—गीता छंद—
पश्चिम सुधातकि द्वीप में वर अचल मेरु प्रसिद्ध है।
पूरब विदेह सुमध्य सीता नदी उत्तर में कहे।।
विजयापुरी पितु नागराज प्रसू सुभद्रा सुर नमें।
श्री सूरिप्रभ गर्भावतार सुवंदते नहिं भव भ्रमें।।१।।
गुण पुंज भगवन पुण्यफल, प्रभु जन्मते बाजे बजे।
देवों के आसन कंप उठे, शत इंद्रगण हर्षित अबे।।
सुर शैल पर तीर्थेश प्रभु का, जन्म अभिषव था हुआ।
जिन जन्मकल्याणक नमत, मेरा जनम पावन हुआ।।२।।
प्रभु राज्य शासन किया, फिर मन में विरक्ती छा गई।
सुरगण स्वयं ही आ गये, वर पालकी तब आ गई।।
सुरपति मनोहर बाग में, लेकर गये प्रभु चौक पे।
‘‘सिद्धं नम:’’ कह लोच कर, दीक्षा ग्रही वंदूँ अबे।।३।।
बहु विध तपस्या कर जिनेश्वर, शुक्लध्यानी हो गये।
दीक्षा तरू तल में त्रिलोकी, सूर्य केवल पा गये।।
सुंदर समवसृति में अधर, तिष्ठे असंख्यों भव्य को।
संबोध वच पीयूष से, तारा नमूँ जिनसूर्य को।।४।।
बहुकाल भू पर श्रीविहार, समस्त जन सुख हेतु हैं।
गुणथान चौदह के उपरि, मुक्तीनगर अभिप्रेत है।।
अतिशय अतींद्रिय सौख्य, परमानंद अमृत पायेंगे।
श्री सूरिप्रभ का मोक्षकल्याणक, नमूँ गुण गाय के।।५।।