त्रिसन्ध्यं वन्दने युञ्ज्याश्चैत्यपंचगुरुस्तुती।
प्रियभक्तिं बृहद्भक्तिष्वन्ते दोषविशुद्धये ।।१।।
तथा-
जिणदेववन्दणाए चेदियभत्ती य पञ्चगुरुभत्ती ।।१/२।।
ऊनाधिक्यविशुद्ध्यर्थं सर्वत्र प्रियभक्तिका ।।१/२।।
तीनों सन्ध्या सम्बन्धी जिनवन्दना में चैत्यभक्ति और पञ्चगुरुभक्ति तथा सभी बृहद्भक्तियों के अन्त में वन्दनापाठ की हीनाधिकता रूप दोषों की विशुद्धि के लिये प्रियभक्ति-समाधिभक्ति करना चाहिये ।
इस देववन्दना में छह प्रकार का कृतिकर्म भी होता है। यथा-
स्वाधीनता परीतिस्त्रयी निषद्या त्रिवारमावर्ता:।
द्वादश चत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोढेष्टम्।।२।।
तथा-
आदाहीणं, पदाहिणं, तिक्खुत्तं, तिऊणदं, चदुस्सिरं वारसावत्तं, चेदि ।
(१) वन्दना करने वाले की स्वाधीनता, (२) तीन प्रदक्षिणा, (३) तीन भक्ति सम्बन्धी तीन कायोत्सर्ग (४) तीन निषद्या-ईर्यापथ कायोत्सर्ग के अनन्तर बैठ कर आलोचना करना और चैत्यभक्ति संबंधी क्रिया विज्ञापन करना १, चैत्यभक्ति के अन्त में बैठकर आलोचना करना और पञ्चमहागुरुभक्ति संबंधी क्रिया विज्ञापन करना २, पञ्चमहागुरुभक्ति के अन्त में बैठ कर आलोचना करना , (५) चार शिरोनति,
(६) और बारह आवर्त । यही सब आगे बताया गया है ।