विविक्त: प्रासुकस्त्यक्त: संक्लेशक्लेशकारणै:।
पुण्यो रम्य: सतां सेव्य: श्रेयो देश: समाधिचित्।।४।।
अर्थात्-विविक्त-जिसमें अशिष्ट जन का संचार न हो , जो प्रासुक-सम्मूर्छन जीवों से रहित हो, संक्लेशकरण-रागद्वेष आदि से और क्लेशकारण-परीषहरूप उपसर्ग से रहित हो, पुण्य-वन, भवन,चैत्यालय,पर्वत की गुफा सिद्धक्षेत्रादि रूप हो, रम्य-चित्त को प्रफुल्लित करने वाला हो , मुमुक्षु पुरुषों के सेवन करने योग्य हो और प्रशस्त ध्यान को बढ़ाने वाला हो ऐसे देश की वन्दना करने वाला साधु वन्दना की सिद्धि के लिये आश्रय ले ।।४।।