-स्थापना-गीता छंद-
मंगलमयी सब लोक में, उत्तम शरणदाता तुम्हीं।
वर तीन चौबीसी जिनेश्वर, तीर्थकर्ता मान्य ही।।
इस भरत में ये भूत संप्रति, भावि तीर्थंकर कहे।
आह्वान करके जो जजें, वे स्वात्मसुख संपति लहें।।१।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थाननं।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टक-स्रग्विणी छंद-
नीर सरयू नदी का भरा लायके।
धार देऊँ प्रभो पाद में आयके।।
तीन चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँ।
जन्म व्याधी हरूँ सर्व दु:ख से बचूँ।।१।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध सौगंध्य कर्पूर केशर मिली।
पाद चर्चंत सम्यक्त्व कलिका खिली।।तीन चौबीसी.।।२।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
दुग्ध के फेन सम स्वच्छ अक्षत लिये।
पुंज को धारने स्वात्म संपत लिये।।तीन चौबीसी.।।३।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
केवड़ा मोगरा पुष्प अरविंद हैं।
नाथ पद पूजते कामशर भंग हैं।।तीन चौबीसी.।।४।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मुद्ग लाडू इमरती कनक थाल में।
पूजते भूख व्याधी हरूँ हाल में।।
तीन चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँ।
जन्म व्याधी हरूँ सर्व दु:ख से बचूँ।।५।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण के पात्र में ज्योति कर्पूर की।
नाथ की आरती मोह को चूरती।।तीन चौबीसी.।।६।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशगंध ले अग्नि में खेवते।
कर्म की भस्म हो नाथ पद सेवते।।तीन चौबीसी.।।७।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम अंगूर केला अनंनास ले।
नाथ पद अर्चते मुक्तिकांता मिले।।तीन चौबीसी.।।८।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंधादि वसु द्रव्य ले थाल में।
अर्घ्य अर्पण करूँ नाय के भाल मैं।।तीन चौबीसी.।।९।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
तीर्थंकर परमेश, त्रिभुवन शांतीकर सदा।
त्रिकरण शुद्धी हेत, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
-नरेन्द्र छंद-
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में, आर्यखण्ड है सुन्दर।
उत्सर्पिणि में भूतकाल में, हुए यहाँ तीर्थंकर।।
उन निर्वाणनाथ आदिक जिन, चौबीसों को पूजूँ।
नगरि अयोध्या जन्मभूमि को, जजते भव से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री निर्वाणनाथ-सागरनाथ-महासाधु-विमलप्रभ-श्रीधरनाथ-सुदत्तनाथ-अमलप्रभ-उद्धरनाथ-अंगिरनाथ-सन्मतिनाथ-सिंधुनाथ-कुसुमाँजलिनाथ-शिवगणनाथ-उत्साहनाथ-ज्ञानेश्वर-परमेश्वर-विमलेश्वर-यशोधरनाथ-कृष्णनाथ-ज्ञानमतिनाथ-शुद्धमतिनाथ-भद्रनाथ-अतिक्रान्तनाथ-शांतनाथ नाम-भूतकालीन-चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभ अजित अभिनंदन सुमती, जिन अनंत तीर्थंकर।
पाँच अयोध्या में जन्में ये, शेष जन्म अन्यत्र।।
हुंडा अवसर्पिणी काल यह, वर्तमान का मानो।
आर्यखंड में चौबिस जिनवर, इन्हें जजत दुख हानो।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवअजितनाथ-संभवनाथ-अभिनंदननाथ-सुमतिनाथ-पद्मप्रभ-सुपार्श्वनाथ-चन्द्रप्रभ-पुष्पदंतनाथ-शीतलनाथ-श्रेयांसनाथ-वासुपूज्यनाथ-विमलनाथ-अनंतनाथ-धर्मनाथ-शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ-मल्लिनाथ-मुनिसुव्रतनाथ-नमिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीरस्वामि नाम-वर्तमानकालीन-चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आने वाली उत्सर्पिणि में, चौबिस जिनवर होंगे।
महापद्म आदिक तीर्थंकर, स्वयं सिद्धपद लेंगे।।
नगरि अयोध्या में जन्मेंगे, उन सबके गुण गाऊँ।
अष्ट द्रव्य ले अर्घ्य चढ़ाकर, सब दुख शोक नशाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री महापद्मनाथ-सुरदेवनाथ-सुपार्श्वनाथ-स्वयंप्रभनाथ-सर्वात्मभूतनाथ-देवपुत्रनाथ-कुलपुत्रनाथ-उदंकनाथ-प्रोष्ठिलनाथ-जयकीर्तिनाथ-मुनिसुव्रतनाथ-अमरनाथ-निष्पापनाथ-निष्कषायनाथ-विपुलनाथ-निर्मलनाथ-चित्रगुप्तनाथ-समाधिगुप्तनाथ-स्वयंभूनाथ-अनिवर्तकनाथ-जयनाथ-विमलनाथ-देवपालनाथ-अनंतवीर्यनाथ-नाम-भविष्यत्कालीनचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य–ॐ ह्रीं त्रैकालिकद्वासप्ततितीर्थंकरेभ्यो नम:।
(९ बार या १०८ बार पुष्प या पीले चावल से जाप्य करें)
-दोहा-
तीर्थंकर के जन्म से, नगरि अयोध्या वंद्य।
गाऊँ गुणमाला अबे, पाऊँ सौख्य अनिंद्य।।१।।
-शेर छंद-
जैवंत मुक्तिकान्त देव देव हमारे।
जैवंत भक्तवृन्द भवोदधि से उबारे।।
जैवंत तीन काल के तीर्थेश बहत्तर।
जैवंत तीन चौबिस के सर्व तीर्थकर।।२।।
जय भूतकाल के अनंतानंत तीर्थकर।
जय जय भविष्य के अनंतानंत तीर्थकर।।
इन भूत भावि जिन की जन्मभूमि अयोध्या।
शाश्वत त्रिलोक वंद्य महातीर्थ अयोध्या।।३।।
जय पंचकल्याणक पति जिनराज को नमूँ।
जय दो या तीन कल्याणक धारें उन्हें नमूँ।।
हे नाथ! आप जन्म के छह माह ही पहले।
धनराज रत्नवृष्टि करें मात के पहले।।४।।
जब आप मात गर्भ में अवतार धारते।
तब इन्द्र सपरिवार आय भक्ति भाव से।।
प्रभु ग्ार्भकल्याणक महाउत्सव विधी करें।
माता पिता की भक्ति से पूजन विधी करें।।५।।
हे नाथ! आप जन्मते सुरलोक हिल उठे।
इन्द्रासनों के कंप से आश्चर्य हो उठे।।
भेरी करा सब देव का आह्वान करे हैं।
जन्माभिषेक करने का उत्साह भरे हैं।।६।।
सुरराज आ जिनराज को सुरशैल ले जाते।
सुरगण असंख्य मिलके महोत्सव को मनाते।।
जब आप हो विरक्त देव सर्व आवते।
दीक्षा विधी उत्सव महामुद से मनावते।।७।।
जब घातिया को घात ज्ञानसंपदा भरें।
तब इन्द्र आ अद्भुत समवसरण विभव करें।।
जब आप मृत्यु जीत मुक्तिधाम में बसें।
सिद्ध्यंगना के साथ परमानंद सुख चखें।।८।।
सब इन्द्र आ निर्वाण महोत्सव मनावते।
प्रभु पंचकल्याणकपती को शीश नावते।।
मैं आप शरण पाय के सचमुच कृतार्थ हूँ।
बस ‘ज्ञानमती’ पूर्ण होने तक ही दास हूँ।।९।।
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
पंचमगति के हेतु मैं, नमन करूँ पंचांग।
परमानंद अमृत अतुल, मिले सौख्य सर्वांग।।१०।।
।।इत्याशीर्वाद:।।