तुंगी चूलियसिहरो ण विलग्गइ उडुविमाणणामस्स।
तलभागे णायव्वा बालपमाणेण णिद्दिट्ठा।।१३६।।
उत्तरकुरुमणुयाणं कोमलसुकुमालणिद्धवण्णेण।
सिहरितलमज्झभागे केसेण दु अंतरं होइ।।१३७।।
पंडुकसिला वि णेया कणयमया विविहरयणसंछण्णा।
पुव्वुत्तरम्मि भागे इंदाउहसंणिहा होइ।।१३८।।
दक्खिणपुव्वदिसाए पंडुकवरकंबला सिला होइ।
कुंEिददुसंखवण्णा अट्ठमिससिसंणिभा रम्मा।।१३९।।
दक्खिणपच्छिमभागे जासवणणिभा दु इंदधणुसरिसा।
णामेण रत्तकंबलमहासिला होइ णायव्वा।।१४०।।
उत्तरपच्छिमभागे सुिंरदधणुसंणिभा परमरम्मा।
रत्तसिला णायव्वा तवणिज्जणिभा समुद्दिट्ठा।।१४१।।
पंचसया आयामा वित्थार तदद्ध होंति णिद्दिट्ठा।
चत्तारि जोयणाइं उत्तुंगाओ वरसिलाओ।।१४२।।
अइउज्जलरूवाओ वरतोरणमंडियाओ दिव्वाओ।
वरवेदियजुत्ताओ मणिरयणफुरंतकिरणाओ।।१४३।।
एगेगसिलापट्टे सिंहासण तिण्णि णिद्दिट्ठा।
मणिकंचणपरिणामा णिम्मलससिकंतकिरणोहा।।१४४।।
पंचधणुस्सयतुंगा आयामा ते हवंति पंचसया।
विक्खंभेण य णेया अड्ढादिज्जा धणुसदाणि।।१४५।।
पुव्वाभिमुहा सव्वा सिदादवत्ता सचामराडोवा।
मज्झेसु होंति दिव्वा िंसहासण जिणवरिंदाणं।।१४६।।
सोहम्मीसाणाणं इंदाणं होंति दोसु पासेसु।
दाहिणवामदिसाए जहाकमेणं समुद्दिट्ठा।।१४७।।
ईसाणदिसाभागे भरहजििंणदाण दिव्वदेहाणं।
पंडुकासिलातले तह जम्मणमहिमा समुद्दिट्ठा।।१४८।।
अवरविदेहाण तहा वरपंडुयकंबलम्मि धूमदिसे।
वररत्तकंबलम्मि दु णेरदि एरावदाणं तु।।१४९।।
वाउदिसे रत्तसिला पुव्वविदेहाण जिणविंरदाणं।
जम्मणमहिमा मेरुप्पदाहिणेणं तु गंतूणं।।१५०।।
ससुरासुरदेवगणा आगंतूणं महाविभूदीए।
िंसहासणेसु दिव्वा जम्मणमहिमं पकुव्वंति।।१५१।।
संखवरपडहमणहरिंसहणिणाएहि घंटसद्देहि।
भवणवइवाणविंतरजोइसकप्पाहिवा देवा।।१५२।।
पाऊण जिणुप्पत्तिं हरिसेहि महाविभूदिजुत्तेहि।
आगच्छंति सुरवरा छायंता णहयलं सयलं।।१५३।।
इंदो वि महासत्तो तीहि य परिसाहिं सत्तअणियाहि।
गयवरखंधारूढो एइ महाइड्ढिसंपण्णो।।१५४।।
रविससिजदु त्ति णामा परिसाणं महदरा समुद्दिट्ठा।
अब्भंतरमज्झिमबाहिराण कमसो मुणेयव्वा।।१५५।।
बारसयसयसहस्सा अब्भंतरपारिसा सुरा होंति।
चउदसयसयसहस्सा मज्झिमपरिसा समुद्दिट्ठा।।१५६।।
सोलसयसयसहस्सा बाहिरपरिसासुराण परिसंखा।
सव्वे वि दिव्वरूवा णाणाविहपहरणाभरणा।।१५७।।
तिण्णि वि परिसा कहिया एत्तो सत्ताणिया पवक्खामि।
सोहम्मकप्पवासीइंदस्स महाणुभावस्स।।१५८।।
वसभरहतुरयमयगलणच्चणगंधव्वभिच्चवरगाणं।
सत्ताणीया दिट्ठा सत्तहि कच्छाहि संजुत्ता।।१५९।।
चुलसीदिसयसहस्सा वरवसभा संखकुंदसंकासा।
पढमाए कच्छाए पुरदो गच्छंति लीलाहिं।।१६०।।
अडसट्ठिसयसहस्सा एया कोडी हवंति वरवसभा।
जासवणकुसुमवण्णा मणिरयणविहूसिया बिदिए।।१६१।।
तिण्णेव य कोडीओ छत्तीसा सयसहस्स वरवसहा।
णीलुप्पलसंकासा तदियाकच्छम्मि णिद्दिट्ठा।।१६२।।
छच्चेव य कोडीओ बाहत्तरिसयसहस्स वरवसहा।
मरगयमणिकिरणोहा चउत्थकच्छट्ठिया जंति।।१६३।।
तेरह तह कोडीओ चउदाला सयसहस्स वरवसहा।
कणयणिभा विण्णेया पंचमकच्छम्हि णिद्दिट्ठा।।१६४।।
छव्वीसा कोडीओ अट्ठासीदा य सयसहस्साणि।
छट्ठमकच्छे दिट्ठा भिण्णंजणसच्छहा बसभा।।१६५।।
तेवण्णा कोडीओ छावत्तरि सयसहस्स वरवसभा।
सत्तमकच्छे दिट्ठा िंकसुयकुसुमप्पभा णेया।।१६६।।
मज्झे मज्झे तेिंस वज्जंतमहंततूरणिग्घोसं।
जिणजम्मणमहिमाए वसभाणीया समुच्छरिया।।१६७।।
घंटािंककिणिणिवहा वरचामरमंडिया मणभिरामा।
मणिकुसुममालपउरा अणोवमा रूवसंपण्णा।।१६८।।
वरकोमलपल्लाणा देवकुमारेहि वाहमाणा ते।
सोहंति दु गच्छंता चलंतधरणीहरा चेव।।१६९।।
कोडीसय छब्भहिया अडसट्ठा लक्ख होंति णिद्दिट्ठा।
सत्तविभागाण तहा वसभाणीयाण परिसंखा।।१७०।।
रूवूणअट्ठ विरलिय दो दो दाऊण तेसु रूवेसु।
अण्णोण्णगुणेण तहा फलेण रूबूणजादेण।।१७१।।
आदिमकच्छं गुणिदे सत्त वि कच्छाण होदि वसभाणं।
परिसंखा णिद्दिट्ठा जिणिंदइंदेहि णाणीहि।।१७२।।
सव्वाणं अणीयाणं कच्छाणं िंपडसंखपरिमाणं।
एस कमो णायव्वो संखेवेण य समुद्दिट्ठं।।१७३।।
सिसिररयरहारहिमचयसंखेंदुमुणालकुंदकुमुदाभा।
धवलादवत्तभासुर धवलरहा पढमकच्छम्मि।।१७४।।
वेरुलियरयणणिम्मियचउचक्कविरायमाण गच्छंति।
मंदारकुसुमसंणिह महारहा विदियकच्छम्मि।।१७५।।
कणयादवत्तचामरधयवढधुव्वंतभासुराडोवा ।
णिद्धंतकणयसुघडियरहपउरा तदियकच्छम्मि।।१७६।।
मरगयरयणविणिम्मियबहुचक्कुप्पण्णसद्दगंभीरा।
दुव्वंकुरदलसंणिह महारहा तह चउत्थीए।।१७७।।
कक्केयणमणिणिम्मियबहुचक्कघुलंतसद्दगंभीरा।
णीलुप्पलदलसंणिभ महारहा होंति पंचमिए।।१७८।।
वरपउमरायमणिमयवरधुरदढअक्खचक्कसंघडिया।
पप्फुल्लकमलसंणिभ महारहा होंति छट्ठीए।।१७९।।
सिहिकंठवण्णमणिमयणिम्मलकिरणोहजालपज्जलिया।
वरइंदणीलसंणिभ महारहा होंति सत्तमिए।।१८०।।
एवं महारहाणं सत्त वि कच्छा जलंतमणिकिरणा।
आयासं छायंता चलिया जिणजम्मकल्लाणे।।१८१।।
वज्जंततूरणिवहा रहकच्छा अंतरेसु सव्वेसु।
गच्छंता पवररहा सोहंति मणोहरा तुंगा।।१८२।।
बहुदेवदेविपुण्णा वरचामरछत्तधयवडा णिवहा।
लंबंतकुसममाला अच्छेरयरूवसंठाणा।।१८३।।
पुव्वक्कएण णेया मायारहिएण चरणसुद्धेण।
धम्मेण तेण लद्धा इंदेण महाविहूईओ।।१८४।।
खरपव्ाणधायवियलियखीरोवहिवरतरंगणिहवण्णा।
वरसियचलंतचामर धवलस्सा पढमकच्छाए।।१८५।।
उदयंतभाणुसंणिभमंदारासोगकमलसच्छाया।
पचलंतचारुचामर रत्ततुरंगा दु विदियाए।।१८६।।
णिद्धंतकणयसंणिहखुरवुडभरजणियरेणुिंपजरिया।
वरगोरोयणसंणिभ वरतुरया तदियकच्छाए।।१८७।।
मरगयवण्णसमुज्जलतुंगमहाकाय गमणपरिहत्था।
अभिणवतमालसामल तुरयवरा तह चउत्थीए।।१८८।।
रयणाभरणविहूसिय मणिकिरणसमूहणासियतमोहा।
णीलुप्पलदलसंणिभ तुरगवरा पंचमाए दु।।१८९।।
ससहरकिरणसमागमविभिण्णवररत्तकुमुदवण्णाभा।
जासवणकुसुमसंणिभ वरतुरया छट्ठमाए दु।।१९०।।
मणपवणगमणचंचलखरखुररवजणियसद्दगंभीरा।
भिण्ंिणदणीलसंणिभ वरतुरया सत्तमाए दु।।१९१।।
एवं तुरयाणीया सत्तविभागा हवंति णिद्दिट्ठा।
दिव्वामलरूवधरा णाणाभरणेहि संछण्णा।।१९२।।
मज्झेसु तूरणिवहा पडहमुदिंगादिसद्दगंभीरा।
वरकाहलमहुररवा पक्खुभियसमुद्दणिग्घोसा।।१९३।।
रयणमया पल्लाणा देवकुमारेहि वाहमाणा ते।
सोहंति महाकाया देवाण विउव्वणा दिव्वा।।१९४।।
सव्वदिसा पूरेंता अणोवमा तेयरूवसंपण्णा।
जिणजम्मणमहिमाए गच्छंति महाबला तुरया।।१९५।।
चुलसीदिलक्खसंखा वियडघडा गुलगुलंतगज्जंता।
गोखीरसंखधवला हत्थिघडा पढमकच्छाए।।१९६।।
अडसट्ठिसया णेया लक्खगुणा बालभाणुसमतेया।
पगलंतदाणगंडा हत्थिहडा विदियकच्छाए।।१९७।।
छत्तीसा तिण्णिसया हत्थिहडा सयसहस्ससंगुणिया।
णिद्धंतकणयवण्णा तदियाए होंति कच्छाए।।१९८।।
बाहत्तरि छच्चसया लक्खगुणा सिरिसकुसुमसंकासा।
उत्तुंगदंतमुसला चउथीए होंति ते णागा।।१९९।।
तेरससयचउदाला हत्थिहडा सयसहस्ससंगुणिया।
णीलुप्पलसंकासा पंचमिए होंति कच्छाए।।२००।।
छव्वीससया णेया अट्ठासीदा य होंति लक्खगुणा।
जासवणकुसुमवण्णा हत्थिहडा तह य छट्ठीए।।२०१।।
तेवण्णसया णेया छावत्तरि तह य होंति लक्खगुणा।
अंजणगिरिसमतेया हत्थिहडा सत्तमाए दु।।२०२।।
अडसट्ठा छच्चसया दसयसहस्सा हवंति लक्खगुणा।
सत्त वि गयकच्छाणं परिसंखा होंति णायव्वा।।२०३।।
कच्छपमाणं विरलिय इच्छगुणं तेसु उवरि दाऊणं।
अण्णोण्णब्भत्थेण य लद्धेण य रूवरहिदेण।।२०४।।
इच्छगुणरासियाणं आदिधणं संगुणं पुणो किच्चा।
जं लद्धं णायव्वं इच्छधणं होइ सव्वाणं।।२०५।।
कच्छाए कच्छाए पुरदो वज्जंति तूररमणीया।
पडुपडहसंखमद्दलकाहलकोलाहलरवेहिं।।२०६।।
उच्छंगदंतमुसला पभिण्णकरडा मुहा गुलगुलंता।
पगलंतदाणणिज्झरधरणीधरसंणिभा चेव।।२०७।।
लंबंतरयणघंटा णिम्मलमणिकुसुमदामकयसोहा।
णाणापडायचित्ता सिदादवत्तेहि छज्जंता।।२०८।।
लबंतंकण्णचामर मणिकिंकिणिरणरणंतरमणीया।
मणिकणयरज्जुकच्छा कयलीहरछज्जिया रम्मा।।२०९।।
वरदेविदेवपउरा अच्चब्भुदसोहसारसंपण्णा।
हत्थिहडाणं सेण्णं वित्थरइ समंतदो गयणं।।२१०।।
एवं णागाणीया गच्छंता सुरवरा महासत्ता।
दाविंता पुण्णफलं पच्चक्खं जीवलोयस्स।।२११।।
णट्टाणीया वि सुरा णच्चंता बहुविहेहिं रूवेहिं।
गच्छंति मेरुसिहरं जिणजम्मणमहिमअणुराया।।२१२।।
विज्जाहरकुसुमाउहरायारायाहिवाण चरियाणं।
णच्चंति णच्चणसुरा पढमे कच्छम्मि णिद्दिट्ठा।।२१३।।
पुहइवईणं चरियं सयलद्धमहंतमंडलीयाणं।
विदियाए कच्छाए णच्चंता सुरवरा जंति।।२१४।।
बलदेवहरिगणाण य तप्पडिवक्खाण तह य वरचरियं।
णच्चंति अमरविंदा णिद्दिट्ठा तदियकच्छा।।२१५।।
चोद्दसरयणवईणं णवणिहिअक्खीणकोसणाहाणं।
चक्कहराण य चरियं चउत्थकच्छम्मि णच्चंति।।२१६।।
सव्वाणं चरिमाणं सलोयवालाण सुरविंरदाणं।
चरियं णच्चंति सुरा कच्छाए पंचमाए दु।।२१७।।
णिम्मलवरबुद्धीणं अणिमादिविसुद्धरिद्धिपत्ताणं।
गणहरदेवाण सुरा चरियं णच्चंति छट्ठीए।।२१८।।
वरपाडिहेरअइसयकल्लाणअणंतसोक्खजुत्ताणं।
जिणइंदाणं चरियं सत्तमकच्छम्मि णच्चंति।।२१९।।
तेवण्णकोडिदेवा छाहत्तरिलक्ख दिव्वदेहधरा।
णच्चंति य जिणचरियं सुरसुंदरिसंजुदा धीरा।।२२०।।
इच्छाठाणं विरलिय काऊणं एयरूवपरिहाणी।
इच्छगुणं दाऊण य विरलियरूवेसु सव्वेसु।।२२१।।
अण्णोण्णब्भत्थेण य जाएण य तेण रासिणा गुणिदे।
इच्छाण मूलरािंस इच्छधणं होइ सव्वाणं।।२२२।।
रूऊणे अद्धाणे विरलिय रासिम्मि इच्छगुण दिण्णे।
अण्णोण्णगुणेण हदे आदिधणं हवइ इच्छफलं।।२२३।।
दिव्वामलदेहधरा दिव्वालंकारभूसियसरीरा।
णच्चंता गायंता मेरुं तत्तो समुप्पइया।।२२४।।
गंधव्वाण अणीया सत्तस्सरसंजुदा दु गायंता।
गच्छंति सुरा पवरा जिणजम्मणजणियसंतोसा।।२२५।।
महुरमणोहरवक्का दिव्वाहरणेहि भूसिया देवा।
सज्जसरेहि य जुत्ता कच्छाए होंति पढमाए।।२२६।।
रिसभसरेण य जुत्ता वत्थाभरणेहि मंडिया दिव्वा।
विदियाए कच्छाए महुरं गायंति णच्चंति।।२२७।।
णीलुप्पलणीसासा अहिणवलावण्णरूवसंपण्णा।
तदियाए कच्छाए गंधारसरेण गायंति।।२२८।।
मज्झिमसरेण जुत्ता जलंतवरमउडकुंडलाभरणा।
गायंति पवरदेवा कच्छाए तह चउत्थीए।।२२९।।
पंचमसरेण जुत्ता सुकुमरसिंगारसद्दगंभीरा।
कच्छाए पंचमिए णिद्दिट्ठा सुरवरा णिवहा।।२३०
धइवदसरेण जुत्ता सायरणिग्घोसमणहरालावा।
छट्ठीए कच्छाए अमरकुमारा समुद्दिट्ठा।।२३१।।
गायंति महुरमणहरणिसायघोसेण भासुरा अमरा।
सुरसुंदरिसंजुत्ता सत्तमिए तह य कच्छाए।।२३२।।
बंसीवीणावच्चिसमहुयरिकंसालतालियादीहि।
संजुत्ता देवीओ गायंति जिणाण भत्तीए।।२३३।।
ढक्कामुदिंगझल्लरिमहसारमउंदकिण्णरादीहिं।
वज्जंतमहुरमणहरगंधव्वा सुरगणा चलिया।।२३४।।
सायरतरंगसंणिभ भमरंजणसच्छहा जगजगंता।
पढमाए कच्छाए किण्हद्धयसंकुला णेया।।२३५।।
कंचणदंडुत्तुंगा मणिरयणफुरंतभासुराडोवा।
चामरचलंतसिहरा णीलद्धवसंकुला विदिए।।२३६।।
वेरुलियदंडणिवहा कओदवण्णेहि वत्थणिवहेहि।
देवकुमारकरत्था पंडुद्धयसंकुला तदिए।।२३७।।
करिसीहवसहदप्पणसिहिसारसगरुडचक्करविसिहरा।
मरगयदंडुत्तुंगा कणयमया तह य चोत्थीए।।२३८।।
उव्भिण्णकमलपाडलमंदारासोयिंकसुकुसुमाभा।
विद्दुमदंडुत्तुंगा पउमधया पंचमाए दु।।२३९।।
गोखीरकुंदहिमचयसरयब्भतुसारहारसंकासा।
णिम्मलकंचणदंडा धवलधया छट्ठकच्छाए।।२४०।।
मणिगणफुरंतदंडा मुत्तादामेहिं मंडिया दिव्वा।
धवलादवत्तणिवहा सत्तमियाए दु कच्छाए।।२४१।।
एवं सत्त वि कच्छा भिच्चाणीयाण होंति णायव्वा।
जिणभत्तिरायरत्ता गच्छंति महाणुभावेण।।२४२।।
बावण्णा कोडीओ बाणउदा लक्ख होंति णिद्दिट्ठा।
धयणिवहाणं संखा पवणपणच्चंतसोहंता।।२४३।।
तेवण्णा कोडीओ छावत्तरिलक्ख कुंदधवलाणं।
छत्ताणं परिसंखा णायव्वा रयणचित्ताणं।।२४४।।
छाहत्तरिलक्खजुया छादाला सत्तकोडिसय संखा।
सत्ताणीयाण तहा उणवण्णाणं तु कच्छाणं।।२४५।।
चुलसीदिलक्खगुणिदे सत्तावीसुत्तरेण य सएण।
सत्तगुणेणुप्पज्जइ सत्तणीयाण परिसंखा।।२४६।।
चुलसीदिलक्खदेवा पढमाए तह य होंति कच्छाए।
सव्वाणं अणियाणं आदिधणं एस णिद्दिट्ठं।।२४७।।
विदियादीकच्छाणं दुगुणा दुगुणा हवंति णादव्वा।
एवं सत्त वि कच्छा णिद्दिट्ठा सव्वदरसीहिं।।२४८।।
सोहम्मसुरवरस्स दु सत्ताणीया समासदो वुत्ता।
अवसेससुिंरदाणं एसेव कमो मुणेयव्वो।।२४९।।
एसेव लोयपालाण चारुरूवाण देवरायाणं।
णवरि विसेसो णेओ परिवारा होंति अद्धद्धा।।२५०।।
धणुफलहसत्तितोमरणाणाविहपहरणेहि बहुवेहि।
इंदस्स पायरक्खा असंखदेवा मुणेयव्वा।।२५१।।
इंदो वि देवराया आरुहिऊणं गयंदपट्ठम्मि।
सव्वादरेण जुत्तो गच्छइ परमाए भत्तीए।।२५२।।
अह सो सुिंरदहत्थी एरावणणामदो त्ति विक्खाओ।
जोयणलक्खपमाणं विउव्वइ णिम्मलं देहं।।२५३।।
संखेंदुकुंदधवलं णाणाहरणेहि मंडियं दिव्वं।
घंटारणंतकक्खं तारायणभूसियं कुंभं।।२५४।।
बत्तीसवरमुहाणि य कंचणमणिरयणदामणिवहाणि।
एगेगदिसाभागे णायव्वा तस्स णागस्स।।२५५।।
एक्केक्कम्मि मुहम्मि दु मणिकंचणमंडिदम्मि दिव्वम्मि।
अट्ठट्ठ धवलदंता णाणामणिरयणपरिणामा।।२५६।।
एक्केक्कम्मि य दंते एक्केक्का सरवरा विमलतोया।
एक्केक्कलरवरम्मि दु एक्केक्का कमलगच्छाणि।।२५७।।
एगेगकमलसंडे एगेगविचित्तवेदिसंजुत्ता।
एगेगदिसाभागा एगेगा तोरणा रम्मा।।२५८।।
एगेगम्मि य गच्छे बत्तीसा वियसिया महापउमा।
पउमेसु तेसु णेया णाडयसंगीयरमणीया।।२५९।।
एगेगकमलकुसुमा एगेगा जोयणा सुरभिगंधा।
मणिकंचणपरिणामा अमराणं विउव्वणा दिव्वा।।२६०।।
एगेगकमलकुसुमे एगेगा णाडया मुणेयव्वा।
एगेगणाडयम्मि य अच्छरसा होंति बत्तीसा।।२६१।।
इट्ठाणि पियाणि तहा कंताणि य कोमलाणि रूवाणि।
विउरुव्विऊण बहुसो णच्चंति अणोवमगुणड्ढं।२६२।।
समतालकंसतालं वरवीणाविविहवंसवामिस्सं।
वरसुरवसद्दगहिरं णट्टं णच्चंति देवीओ।।२६३।।
अत्थ कयपल्लवेहि य मुहभंगवियारपायचलणेहि।
णच्चंति अच्छराओ दक्खिणइंदस्स बहुगीओ।।२६४।।
धम्महदप्पुप्पाइय ताओ रइरागरहसजणणाइं।
रूवाइं अच्छराओ रमयंति अच्छेरयसमाइं।।२६५।।
कंतेहि कोमलेहि य अंगेहि अणंगरागजणणेहि।
णच्चंति अच्छराओ गइंदसरकमलसंडेसु।।२६६।।
एवं रूववईओ देवीओ णच्चमाण सव्वाओ।
गच्छंति पहिट्ठमणा जिणजम्मणमहिमकल्लाणे।।२६७।।
कोडी सत्तावीसा अच्छरसाओ हवंति इंदस्स।
अट्ठेव महादेवी लक्खं पुण वल्लहीयाओ।।२६८।।
एयाओ देवीओ आरुहिऊणं गइंदपट्ठम्मि।
अइआयरजुत्ताओ जम्मणमहिमाए गच्छंति।।२६९।।
दक्खिणइंदस्स जहा सत्ताणीयादियाण परिसंखा।
उत्तरइंदस्स तहा परिसंखा होंति णायव्वा।।२७०।।
ईसाणिंदो वि तहा आरुहिऊणं महंत वसहम्मि।
महदाइड्ढिसमुदओ आगच्छइ भत्तिराएण।।२७१।।
सव्वाणं इंदाणं सत्ताणीया हवंति णिद्दिट्ठा।
तिण्णि य परिसा णेया असंख तह आदरक्खा य।।२७२।।
सव्वे दि सुरवरिंदा जम्मणमहिमेण चोइया संता।
सगसगविहूइसहिया छायंता णहयलं एंति।।२७३।।
अवसेसा वि य णेया णाणाजंपाणवाहणारूढा।
सोहम्मादी जाव दु अच्चुदकप्पं सुरा चलिया।।२७४।।
भवणवइवाणविंतरजोइसिया विविहवाहणारूढा।
जिणसासणभत्तिरया महाविहूईहिं ते चलिया।।२७५।।
अहमिंदा वि य देवा आसणकंपेण वोहिया संता।
गंतूण य सत्तपयं तत्थेव ठिया णमंसंति।।२७६।।
सेदादवत्तणिवहा वरचामरधुव्वमाण बहुमाणा।
णाणापडायचिण्हा बहुविहवरवाहणारूढा।।२७७।।
कंकणपिणद्धहत्था कंठाकडिसुत्तभूसियसरीरा।
पजलंतमहामउडा मणिकुंडलमंडियागंडा।।२७८।।
हारविराइयवच्छा केऊरविहूसिया महाबाहू।
तुडियंगदणेवत्था वरवत्थविहूसिया देहा।।२७९।।
गंधड्ढकुसुममालामलयंदणसुरहिगंधणिस्सासा।
सुकुमालपाणिपादा बहुविहवण्णुज्जलसरीरा।।२८०।।
एवं ते देवगणा आगंतूणं महाविभूदीए।
मंदरगिरिस्स सिहरे परवंडुवणे विसालम्मि।।२८१।।
िंसहासणेसु णेया णाणामणिविप्फुरंतकिरणेसु।
जिणइंदवरकुमारे खीरोदजलेण ण्हाविंति।।२८२।।
जोयणमुहवित्थारा अट्ठेव य जोयणा सुगंभीरा।
अट्ठ सहस्सा कलसा मणिकंचणरयणकयसोहा।।२८३।।
रयणकलसेहिं तेहि य खीरोदसुगंधसलिलपुण्णेहिं।
मुच्चंति जिणाणुवरिं एगीभूया सुरा सव्वे।।२८४।।
जइ ते धारावडणा पव्वदसिहरे पडंति बेगेण।
तो सो पव्वदसिहरो सयखंडो तक्खणे होइ।।२८५।।
सब्बे वि जिणविंरदा अणंतविरिया अणंतमाहप्पा।
ते पुण धारावडणा भण्णंति कुसग्गािंबदु व्व।।२८६।।
पयढक्कसंखकाहलमुिंदगणिवहेहिं कंसतालेहिं।
झल्लरिभेरीहि तहा दुंदुहिसद्देहि विविहेहि।।२८७।।
मद्दलतिवलीहिं तहा भेरीसद्देहि उवहिघोसेहि।
जयघंटरवेहिं पुणो भंभारवमेवरावेहिं।।२८८।।
पहुपडहरवेहिं तहा सायरगंभीरसद्दणिवहेहिं।
वज्जंततूरणिवहं फुडियं व सपव्वदा धरणी।।२८९।।
ण्हािंवता भत्तीए वत्थालंकारभूसिवं किच्चा।
अणुिंलपिऊण वच्छा कुंकुमपंकेहि दिव्वेहि।।२९०।।
थोऊण जिणविंरदं धुईहि संभूदगुणविसालाहि।
जेणागदा पडिगदा धम्माणुराया सुरा सव्वे।।२९१।।
पंचमणाणसमग्गं पंचमगाइदेसयं पउमणाहं।
वरपउमणंदिणमियं वंदे पउमप्पहं सिरसा।।२९२।।
इय जंबूद्वीवपण्णत्तिसंगहे महाविदेहाहियारे
चउत्थो उद्देसो समत्तो।।४।।
उन्नत चूलिकाशिखर बाल के प्रमाण से ऋतु नामक विमान के तलभाग से नहीं लगा है अर्थात् मेरुचूलिका के ऊपर बाल मात्र के अन्तर से ऋतु विमान निरालम्ब स्थित है, ऐसा निर्दिष्ट जानना चाहिए।।१३६।।
मेरु के शिखर और ऋतु विमानतल के मध्य भाग में उत्तरकुरु में उत्पन्न मनुष्यों के कोमल, सुकुमार एवं स्निग्ध वर्ण वाले एक बाल मात्र का अन्तर है।।१३७।।
सुमेरू पर पांडुकवन में पूर्वोत्तर भाग (ईशान) में इन्द्रायुध (इन्द्रधनुष) के सदृश और विविध रत्नों से व्याप्त सुवर्णमय पाण्डुकशिला जानना चाहिए।।१३८।।
दक्षिण-पूर्वदिशा (आग्नेय) में कुंदपुष्प, चन्द्रमा एवं शंख के समान वर्ण वाली अष्टमी के चन्द्र के सदृश रमणीय उत्तम पाण्डुकंबला नामक शिला है।।१३९।।
दक्षिण-पश्चिम भाग (नैऋत्य) में जपाकुसुम व इन्द्रधनुष के सदृश रक्तकंबला नामक महाशिला जाननी चाहिए।।१४०।।
उत्तर-पश्चिम (वायव्य) भाग में इन्द्रधनुष के सदृश, अतिशय रमणीय और तपनीय के समान प्रभा वाली रक्तशिला कही गई है।।१४१।।
इन उत्तम शिलाओं की लम्बाई पाँच सौ योजन, विस्तार इससे आधा अर्थात् अढ़ाई सौ योजन और ऊँचाई चार योजन प्रमाण कही गई है।।१४२।।
उक्त शिलाएँ अतिशय उज्ज्वल रूप वाली, उत्तम तोरणों से मण्डित, दिव्य, श्रेष्ठ वेदी से संयुक्त और मणि एवं रत्नों की प्रकाशमान किरणों से सहित हैं।।१४३।।
एक-एक शिलापट्ट पर मणि व सुवर्ण के परिणामरूप तथा निर्मल चन्द्रकान्त मणियों के किरणसमूह से संयुक्त तीन-तीन िंसहासन कहे गए हैं।।१४४।।
ये सिंहासन पाँच सौ धनुष ऊँचे, पाँच सौ धनुष आयत और अढ़ाई सौ धनुष प्रमाण विष्कम्भ से सहित जानना चाहिये।।१४५।।
सब िंसहासन पूर्वाभिमुख, धवल आतपत्र से संयुक्त और चामरों के आटोप से सहित हैं। इनमें मध्य के सिंहासन जिनेन्द्रों के होते हैं।।१४६।।
उनके दोनों पार्श्व भागों में यथाक्रम से दक्षिण और वाम (उत्तर) दिशा में सौधर्म और ईशान इन्द्र के सिंहासन कहे गए हैं।।१४७।।
ईशान दिशाभाग में स्थित पाण्डुशिलातल पर दिव्य देह के धारक भरतक्षेत्र सम्बन्धी जिनेन्द्रों के जन्म की महिमा कही गई है।।१४८।।
अग्नि दिशा-आग्नेय दिशा में स्थित उत्तम पाण्डुकम्बला शिला पर अपर विदेह सम्बन्धी जिनेन्द्रों के जन्म की महिमा कही गई है एवं नैऋत्यदिशा में स्थित रक्तकंबला शिला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है।।१४९।।
वायु दिशा-वायव्य कोण में स्थित रक्ताशिला पर पूर्वविदेह सम्बन्धी जिनेन्द्रों के जन्म की महिमा जानना चाहिए। सुर और असुरों से सहित देवगण मेरु की प्रदक्षिणा करते हुए महाविभूति के साथ आकर िंसहासनों पर दिव्य जन्ममहिमा को कहते हैं।।१५०,१५१।।
भवनवासी, बानव्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पाधिपति देव क्रमशः शंख, उत्तम पटह, मनोहर िंसहनाद और घंटा के शब्द से जिन भगवान् की उत्पत्ति को जानकर सहर्ष महाविभूति से युक्त होकर समस्त आकाशतल को आच्छादित करते हुए आते हैं।।१५२,१५३।।
महाबलवान् इन्द्र भी तीन परिषद और सात अनीकों से युक्त हो उत्तम हाथी के कन्धे पर चढ़कर महा ऋद्धि के साथ आता है।।१५४।।
अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य परिषद् के क्रम से रवि, चन्द्र और जतु नामक महत्तर कहे गए जानना चाहिए।।१५५।।
अभ्यन्तर परिषद देव बारह लाख, मध्यम परिषद चौदह लाख और बाह्य परिषद सोलह लाख प्रमाण कहे गए हैं। ये सब ही देव दिव्य रूप से संयुक्त और नाना प्रकार के आयुधों एवं आभरणों से विभूषित होते हैं।।१५६, १५७।।
तीनों ही परिषदों का कथन किया जा चुका है। अब यहाँ से आगे महाप्रभाव से युक्त सौधर्म इन्द्र की सात अनीकों का वर्णन करते हैं।।१५८।।
वृषभ, रथ, तुरग, मदगल (हाथी), नर्तक, गन्धर्व और भृत्यवर्ग, इनकी सात कक्षाओं से संयुक्त सात सेनाएँ कही गई हैं।।१५९।।
प्रथम कक्षा में शंख एवं कुंदपुष्प के सदृश धवल चौरासी लाख उत्तम वृषभ लीलापूर्वक आगे जाते हैं।।१६०।।
द्वितीय कक्षा में जपाकुसुम के सदृश वर्ण वाले और मणि एवं रत्नों से विभूषित वे उत्तम वृषभ एक करोड़ अड़सठ लाख होते हैं।।१६१।।
तृतीय कक्षा में नीलकमल के सदृश वर्ण वाले उत्तम वृषभ तीन करोड़ छत्तीस लाख कहे गए हैं।।१६२।।
चतुर्थ कक्षा में स्थित मरकतमणि की किरणों के समूह के समान कान्ति वाले उत्तम वृषभ छह करोड़ बहत्तर लाख होते हैं।।१६३।।
पंचम कक्षा में सुवर्ण के सदृश वर्ण वाले उत्तम वृषभ तेरह करोड़ चवालीस लाख निर्दिष्ट किए गए हैं।।१६४।।
छठी कक्षा में भिन्न अंजन के सदृश कान्ति वाले वृषभ छब्बीस करोड़ अट्ठासी लाख कहे गए हैं।।१६५।।
सातवीं कक्षा में किंशुक कुसुम के समान प्रभा वाले उत्तम वृषभ तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख कहे गए समझना चाहिए।।१६६।।
उनके मध्य-मध्य में बजते हुए महावादित्रों के शब्द से सहित वे वृषभानीक उछलते हुए जिन भगवान् के जन्मकल्याणक में जाते हैं।।१६७।।
घंटा व किंकिणियों के समूह से सहित, उत्तम चामरों से मण्डित, मनोहर, प्रचुर मणिमालाओं व पुष्पमालाओं को पहने हुए, अनुपम रूप से सम्पन्न, उत्तम कोमल पलान से सहित और देवकुमारों से चलाए जाने वाले वे वृषभ चढ़ते हुए पर्वतों जैसे शोभायमान होते हैं।।१६८, १६९।।
सात विभागों के वृषभानीकों की संख्या एक सौ छह करोड़ अड़सठ लाख कही गई है।।१७०।।
एक कम आठ अंकों का विरलन करके उन अंकों के ऊपर दो-दो अंक देकर परस्पर गुणा करने से जो फल प्राप्त हो उसमें से एक कम करके शेष से प्रथम कक्षा को गुणा करने पर सातों कक्षाओं सम्बन्धी व्ाृषभानीकों की संख्या प्राप्त होती है, ऐसा ज्ञानवान् जिनेन्द्र भगवान् ने निर्दिष्ट किया है।। १७१-१७२।।
उदाहरण—८-१·७; २/१, २/१, २/१, २/१, २/१, २/१, २/१; इनके परस्पर का गुणनफल १२८; १२८-१ · १२७; प्रथम कक्षा में ८४००००० ; ८४००००० ² १२७ ·१०६६८००००० समस्त वृषभानीक संख्या।
सब अनीकों सम्बन्धी कक्षाओं की संख्या के िंपडप्रमाण को लाने के लिए संक्षेप से यही क्रम कहा गया जानना चाहिए।।१७३।।
प्रथम कक्षा में शिशिरकर (चन्द्र), हार, हिमचय, शंख, इन्दु, मृणाल एवं कुंदपुष्प जैसी प्रभा वाले; धवल छत्र से सुशोभित धवल रथ होते हैं।।१७४।।
द्वितीय कक्षा में वैडूर्यमणि से निर्मित चार चाकों से विराजमान और मन्दार कुसुम के सदृश कान्ति वाले महारथ गमन करते हैं।।१७५।।
तृतीय कक्षा में सुवर्णमय छत्र, चामर और हिलते हुए उत्तम ध्वजपटों के आटोप (आडम्बर) से प्रकाशमान तथा अग्निसंयोग से संशोधित निर्मल सुवर्ण से निर्मित प्रचुर रथ गमन करते हैं।।१७६।।
चतुर्थ कक्षा में मरकतमणियों से निर्मित बहुत चाकों से उत्पन्न हुए शब्द से गम्भीर और दूर्वाङ्कुर के पत्तों के सदृश वर्ण वाले महारथ होते हैं।।१७७।।
पाँचवीं कक्षा में कर्वेâतन रत्नों से निर्मित व बहुत से चाकों के घूमने के शब्द से गम्भीर महारथ नीलोत्पलपत्र के सदृश वर्ण वाले होते हैं।।१७८।।
छठी कक्षा में उत्कृष्ट पद्मराग मणिमय उत्तम धुरा, दृढ़ अक्ष एवं चाकों से संघटित महारथ प्रफुल्ल कमल के सदृश वर्ण वाले होते हैं।।१७९।।
सातवीं कक्षा में मयूरकण्ठ के समान वर्ण वाले व मणियों से निर्मित निर्मल किरणसमूह से देदीप्यमान महारथ उत्तम इन्द्रनील मणि के सदृश कान्ति वाले होते हैं।।१८०।।
इस प्रकार प्रकाशमान मणिकिरणों से सहित महारथों की सातों कक्षाएँ आकाश को आच्छादित करती हुई जिनजन्मकल्याणक में जाती हैं।।१८१।।
सब रथ कक्षाओं के मध्य में बजते हुए वादित्रों के समूह से सहित, उन्नत व मनोहर उत्तम रथ गमन करते हुए शोभायमान होते हैं।।१८२।।
बहुत से देव-देवियों से परिपूर्ण; उत्तम चमर, छत्र और ध्वजापताकाओं के समूह से सहित; लटकती हुई कुसुमों की मालाओं से सुशोभित तथा आश्चर्यजनक रूप एवं आकृति से संयुक्त, उक्त रथरूप महाविभूतियाँ सौधर्म इन्द्र को पूर्वकृत निष्कपट शुद्ध चारित्ररूप धर्म से प्राप्त होती हैं, ऐसा जानना चाहिए।।१८३-१८४।।
प्रथम कक्षा में तीक्ष्ण पवन के घात से विचलित हुए क्षीरोदधि की उत्तम तरंगों के सदृश वर्ण वाले और चलते हुए उत्तम धवल चामरों से सहित धवल अश्व होते हैं।।१८५।।
द्वितीय कक्षा में उदित होने वाले सूर्य के सदृश अथवा मन्दार, अशोक एवं कमल के सदृश कान्ति वाले तथा चलते हुए सुन्दर चामरों से सहित रक्त तुरंग होते हैं।।१८६।।
तृतीय कक्षा में अग्निसंयोग से शुद्ध किए गए निर्मल सुवर्ण के सदृश व खुरपुटों के भार से जनित धूलि से िंपजरित उत्तम अश्व श्रेष्ठ गोरोचन के सदृश (पीत) होते हैं।।१८७।।
चतुर्थ कक्षा में मरकत जैसे वर्ण वाले उज्ज्वल एवं उन्नत महान् शरीर से संयुक्त तथा गमन में दक्ष उत्तम अश्व नवीन तमाल वृक्ष के समान श्याम वर्ण वाले होते हैं।।१८८।।
पंचम कक्षा में रत्नों के आभरणों से विभूषित व मणिकिरणों के समूह से अन्धकार समूह को नष्ट करने वाले श्रेष्ठ अश्व नीलोत्पलपत्र के सदृश वर्ण वाले होते हैं।।१८९।।
छठी कक्षा में शशधर (चन्द्र) के समागम से विकास को प्राप्त उत्तम रक्त कमल जैसे वर्ण वाले श्रेष्ठ अश्व जपाकुसुम के सदृश होते हैं।।१९०।।
सातवीं कक्षा में मन अथवा पवन के समान गमन करने में चंचलता को प्राप्त तीक्ष्ण खुरों के शब्द से उत्पन्न शब्दों से गम्भीर उत्तम अश्व भिन्न इन्द्रनीलमणि के सदृश होते हैं।।१९१।।
इस प्रकार दिव्य व निर्मल रूप को धारण करने वाली और नाना आभरणों से व्याप्त अश्व सेनाएँ सात विभागों से युक्त निर्दिष्ट की गई हैं।।१९२।।
मध्य में वादित्र समूह से सहित, पटह व मृदंग आदि के शब्द से गम्भीर, उत्तम काहल के मधुर शब्द से युक्त, प्रक्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र जैसे निर्घोष से संयुक्त, रत्नमय पलानों से सहित और देवकुमारों से चलाए जाने वाले वे देवों की विक्रिया से निर्मित महाकाय दिव्य घोड़े शोभायमान होते हैं।।१९३-१९४।।
अनुपम रूप व तेज से सम्पन्न वे महाबलवान् घोड़े सब दिशाओं को पूर्ण करते हुए जिनजन्ममहिमा में जाते हैं।।१९५।।
प्रथम कक्षा में हर्ष से गुल-गुल गरजने वाले चौरासी लाख हाथियों के समूह गोक्षीर अथवा शंख के समान धवल होते हैं।।१९६।।
द्वितीय कक्षा में गण्डस्थल से मद को बहाने वाले उन एक लाख से गुणित एक सौ अड़सठ अर्थात् एक करोड़ अड़सठ लाख हाथियों की घटाएँ बाल सूर्य के सदृश कान्ति वाली जानना चाहिए।।१९७।।
तृतीय कक्षा में एक लाख से गुणित तीन सौ छत्तीस (३,३६०००००) हाथियों की घटाएँ अग्निसंयोग से शुद्ध किए गए सुवर्ण जैसे वर्ण वाली होती हैं।।१९८।।
चतुर्थ कक्षा में उन्नत दाँत रूपी मूसलों से सहित वे एक लाख से गुणित छह सौ बहत्तर (६७२०००००) हाथी शिरीष कुसुम के सदृश होते हैं।।१९९।।
पंचम कक्षा में एक लाख से गुणित तेरह सौ चवालीस (१३४४०००००) हाथियों की घटाएँ नीलोत्पल के सदृश होती हैं।।२००।।
छठी कक्षा में एक लाख से गुणित छब्बीस सौ अट्ठासी (२६८८०००००) हाथियों की घटाएँ जपाकुसुम जैसे वर्ण वाली होती हैं।।२०१।।
सातवीं कक्षा में एक लाख से गुणित तिरेपन सौ छियत्तर (५३७६०००००) हाथियों की घटाएँ अंजनगिरि के समान कान्ति वाली होती हैं।।२०२।।
सातों कक्षाओं के हाथियों की संख्या एक लाख से गुणित दश हजार छह सौ अड़सठ (१०६६८०००००) जानना चाहिए।।२०३।।
कक्षा के प्रमाण का विरलन कर उनके ऊपर इच्छित गुणकार (२) को देकर परस्पर गुणा करने से प्राप्त हुई राशि में से एक कम करने पर जो शेष इच्छित गुणकार राशि रहे उससे फिर आदि धन को गुणित कर जो प्राप्त हो उतना सब कक्षाओं का इच्छित धन होता है (देखिए पीछे गा. १७१-७२)।।२०४-२०५।।
प्रत्येक कक्षा के आगे पटु, पटह, शंख, मर्दल और काहल के कोलाहल शब्दों के साथ रमणीय बाजे बजते हैं।।२०६।।
उन्नत दांतरूपी मूसलों से सहित, गण्डस्थल से मद को बहाने वाले तथा मुख से सहर्ष गरजने वाले वे हाथी बहते हुए मद जैसे झरना से युक्त पर्वत के समान ही प्रतीत होते हैं।।२०७।।
लटकते हुए रत्नमय घंटा से संयुक्त, निर्मल मणियों व कुसुमों की माला से की गई शोभा को प्राप्त, नाना पताकाओं से विचित्र, धवल छत्र से सुशोभित, कानों में लटकते हुए चामरों और मणिमय क्षुद्र घंटिकाओं के रण-रण शब्द से रमणीय, मणि एवं सुवर्णमय कक्षा (हाथी के पेट पर बाँधने की रस्सी) से अलंकृत, कदलीभार से सुशोभित, रमणीय, उत्तम देव-देवियों से प्रचुर तथा आश्चर्यजनक श्रेष्ठ शोभा से सम्पन्न उन हस्तिघटाओं की सेना आकाश में चारों ओर पैâल जाती है।।२०८-२१०।।
इस प्रकार महाबलवान् उत्तम नागानीक देव जीवलोक को प्रत्यक्ष में पुण्य फल को प्रगट करते हुए गमन करते हैं।।२११।।
नर्तकानीक देव भी बहुत प्रकार के वेषों से नाचते हुए जिनजन्ममहिमा के अनुराग से मेरु शिखर पर जाते हैं।।२१२।।
नर्तकानीक देव प्रथम कक्षा में विद्याधर, कुसुमायुध (कामदेव) राजा और राजाधिप के चरित्रों का अभिनय करते हैं।।२१३।।
द्वितीय कक्षा के नर्तक देव समस्त अर्धमण्डलीक और महामण्डलीक राजाओं के चरित्र का अभिनय करते हुए जाते हैं।।२१४।।
तृतीय कक्षा के नर्तक देवगण बलदेव, वासुदेव और प्रतिशत्रुओं के (प्रतिनारायणों के) उत्तम चरित्र का अभिनय करते हैं।।२१५।।
चतुर्थ कक्षा के नर्तक देव चौदह रत्नों के अधिपति और नौ निधियों तथा अक्षीण कोष के स्वामी चक्रवर्तियों के चरित्र का अभिनय करते हैं।।२१६।।
पंचम कक्षा के नर्तक देव चरमशरीरियों और लोकपालों सहित समस्त इन्द्रों के चरित्र का अभिनय करते हैं।।२१७।।
छठी कक्षा के नर्तक देव निर्मल, उत्तम बुद्धि के धारक तथा अणिमादि विशुद्ध ऋद्धियों को प्राप्त हुए गणधर देवों के चरित्र का अभिनय करते हैं।।२१८।।
सातवीं कक्षा के नर्तक देव उत्तम प्रातिहार्य, अतिशय, कल्याणक एवं अनन्त सुख से संयुक्त जिनेन्द्रों के चरित्र का अभिनय करते हैं।।२१९।।
दिव्य देह के धारक उपर्युक्त तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख (७ – १ · ६; २ ² २ ² २ ² २ ² २ ² २ · ६४ ; ८४००००० ² ६४ · ५३,७६०००००) धीर नर्तकानीक देव-देवांगनाओं से संयुक्त होकर जिनचरित्र का अभिनय करते हैं।।२२०।।
इच्छित स्थान को एक अंक से हीन कर विरलन करके विरलित सब अंकों के प्रति इच्छित गुणकार को देकर परस्पर गुणा करने से जो राशि उत्पन्न हो उससे इच्छित मूल राशि को गुणा करने पर इच्छित सर्वधन प्राप्त होता है (देखिए पीछे गाथा २०४-५)।।२२१-२२२।।
एक कम अध्वान का (स्थानों का) विरलन करके विरलित राशि के ऊपर इच्छित गुणकार को देकर परस्पर गुणित करने से जो प्राप्त हो उससे आदि धन को गुणा करने पर इच्छाफल (इच्छित धन) प्राप्त होता है (देखिये पीछे गाथा २०४-५)।।२२३।।
दिव्य एवं निर्मल देह के धारक और दिव्य अलंकारों से विभूषित शरीर वाले उक्त देव नाचते-गाते हुए वहां से मेरु के ऊपर जाते हैं।।२२४।।
गन्धर्वों की सेना के श्रेष्ठ देव जिन भगवान् के जन्म से उत्पन्न हुए सन्तोष से सात स्वर युक्त गान करते हुए जाते हैं।।२२५।।
मधुर एवं मनोहर मुख वाले तथा दिव्य आभरणों से भूषित उक्त देव प्रथम कक्षा में षड्ज स्वरों से युक्त होते हैं।।२२६।।
वस्त्राभरणों से मण्डित उक्त दिव्य देव द्वितीय कक्षा में ऋषभ स्वर से युक्त मधुर गान करते व नाचते हैं।।२२७।।
तृतीय कक्षा में नीलोत्पल के समान निश्वास वाले और अभिनय लावण्यमय स्वरूप से सम्पन्न वे देव गान्धार स्वर से गाते हैं।।२२८।।
चतुर्थ कक्षा में चमकते हुए मुकुट एवं कुण्डलरूप आभरणों से सहित वे उत्तम देव मध्यम स्वर से युक्त होकर गाते हैं।।२२९।।
पांचवीं कक्षा में सुकुमार (सुन्दर) आभूषणों के शब्द से गम्भीर उक्त श्रेष्ठ देवों के समूह पंचम स्वर से युक्त कहे गये हैं।।२३०।।
छठी कक्षा में समुद्र के निर्घोष के समान मनोहर आलाप वाले देवकुमार धैवत स्वर से युक्त कहे गए हैं।।२३१।।
सातवीं कक्षा में सुन्दर कान्ति वाले उक्त देव-देवांगनाओं से संयुक्त होकर मधुर एवं मनोहर निषाद स्वर से गाते हैं।।२३२।।
वंशी, वीणा, बच्च (व्वी) सक, मधुकरी, कांस्याल और ताल (कंसिका) आदि वाद्यविशेषों से संयुक्त देवियाँ जिन भगवान् की भक्ति से गान करती हैं।।२३३।।
ढक्का, मृदंग, झालर, महासार, मुकुंद (वाद्यविशेष) और किन्नर आदि वादित्रों को बजाते हुए मधुर एवं मनोहर गन्धर्व देवों के समूह प्रस्थित हुए।।२३४।।
प्रथम कक्षा में समुद्र तरंग के सदृश अथवा भ्रमर व अंजन के समान प्रभा वाले जगमगाते हुए (भृत्य) कृष्ण ध्वजाओं से युक्त जानना चाहिये।।२३५।।
(उक्त भृत्य) द्वितीय कक्षा में उन्नत सुवर्णदण्ड से संयुक्त, मणि एवं रत्नों के प्रकाशमान आटोप से सहित तथा शिखर पर चलते हुए चामरों से शोभायमान नीली ध्वजाओं से संयुक्त होते हैं।२३६।।
तृतीय कक्षा में वैडूर्य मणिमय दण्डसमूह से संयुक्त और कापोत वर्ण वस्त्र समूहों से सहित वे कुमार देवों के हाथों में स्थित ध्वजासमूह से युक्त शुक्लवर्ण होते हैं।।२३७।।
चतुर्थ कक्षा में हाथी, िंसह, वृषभ, दर्पण, मयूर, सारस, गरुड़, चक्र, सूर्य और चन्द्र, ये उन्नत मरकतमय दण्ड से संयुक्त घ्वजाएँ सुवर्णमय (पीत) होती हैं।।२३८।।
पाँचवीं कक्षा में विकसित कमल, पाटल, मंदार, अशोक और किंशुक कुसुम के समान कान्ति वाली पद्मध्वजाएँ मूँगे के उन्नत दण्ड से संयुक्त होती हैं।।२३९।।
छठी कक्षा में गोक्षीर, कुंद पुष्प, हिमसमूह, शरत्कालीन मेघ, तुषार और हार के सदृश धवल ध्वजाएँ निर्मल सुवर्ण दण्ड से संयुक्त होती हैं।।२४०।।
सातवीं कक्षा में मणिगणों से प्रकाशमान दण्ड से सहित और मुक्तामालाओं से मण्डित दिव्य धवल आतपत्रों के समूह होते हैं।।२४१।।
इस प्रकार भृत्यानीकों की सात कक्षाएँ होती हैं जो जिनभक्तिराग में अनुरक्त होकर महाप्रभाव से जाती हैं।।२४२।।
पवन से प्रेरित होकर नाचने वाली उन शोभायमान ध्वजाओं के समूहों की संख्या बावन करोड़ बानवे लाख निर्दिष्ट की गई है।।२४३।।
कुन्दपुष्प के समान धवल और रत्नों से विचित्र छत्रों की संख्या तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख जानना चाहिए।२४४।।
सात अनीकों सम्बन्धी उनंचास कक्षाओं की संख्या सात सौ छियालीस करोड़ छियत्तर लाख है।।२४५।।
सात से गुणित एक सौ सत्ताईस से चौरासी लाख को गुणा करने पर उपर्युक्त सात अनीकों की संख्या उत्पन्न होती है।
(८४००००० ² (१२७ ² ७) · ७४६,७६,०००००)।।२४६।।
प्रथम कक्ष में चौरासी लाख देव होते हैं। यह सब अनीकों का आदिधन कहा गया है।।२४७।।
द्वितीयादिक कक्षाओं का प्रमाण उत्तरोत्तर इससे दूना-दूना जानना चाहिए। इस प्रकार सर्वदर्शियों ने सातों कक्षाओं का स्वरूप कहा है।।२४८।।
यहाँ संक्षेप में सौधर्म इन्द्र की सात कक्षाओं का कथन किया गया है। शेष सुरेन्द्रों की सात अनीकों का भी यही क्रम समझना चाहिए।।२४९।।
सुन्दर स्वरूप वाले इन्द्रों के लोकपालों का भी यही क्रम जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि उनके परिवार आधे-आधे होते हैं।।२५०।।
धनुषफलक, शक्ति और तोमर इत्यादि नाना प्रकार के बहुत से शस्त्रों से सुसज्जित असंख्यात देव इन्द्र के पादरक्षक जानना चाहिए।।२५१।।
देवों का राजा इन्द्र भी गजराज की पीठ पर चढ़कर पूर्ण आदर से युक्त होता हुआ अतिशय भक्ति से वहाँ जाता है।।२५२।।
ऐरावण-ऐरावत नाम से विख्यात वह इन्द्र का हाथी एक लाख योजन प्रमाण निर्मल देह की विक्रिया करता है।।२५३।।
शंख, चन्द्र और कुन्दपुष्प के समान धवल, नाना आभरणों से मण्डित, दिव्य तथा घंटा के शब्दयुक्त कक्षा (हाथी के पेट पर बाँधने की रस्सी) वाला उसका कुम्भस्थल तारागणों (धवल बिन्दुओं) से भूषित होता है।।२५४।।
उस हाथी के एक-एक दिशाभाग में सुवर्ण, मणि एवं रत्नों की मालाओं के समूह से संयुक्त बत्तीस उत्तम मुख होते हैं।।२५५।।
मणि और सुवर्ण से मण्डित एक-एक दिव्य मुख में नाना मणियों एवं रत्नों के परिणामरूप आठ-आठ धवल दाँत होते हैं।।२५६।। एक-एक दाँत पर निर्मल जल से परिपूर्ण एक सरोवर और एक-एक सरोवर में एक-एक कमलसमूह होता है।।२५७।।
एक कमलसमूह में एक-एक विचित्र वेदी से संयुक्त एक-एक दिशाभाग में स्थित एक-एक रमणीय तोरण होता है।।२५८।। एक-एक गच्छ में विकसित बत्तीस महापद्म होते हैं। उन पद्मों पर नाट्य व संगीत से रमणीय तथा एक-एक योजन प्रमाण पैâलने वाली सुरभि गन्ध से संयुक्त एक-एक कमल पुष्प होता है। मणियों एवं सुवर्ण के परिणामरूप ये दिव्य पुष्प देवों की विक्रिया रूप होते हैं।।२५९-२६०।।
एक-एक कमलकुसुम पर एक-एक नाट्यशाला और एक-एक नाट्यशाला में बत्तीस अप्सरायें होती हैं।।२६१।।
ये अप्सरायें इष्ट, प्रिय, कान्त तथा कोमल रूपों की विक्रिया कर अनुपम गुणों से युक्त बहुत प्रकार से अभिनय करती हैं।।२६२।।
उक्त देवियाँ समताल से युक्त कांस्यताल, उत्तम वीणा और विविध प्रकार की बाँसुरियों से मिश्रित तथा उत्तम मृदंग के शब्द से गम्भीर नाट्य अभिनय करती हैं।।२६३।।
जहाँ दक्षिण इन्द्र (सौधर्म) की बहुत सी अप्सराएँ लतापल्लवों से, मुखभंगविकार से और पाद संचार से युक्त नृत्य करती हैं।।२६४।।
ये अप्सराएँ मन्मथ (काम) के दर्प को उत्पन्न करने वाले व रतिरागरहस्य के जनक आश्चर्यकारक वेषों को रचती हैं।।२६५।।
उक्त अप्सराएँ गजेन्द्र के दातों पर स्थित तालाबों के कमलसमूहों पर कामविषयक राग को उत्पन्न करने वाले कान्त (रमणीय) व कोमल अंगों से नाचती हैं।।२६६।।
इस प्रकार नृत्य करने वाली उक्त सब रूपवती देवियाँ मन में हर्षित होकर जिन भगवान् के जन्मकल्याणक में जाती हैं।।२६७।।
इन्द्र के सत्ताईस करोड़ अप्सराएँ, आठ महादेवियाँ और एक लाख वल्लभाएँ होती हैं।।२६८।। ये देवियाँ गजराज की पीठ पर आरूढ होकर अतिआदरयुक्त होती हुई जन्ममहिमा में जाती हैं।।।२६९।।
जिस प्रकार दक्षिण इन्द्र की सात अनीकादिकों की संख्या है उसी प्रकार उत्तर इन्द्र की सात अनीकादिकों की संख्या जानना चाहिए।।२७०।। उसी प्रकार ईशान इन्द्र भी महान् वृषभ पर आरूढ़ हो बड़ी ऋद्धि से युक्त होकर भक्ति से यहाँ आता है।।२७१।।
सब इन्द्रों के सात अनीक होती हैं। इनके अतिरिक्त उनके तीन पारिषद और असंख्यात आत्मरक्षक देव होते हैं, ऐसा निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिए।।२७२।।
सभी इन्द्र जन्म महिमा से प्रेरित होकर अपनी-अपनी विभूति के साथ आकाशतल को व्याप्त करते हुए आते हैं।।२७३।।
सौधर्म कल्प से लेकर अच्युत कल्प तक के शेष देव भी नाना जम्पान (वाहन विशेष) वाहनों पर चढ़कर चल देते हैं।।२७४।।
भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देव भी विविध वाहनों पर चढ़कर जिन- शासन की भक्ति में रत होते हुए महाविभूतियों के साथ प्रस्थान करते हैं।।२७५।।
अहमिन्द्र देव भी आसन के कम्पित होने से प्रबोधित होते हुए सात पैर जाकर वहीं स्थित होकर नमस्कार करते हैं।।२७६।।
धवल छत्रों के समूह से सहित, ढुरते हुए उत्तम चामरों से संयुक्त, अतिशय आदर सहित, नाना प्रकार की पताकाओं के चिह्नों से संयुक्त, बहुत प्रकार के उत्तम वाहनों पर आरूढ़, हाथ में कंकण पहने हुए, कंठा और कटिसूत्र से विभूषित शरीर वाले, देदीप्यमान महामुकुट से सहित, मणिमय कुण्डलों से मण्डित कपोलों से संयुक्त, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, केयूर से विभूषित महाबाहुओं से सहित, त्रुटित (हाथ का एक आभूषण) और अंगदयुक्त वेष से सहित उत्तम वस्त्रों से विभूषित देह के धारक, गन्ध से व्याप्त कुसुममाला और निर्मल चन्दन की सुगन्धित गन्ध के समान निश्वास वाले, सुकुमार हाथ व पैरों से सहित और बहुत प्रकार के वर्णयुक्त उज्ज्वल शरीर वाले, इस प्रकार के वे देवगण महाविभूति के साथ मन्दरगिरि के शिखर पर विशाल व उत्तम पाण्डुकवन में स्थित नाना मणियों की चमकती हुई किरणों से सहित िंसहासनों पर श्रेष्ठ जिनेन्द्रकुमारों को क्षीर समुद्र के जल से नहलाते हैं—अभिषेक करते हैं।२७७-२८२।।
एक योजन प्रमाण मुखविस्तार से सहित, आठ योजन गहरे ऐसे मणि, सुवर्ण एवं रत्नों से शोभायमान जो एक हजार आठ कलश होते हैं, क्षीरसमुद्र के जल से परिपूर्ण उन रत्नमय कलशों द्वारा सब देव एकत्रित होकर जिनभगवानों के ऊपर (जलधारा) छोड़ते हैं।।२८३-२८४।।
यदि वे धारा पतनवेग से पर्वत शिखर पर गिरे तो वह पर्वत शिखर तत्क्षण सौ खण्ड हो जाय।।२८५।।
अनन्त बल और अनन्त माहात्म्य से संयुक्त सब जिनेन्द्र उन धारापतनों को कुश के अग्रभाग पर स्थित बूँद के समान मानते हैं।।२८६।।
ढक्का, शंख, काहल, मृदंग इनके समूह से; कांस्यताल, झालर, भेरी व दुंदुभि इनके विविध शब्दों से; मर्दल, तिवली तथा समुद्र घोष के समान भेरी शब्दों से; पुनः जयघंटा शब्दों से, मेघ के शब्द के समान भंभा शब्दों से, समुद्र के गम्भीर शब्दसमूह के समान पटुपटह शब्दों से तथा अन्य वाद्यसमूह के बजने पर मानो पर्वत सहित पृथ्वी विदीर्ण हो गई थी।।२८७-२८९।।
इस प्रकार भक्तिपूर्वक नहला-अभिषेक कर व वस्त्राभूषणों से अलंकृत करके पश्चात् दिव्य कुंकुमपंक का लेपन कर विशाल गुणों को प्रगट करने वाली स्तुतियों द्वारा स्तवन करके धर्मानुरागयुक्त वे सब देव जिस प्रकार से आए थे उसी प्रकार से वा४पस चले जाते हैं।।२९०-२९१।।
पंचम केवलज्ञान से सम्पन्न, पंचमगति (मोक्ष) के उपदेष्टा और श्रेष्ठ पद्मनन्दि द्वारा नमस्कृत पद्मनाथ जिनेन्द्र को मैं शिर से नमस्कार करता हूँ।।२९२।।
।। इस प्रकार जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में महाविदेहाधिकार का वर्णन करने
वाला चतुर्थ उद्देश समाप्त हुआ।।४।।