त्रिशून्यपंचद्व्यंकेऽस्मिन्, वीराब्दे हस्तिनापुरे।
माघशुक्लाचतुर्दश्यां, नामस्तोत्रं प्रपूर्यते।।१।।
येषां भक्त्या मया स्तोत्रं, कृतं तेषाममुत्र वै।
साक्षाद् हि दर्शनं भूयात्, इत्थं याञ्चां करोम्यहं।।२।।
यावत् श्रीजैनधर्मोऽयं, स्थेयात् भव्यहितंकर:।
तावन्नंद्यात् कृतिश्चेयं, दद्यात् ज्ञानमिंत श्रियम्।।३।।
-दोहा-
वीर अब्द पच्चीस सौ, तीन माघ सुदि श्रेष्ठ।
चौदश तिथि में तीर्थ वर, हस्तिनागपुर क्षेत्र।।१।।
‘ज्ञानमती’ मैं आर्यिका, पूर्ण किया स्तव पद्म।
जैनधर्म जब तक रहे, पूरे सब कर्त्तव्य।।२।।
त्रयकालिक के तीस ये, चौबीसी मुनिवंद्य।
उनकी नाम स्तुति कही, हो जग में अभिनंद्य।।३।।