मंगलाचरण
-उपजाति छंद-
पुनातु मे संभवनाथ! चित्तं, पुन: पुन: संसृतिदु:खतप्तम्।
संस्तौमि नित्यं शरणं प्रपद्ये, भवाम्बुधे: पारगतं महेशम्।।१।।
श्री संभवनाथ स्तोत्र
-शंभु छंद-
हे मोहध्वांत हर ज्योतिरूप, भास्कर भवहर संभव स्वामी।
तव चरण सरोरुह को प्रणमूँ, धर्मेश्वर तीर्थेश्वर नामी।।
त्रैलोक्य अलोकाकाश सहित, सब तुमने अवलोकित कीना।
हे आप्त जिनेश्वर सब जग को, त्रैकालिक भी युगपत् जाना।।१।।
भगवन्। तव चरण कमल युग हैं, शुभदायक शरणभूत नामी।
हे संभव! भुवि पर भविजन को, शम् कीजे तुम्हें नमूँ स्वामी।।
श्रावस्ती में दृढ़राज पिता, औ मात सुषेणा धन्य हुए।
फाल्गुन शुक्ला अष्टमि तिथि थी, प्रभु मात गर्भ अवतीर्ण हुए।।२।।
कार्तिक पूर्णा में जन्म लिया, यश ज्योत्स्ना त्रिभुवन व्यापी।
हे नाथ! आपके वचनों की, सौरभता भी त्रिभुवन व्यापी।।
सोलह सौ हाथ तनू ऊँचा, आयू थी साठ लाख पूरब।
जन्मे तब से दश अतिशययुत, प्रभु को नमते सुर मस्तकनत।।३।।
जिनरूप धरा मगशिर पूर्णा में, कीर्ति चाँदनी पैâल रही।
कार्तिक वदि चौथ तिथी के दिन, वैâवल्यश्री से भेंट हुई।।
जब चैत्र सुदी षष्ठी आई, शिवकन्या ने वरमाल लिया।
कनकाभतनू भी अतनु हुए, फिर भी ग्रीवा में डाल दिया।।४।।
सम्मेदगिरी पर शिवलक्ष्मी ने, वरण किया शिवधाम मिला।
जग अश्वचिन्ह से है जाने, सब भव्यों का मन कमल खिला।।
भुवि शांति हेतु भव हानि हेतु, सुख वृद्धि हेतु संभव जिन हो।
मुझ भाक्तिकजन के सर्वसिद्धि, के हेतु सदा संभव जिन हो।।५।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।