—नरेंद्र छंद—
पूर्व धातकी विदेह पूरब, सीतानदि उत्तर पे।
अलकापुरि में देवसेन पितु, मातु देवसेना के।।
गर्भ बसे श्री संजातक प्रभु, सुरपति सुरगण नमते।
पुनर्जन्म के नाश हेतु हम, गर्भकल्याणक वंदें।।१।।
श्री आदि देवियों पूजित माँ से, जन्म लिया तीर्थेश्वर।
सुरपति जिन बालक को लेकर, बैठे ऐरावत पर।।
सुरगिरि पहुँचे जन्म महोत्सव, किया इंद्रगण मिलकर।
जन्मकल्याणक मैं नित वंदूँ, मिले जनम अविनश्वर।।२।।
रवी चिन्हयुत प्रभु विरक्त जब, इंद्र सभी मिल आये।
मणिमय रत्न पालकी में तब, प्रभुवर को बैठाये।।
मनहारी उद्यान पहुँच कर, प्रभु ने जिनदीक्षा ली।
दीक्षाकल्याणक नमते ही, मिले स्वात्मगुण शैली।।३।।
बहुत काल तक तपश्चरण कर, दीक्षा वन में पहुँचे।
शुक्लध्यान में लीन प्रभू तब, केवल रवि बन चमके।।
धनपति समवसरण रच करके, ज्ञानकल्याणक पूजें।
गंधकुटी में संजातक प्रभु, वंदत भव से छूटें।।४।।
संप्रति केवलज्ञानी जिनवर, शिवरमणी पायेंगे।
मृत्यु नाश मृत्युञ्जय होकर, सिद्धालय जायेंगे।।
इंद्र सभी प्रभु मोक्षकल्याणक, पूजेंगे भक्ती से।
मैं भी वंदूँ मोक्षकल्याणक, नशें कर्म युक्ती से।।५।।