अधुना सामायिकगुणसम्पन्नत्वं श्रावकस्य प्ररूपयन्नाह-
चतुरावर्त्तत्रितयश्चतु:प्रणाम: स्थितो यथाजात: ।
सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।।१८।।
सामयिक: समयेन प्राक्प्रतिपादितप्रकारेण चरतीति सामायिकगुणोपेत: । किंविशिष्ट:? चतुरावर्तत्रितय: चतुरो वारानावर्तत्रितयं यस्य । एकैकस्य हि कायोत्सर्गस्य विधाने ‘णमो अरहंताणस्य थोस्सामे’-श्चाद्यन्तयो: प्रत्येकमावर्तत्रितयमिति एकैकस्य हि कायोत्सर्गविधाने चत्वार आवर्ता तथा तदाद्यन्तयोरेवैकप्रणामकरणाच्चतु: प्रणाम: स्थित ऊर्ध्वं कायोत्सर्गोपेत: । यथाजातो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहचिन्ताव्यावृत्त:। द्विनिषद्यो द्वे निषद्ये उपवेशने यस्य । देववन्दनां कुर्वता हि प्रारम्भे समाप्तौ चोपविश्य प्रणाम: कर्तव्य: । त्रियोगशुद्ध: त्रयो योगा मनोवाक्कायव्यापारा: शुद्धा सावद्यव्यापाररहिता यस्य । अभिवन्दी अभिवन्दत इत्येवंशील: । कथं ? त्रिसंध्यं ।।१८।।
जिणवणयधम्मचेइयपरमेट्ठिजिणालयाण णिच्चं पि।
जं वंदणं तियालं कीरइ सामायियं तं खु१ ।।
अब वह श्रावक सामायिक गुण से संपन्न होता है, यह कहते हैं-
चतुरावर्तेति-(य:) जो (चतुरावर्तत्रितय:) चार बार तीन तीन आवर्त करता है, (चतु:प्रणाम:) चार प्रणाम करता है, (स्थित:) कायोत्सर्ग से खड़ा होता है, (यथाजात:) बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्यागी होता है, (द्विनिषद्य:) दो बार बैठकर नमस्कार करता है (त्रियोगशुद्ध:) तीनों योगों को शुद्ध रखता है और (त्रिसन्ध्यं) तीनों सन्ध्याओं में (अभिवन्दी) वन्दना करता है (स:) वह (सामायिक:) सामायिक प्रतिमाधारी है।
टीकार्थ-इस श्लोक में सामायिक प्रतिमा का लक्षण बतलाते हुए उसकी विधि का भी निर्देश किया गया है। सामायिक करने वाला पुरुष एक-एक कायोत्सर्ग के बाद चार बार तीन-तीन आवर्त करता है, अर्थात् प्रत्येक दिशा में ‘णमो अरहंताणं’ इस आद्य सामायिक दण्डक और ‘थोस्सामि हं’ इस अन्तिम स्तव दण्डक के तीन-तीन आवर्त और एक-एक प्रणाम इस तरह बारह आवर्त और चार प्रणाम करता है। श्रावक इन आवर्तादिक की क्रियाओं को खड़े होकर करता है, सामायिक की अवधि के भीतर यथाजात-नग्नमुद्राधारी के समान बाह्याभ्यन्तर परिग्रह की चिन्ता से दूर रहता है। ‘देववन्दना’ करने वाले को प्रारम्भ में और समाप्ति में बैठकर प्रणाम करना चाहिये, इस विधि के अनुसार दो बार बैठकर प्रणाम करता है अर्थात् सामायिक प्रारम्भ करने के लिये प्रथम बार कायोत्सर्ग कर तीन आवर्त करता है, उसके बाद बैठकर पृथ्वी में शिर झुकाता हुआ नमस्कार करता है और सामायिक के बाद कायोत्सर्ग करता है, उसके बाद भी बैठकर पृथ्वी में शिर झुकाता हुआ नमस्कार करता है। तीनों योगों को शुद्ध रखता है अर्थात् वह सावद्य व्यापार का त्याग करता है और तीनों संध्याओं में वन्दना करता है।
विशेषार्थ-सामायिक प्रतिमा वाले को तीनों संध्यायों-प्रात:काल, मध्याह्नकाल और सायंकाल में वन्दना करने की बात कही गई है। समन्तभद्रस्वामी ने ’त्रिसन्ध्यमभिवन्दी‘ इस पद के द्वारा यह भाव स्पष्ट किया है और वसुनन्दि आदि आचार्यों ने –
इस गाथा द्वारा लिखा है कि जिनवचन-जिनशास्त्र, जिनधर्म, जिनचैत्य, परमेष्ठी जिनालयों की तीनों काल में जो वन्दना की जाती है उसे सामायिक कहते हैं।
सामायिक करने वाला पुरुष पूर्वादि दिशाओं में खड़ा होकर जो आवर्त तथा नमस्कार करता है वह उन दिशाओं में स्थित जिनप्रतिमाओं तथा चैत्यालय आदि को लक्ष्य करके ही करता है। नमस्कार, प्रदक्षिणा-परिक्रमापूर्वक होता है, इसलिए परिक्रमा की विधि को सम्पन्न करने के लिए तीन-तीन आवर्त करता है अर्थात् दोनों हाथों को कमलमुकुलाकार कर प्रदक्षिणारूप से घुमाता है। इस वन्दना के पहले वह पूर्व या उत्तरदिशा की ओर मुखकर खड़ा होता है और निम्नलिखित सामायिकदण्डक पढ़कर २७ उच्छ्वास में नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़ता हुआ कायोत्सर्ग करता है।