सामायिक अथवा देववन्दना के समय संयतों और देश-संयतों को कृति-कर्म करना चाहिये । पाप कर्मों को छेदने वाले अनुष्ठान को कृति-कर्म कहते हैं अर्थात् जिन क्रियाओं से पाप कर्मों का नाश हो वह कृति-कर्म है। इस कृतिकर्म के सात भेद हैं। यथा-
योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनति ।
विनयेन यथाजात: कृतिकर्मामलं भजेत्।।१।।
अर्थात्-योग्य काल, योग्यआसन, योग्यमुद्रा, योग्यआवर्त, योग्यशिर ये सात कृति-कर्म हैं। इसको नग्न-मुद्राधारी संयत, बत्तीस दोष रहित , विनयपूर्वक करे ।।१।।