का ही नाम समता है।।२०।।
अन्वयार्थ-(सर्ववस्तुषु) सर्व वस्तुओं में (समस्य) सम का अर्थ (अरागरोषस्य) राग-द्वेष रहित (अय:) अय का अर्थ (अयनं) गमन (समाय:) सामायिक (स्यात्) है। (स:) वह (एव) ही (श्रुते) श्रुत में (सामायिकं) सामायिक (इति) इसप्रकार (उक्तं) कहा है।
भावार्थ-सर्व वस्तुओं में रागद्वेष की निवृत्ति करके अपने आप में रमण करना श्रुत में सामायिक कहा गया है। ‘सम’ शब्द का अर्थ रागद्वेष रहित ‘अय’ का अर्थ अपने में लीन होना उसी का नाम समय है और समय का भाव सामायिक है।।२१।।
श्लोकार्थ-एक प्रति में यह श्लोक भी है-सर्व द्रव्य में रति अरति का भाव सम है और अपने में प्रवृत्ति का नाम ‘‘अय’’ है। उसी रागद्वेष रहित प्रवृति का नाम समता वा सामायिक है।
तत्परिणत नो आगम सामायिक का अर्थ-
अन्वयार्थ-(य:) जो (समतोपेतचित्त:) समता से उपयुक्त चित्त है जिसका (स:) वह (तत्परिणताह्वय) तत्परिणत नाम नोआगम भाव सामायिक है। (अत्र) इस सामायिक में (अयं) यह (प्रकृत:) प्रकरण है वह (अन्यासु) अन्य (क्रियासु) क्रियाओं में (एवं) इस प्रकार (निरूपयेत्) निरुपण करना चाहिये ।
अन्वयार्थ-(सर्वव्यासंगनिर्मुक्त:) सर्व व्यापार से रहित (संशुद्धकरणत्रय:) शुद्ध मन वचन काय वाला (धौतहस्तपदद्वन्द्व:) धोये हैं हाथ पैर जिसने (परमानंद-मंदिरम्) परमानन्द का मन्दिर (यति:) साधु (अनन्तसंसारसन्तानोच्छित्तये) अनन्त संसार के संतान का छेद करने के लिये (चैत्यचैत्यालयादीनां) चैत्य चैत्यालय आदि के (स्तवनादौ) स्तवन आदि में (कृतोद्यम:) उद्यम करने वाला (भवेत्) हो।
भावार्थ-सर्व व्यापार से रहित, शुद्धमनवचनकाय से युक्त, परम आनन्द में लीन साधु, हाथ पैर धोकर अनन्त संसार की संतति का छेद करने के लिये चैत्य (जिनप्रतिमा)चैत्यालय आदि के स्तवन करने में तत्पर होवे अर्थात् परम भक्ति से जिन भगवान् की स्तुति करे ।।२३,२४।।
अन्वयार्थ-(यथा) जैसे (निश्चेतना:) अचेतन (चिंतामणिकल्पमहीरुहा:) चिंतामणि कल्पवृक्ष (कृतपुण्यानुसारेण) किये हुये पुण्य के अनुसार (तदभीष्ट-फलप्रदा:) उस अभीष्ट फल को देने वाले होते हैं (तथा) उसी प्रकार (अस्तराग-प्रवृत्तय:) नष्ट हो गई है रागद्वेष प्रवृत्ति जिसकी ऐसे (अर्हदादय:) अर्हद् आदि (भक्तभक्त्यनुसारेण) भक्त की भक्ति के अनुसार (स्वर्गमोक्षफलप्रदा:) स्वर्ग मोक्ष के फल देने वाले होते हैं।
भावार्थ-जिस प्रकार अचेतन चिंतामणि और कल्पवृक्ष पुण्य के अनुसार अभीष्ट फल को देने वाले होते हैं उसी प्रकार वीतरागी अरहंत देव की प्रतिमा आदि भक्त की भक्ति के अनुसार स्वर्ग, मोक्ष के फल को देने वाले होते है।।२५,२६।।
अन्वयार्थ-(यथा) जैसे (गरुडस्य) गरुड की (मुद्रा) मुद्रा (गरापहारिणी) विष को हरने वाली होती है (तथा) उसीप्रकार (दुरुतारातिपातिन:) पाप रूपी शत्रुओं का नाशक (जिनस्य) जिन भगवान् की (मुद्रा) मुद्रा (अपि) भी (एनस:) पापों की (हंत्री) नाश करने वाली होती है।
भावार्थ-जिस प्रकार गरुड़ की मुद्रा विष को हरण करने वाली होती है उसी प्रकार जिनेन्द्रदेव की मुद्रा पाप नाशक होती है।।२७।।
अन्वयार्थ-(यथा) जैसे (इह) इस लोक में (सुमन:) फूल के (संगमात्) संगम से (सूत्रं) सूत्र धागा (पवित्रतां) पवित्रता को (अंगति) प्राप्त होता है (प्रकृष्टेक्षुरसात्) प्रकृष्ट इक्षुक रस के संयोग से (पिष्ट:) पिष्ट (आटा) (प्रकृष्टमाधुर्यं) प्रकृष्ट मधुरता को प्राप्त होता है (तथा) उसी प्रकार (चंपापावादिनिर्वाणक्षेत्रादीनि) चंपापुर, पावापुर, आदि निर्वाण क्षेत्र (वंद्यसंगमत:) पूज्य पुरुषों के संगम से (पवित्रतां) पवित्रता (च) और (वंद्यतां) वंदनीयता को (व्रजत्येव) प्राप्त होते हैं।
भावार्थ-जैसे पुष्प के संबंध से सूत्र पवित्रता को प्राप्त होता है, इक्षुरस के संयोग से गेहूँ आदि का चूर्ण मधुरता को प्राप्त होता है उसीप्रकार पूज्य पुरुषों के संयोग से चंपापुर ,पावापुर , सम्मेदशिखर आदि निर्वाण क्षेत्र पवित्र और वंदनीयता को प्राप्त हुये हैं ।।२८,२९।।
अन्वयार्थ-(इति) ऐसा (मत्वा) मानकर (जिनगेहादिं) जिनमंदिर आदि को (त्रि:परीत्य) तीन प्रदक्षिणा देकर (कृतांजुलि:) की है अंजुलि जिसने ऐसा (तच्चतुर्दिक्षु) उस जिनमंदिर की चारों दिशाओं में (सत्र्यावर्तां)तीन आवर्त्त सहित (शिरोनतिं) शिरोनति को (प्रकुर्वन् ) करता हुआ (घोरसंसारगंभीरवारिराशौ) घोर संसाररूपी गंभीर समुद्र में (निमज्जतां) डूबे हुए प्राणियों को (दत्तहस्तावलंबस्य) दिया है हस्तावलंबन जिसने ऐसे (fिजनस्य) जिनेन्द्र भगवान् की (अर्चार्थं) पूजा करने के लिये (अविशेत्) प्रवेश करे ।
भावार्थ-ऐसा जान करके जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणा देकर,हाथ जोड़कर, चारो दिशाओं में तीन आवर्त सहित नमस्कार करके घोर संसाररूपी समुद्र में डूबे हुये संसारी प्राणियों को हस्तावलंबन देने वाले जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने के लिए जिनमंदिर में प्रवेश करे ।।३०,३१।।
अन्वयार्थ-(जिनेशतारकाधीशपादसंपादितोत्सव:) जिनेन्द्र भगवान रूपी चंद्रमा के पाद (किरण और चरण) से संपादित है उत्सव जिसके (श्री लीलामंदिर-स्वीयलोचनेन्दीवर:) लक्ष्मी की लीला का मंदिर ही है निज लोचनरूपी कमल जिसके ऐसा संयमी (पुन:) फिर (ईर्याग:) ईर्यापथ के पापोें की (शुद्ध्यै:) शुद्धि के लिये (व्युत्सर्गं) कायोत्सर्ग (कृत्वा) करके (आसीन:) बैठा हुआ (अनुकम्पया) अनुकम्पा से (आलोच्य) आलोचना करके (अन्यदा) अन्यदा (आत्मोच्छया) अपनी इच्छा से (वर्यां) श्रेष्ठ (समतां) सामायिक को (कर्यात्) करे ।
भावार्थ-जिनेन्द्र भगवान् रूपी चंद्रमा के पाद (किरण चरण) से आनन्दित है लक्ष्मी के निवासभूत नेत्ररूपी कमल जिसके ऐसा संयमी प्रथम मंदिर में प्रवेश करके ईर्यापथ शुद्धि के लिये ‘‘पडिकम्मामि भंते’’ इत्यादि प्रतिक्रमण पढ़ कर कायोत्सर्ग करे । तदनन्तर बैठकर जीवघात से भयभीत होता हुआ अनुकम्पा से (इच्छामि भन्ते) इत्यादि आलोचना पढ़ कर अपनी इच्छा से उत्तम समता को स्वीकार करे ।।३२-३३।।
अन्वयार्थ– (पुरा) पूर्व में (समतादीनां) समतादि का (लक्षणं) लक्षण (उक्तं) कहा है (किन्तु) परन्तु (साम्प्रतं) इस समय (व्युत्सर्गावसरोच्छ्वास-संख्यानामादि) उत्सर्ग काल के उच्छ्वासों की संख्याओं का (वर्ण्यते) वर्णन किया जाता है।भावार्थ-यद्यपि प्रथम अधिकार के छत्तीस श्लोक के द्वारा सामायिक लक्षण कहा है तथापि इस समय कायोत्सर्ग के काल के श्वासोच्छ्वास की संख्याओं का वर्णन करते हैं।।३४।।
अन्वयार्थ-(अस्यां) इस (क्रियायां) क्रिया में (अस्या:) इस (भक्ते:) भक्ति का (व्यत्सर्गं) कायोत्सर्ग (अहं) मैं (करोमि) करता हूं (इति) इस प्रकार (विज्ञाय) विज्ञापन करके (समुत्थाय) उठकर (गुरुस्तवनपूर्वकम्) गुरु स्तवन पूर्वक (निजं) अपने (करसरोजातमुकुलालंकृतं) हस्त कमल की कुड्मलाकृति को (भाललीलासर:) ललाट पर (कृत्वा) करके (त्र्यावर्त्तां) तीन आवर्त और (शिरस:) मस्तक से (नतिं) नमस्कार को (कुर्यात्) करे ।
भावार्थ-मैं इस क्रिया में इस भक्ति का कायोत्सर्ग करता हूं। जैसे-पौर्वाह्निक देववंदना में ‘‘चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ इस प्रकार विज्ञापन करे। तदनंतर उठकर ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि पंचपरमेष्ठी को नमस्कार कर अपने कर कमल की अंजुलि को मस्तक पर रखकर तीन आवर्त सहित नमस्कार करे ।।३५-३६।।
अन्वयार्थ-(आद्यस्य) आदि (दंडकस्य) दंडक के (आदौ) आदि में (मंगलादे:) मंगलादि का (अयं) यह (क्रम:) क्रम है । (तदन्ते) चत्तारिमंगलं आदि दंडक के अन्त में (अपि) भी (अंगव्युत्सर्ग:) कायोत्सर्ग (कार्य:) करना चाहिये। (अत:) इसलिए (तदनन्तरं) इसके बाद (तथैव) उसी प्रकार (थोस्सामि) थोस्सामि (इत्यादि) इत्यादि पाठ (कुर्यात्) करे (इति) इस प्रकार (अस्मिन्) कायोत्सर्ग में (आर्याद्यन्तयो:) आर्या छंद-थोस्सामि स्तवन के आदि और अन्त में (अपि) भी (द्वादशावर्त्ता:) बारह आवर्त (शिरोनतिचतुष्टयं) चार शिरोनति (कुर्यात्) करना चाहिये ।
भावार्थ-एक भक्ति के दंडक की आदि में मंगलादि का यही क्रम है अर्थात् भक्तिपूर्वक क्रिया और भक्ति का विज्ञापन करे । एक शिरोनति और तीन आवर्त्त करके दंडक पढ़े । दंडक के बाद एक शिरोनति और तीन आवर्त्त करके कायोत्सर्ग करे । तदनन्तर एक शिरोनति और तीन आवर्त्त करे । इस प्रकार एक कायोत्सर्ग में चार शिरोनति और बारह आवर्त्त करना चाहिये ।।३७-३८।।
अन्वयार्थ-(स्वाध्याये) स्वाध्याय में (च) और (स्तवनादिषु) स्तवन आदि में (दुर्मनसि अपि) विकृति परिणाम के होने पर भी (व्युत्सर्गे) कायोत्सर्ग में (सप्तविंशति:) सत्ताईस (उच्छ्वास:) उच्छ्वास हैं।
भावार्थ-ग्रन्थ के आरम्भ, समाप्ति, स्वाध्याय, पंचपरमेष्ठी की वन्दना और दुर्भावना के कायोत्सर्ग में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करना चाहिए ।।३९।।
अन्वयार्थ– (व्रतेषु) व्रतों में (अन्यतमस्य) किसी भी (अतिचारशुद्धे:) अतिचार की शुद्धि के लिये (च) और (दिनस्य) दैवसिक (प्रतिक्रमणे) प्रतिक्रमण में (अष्टाग्रशतं) एक सौ आठ श्वासोच्छ्वास (तु) और (रात्र्या:) रात्रि के प्रतिक्रमण में (तद्दलं) उससे आधा अर्थात् चौवन श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग (स्यात्) होता है।
भावार्थ-व्रतों में अतिचार होने पर दैवसिक प्रतिक्रमण में १०८ श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करना चाहिये तथा रात्रिक प्रतिक्रमण में ५४ श्वासोच्छ्वासों में कायोत्सर्ग करना चाहिये।।४०।।
अन्वयार्थ-(पाक्षिके) पाक्षिक प्रतिक्रमण में (त्रिशत) तीन सौ (चातुर्मासिके) चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में (चतु:शतं) चार सौ (संवत्सरस्य) वार्षिक प्रतिक्रमण में (पंच) पांच (शतानि) सौ (षट्षु) छह प्रकार के प्रतिक्रमणों में (क्रियांतगे) प्रतिक्रमण भक्ति के अन्त में (जिनसाधुनिषद्यानां) जिनेन्द्र भगवान की साधुओं की निषद्या के (गोचरेर्यातिचारयो:) गमनागमन के अतिचार के प्रतिक्रमण में (विण्मूत्रोत्सर्जनैनसि) मल मूत्र के विसर्जन के पाप में (पंचविंशति) पच्चीस (उच्छ्वासा) श्वासोच्छ्वास होते हैं।
भावार्थ-पाक्षिक प्रतिक्रमण में तीन सौ श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करना चाहिये । चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करना चाहिए । वार्षिक प्रतिक्रमण में पांच सौ श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करना चाहिये । छह प्रकार प्रतिक्रमणभक्ति के अन्त में पच्चीस श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करना चाहिये। आहार करने के बाद पच्चीस श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करना चाहिये । जिन साधुओं की निषद्या, तीर्थयात्रादि के गमनागमन और मलमूत्र के विसर्जन में भी पच्चीस श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करना चाहिये । ।।४१,४२।।
अन्वयार्थ- (देवतास्तवने) देवताओं के स्तवन में (चैत्यपंचगुरूभयो:) चैत्य और पंचगुरु की (भक्ति) भक्ति (चतुर्दश्यां) चतुर्दशी के दिन (तयो:) चैत्य,पंचगुरुभक्ति के (मध्ये) मध्य में (श्रुतभक्ति:) श्रुतभक्ति (विधीयते) की जाती है।
भावार्थ-त्रिकाल देववन्दना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति पढ़नी चाहिये । चतुर्दशी के दिन चैत्यभक्ति, श्रुतभक्ति और पंचगुरुभक्ति करनी चाहिये ।।४३।।
अन्वयार्थ-(त्रिशुद्धौ) मन, वचन, काय की शुद्धि (द्वादशावर्त्ते) बारह आवर्त्त (द्विनिषण्णे) दो निषद्या (चतुर्नतौ) चार शिरोनति (बद्धांजुलौ) बद्धांजुलि स्वरूप (कृतिकर्मव्रजे) कृतिकर्म के समूह में (अपि) भी (अमून्) इन (दोषान्) दोषों को (त्यजेत्) छोड़े ।
भावार्थ-मन, वचन, काय की शुद्धि ,बारह आवर्त्त, द्विनिषद्या, चार शिरोनति पूर्वक अंजुलि जोड़कर कृतिकर्म करना चाहिये । इस कृतिकर्म में भी बत्तीस दोष होते हैं उनको छोड़ना चाहिये ।।८७।।