अथ वृहद्दीक्षायां लोचस्वीकारक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(णमोकार मंत्र, चत्तारि मंगल, अड्ढाइज्जदीव’ आदि सामायिक दण्डक पृ. १४ से पढ़कर ९ बार महामंत्र जपकर ‘थोस्सामि’ स्तव पढ़कर पृ. २८ से सिद्धभक्ति पढ़ें)
पुन:-
अथ वृहद्दीक्षायां लोचस्वीकारक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं योगिभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् सामायिक दण्डक, ९ बार महामंत्र जाप्य व थोस्सामि स्तव पढ़कर पृ. ३२ से योगिभक्ति पढ़ें।)
अनंतर आचार्यदेव आगे का तीन बार मंत्र पढ़कर दीक्षार्थी के मस्तक पर भगवान का गंधोदक तीन बार छिड़कें, पुन: गुरु दीक्षार्थी के मस्तक पर अपना बायां हाथ रखें।
गंधोदक क्षेपण का मंत्र-
ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षीणाशेषदोषकल्मषाय दिव्यतेजो-मूर्तये नम: श्रीशांतिनाथाय शान्तिकराय सर्वपापप्रणाशनाय सर्वविघ्न-विनाशनाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्वपरकृतक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय सर्वक्षामडामरविनाशनाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा अमुकस्य (दीक्षार्थी का नाम) सर्वशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा।
इसके बाद आगे का वर्धमानमंत्र पढ़ते हुए दीक्षार्थी के मस्तक पर दही, अक्षत, गोमय और दूब का क्षेपण करें।
वर्धमान मंत्र-
ॐ णमो भयवदो वड्ढमाणस्स रिसिस्स जं चक्कं जलंतं गच्छइ आयासं पायालं लोयाणं भूयाणं जये वा विवादे वा थंभणे वा रणंगणे वा रायंगणे वा मोहणे वा सव्वजीवसत्ताणं अपराजिदो भवदु रक्ख रक्ख स्वाहा।
पुन: पवित्र भस्म में कपूर मिलाकर-
ॐ णमो अरहंताणं रत्नत्रयपवित्रीकृतोत्तमांगाय ज्योतिर्मयाय मतिश्रुता- वधिमन:पर्ययकेवलज्ञानाय असि आ उसा स्वाहा।
यह मंत्र पढ़कर दीक्षार्थी के मस्तक पर कर्पूरमिश्रित भस्म क्षेपण करें-
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं असि आ उसा स्वाहा।
यह मंत्र पढ़कर मस्तक में बीच के केशों का प्रथम बार लोंच करे।
पुन: आगे के पाँच मंत्रों को क्रम से पढ़ते हुए मस्तक के बीच में, पूर्व में आदि क्रम से केश उखाड़े।
अर्थात्-ॐ ह्राँ अर्हद्भ्यो नम:’ मंत्र बोलकर मस्तक के बीच के केश उखाड़े-केशलोंच करे।
‘ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यो नम:’ मंत्र पढ़कर मस्तक के पूर्व का केशलोंच करे।
‘ॐ ह्रूँ सूरिभ्यो नम:’ मंत्र बोलकर मस्तक के दायीं तरफ केशलोंच करे।
‘ॐ ह्रौँ पाठकेभ्यो नम:’ मंत्र बोलकर बायीं तरफ का केशलोंच करे।
‘ॐ ह्र: सर्वसाधुभ्यो नम:’ मंत्र बोलकर मस्तक के पीछे का केशलोंच करे। इस प्रकार गुरु अपने हाथों से इन मंत्रों से पाँच बार केशलोंच कर देवें।
अनंतर यदि पहले केशलोंच करके नहीं आये हैं ऐसे क्षुल्लक या ऐलक हैं तो उनके पूरे केशलोंच कोई भी कर सकते हैं। केशलोंच हो जाने के बाद लोचनिष्ठापन की भक्ति करना है। यथा-
अथ वृहद्दीक्षायां लोचनिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्व के समान सामायिक दण्डक, ९ बार महामंत्र का जाप्य व थोस्सामि स्तव पढ़कर ‘सिद्धानुद्धूत’ आदि पृ. २८ से सिद्धभक्ति पढ़ें।)
पुन: दीक्षार्थी के मस्तक में जो भस्म-राख लग गई है उसे गरम जल से धो देवें। तब दीक्षार्थी लघु आचार्यभक्ति पढ़कर गुरु को नमस्कार करे।
अनंतर दीक्षा के चौक पर ही खड़े होकर दीक्षार्थी ब्रह्मचारी या श्रावक वस्त्र, आभूषण, यज्ञोपवीत आदि को उतार देवे। यदि क्षुल्लक या ऐलक हैं तो अपने वस्त्र उतार देवें और मंगल चौक से न हटकर वहीं पर बैठकर गुरु से दीक्षा की याचना करें।
अर्थात् दीक्षार्थी एक बार दीक्षा के चौक पर बैठ जावें तो पुन: दीक्षा विधि पूर्ण होने तक दीक्षा के चौक से नहीं उठते हैं।
तब आचार्यदेव दीक्षार्थी के मस्तक पर केशर से ‘श्रीकार’ लिखें।
५
२४ श्री: २
३
ऐसा लिखकर-
ॐ ह्रीं अर्हं अ सि आ उसा ह्रीं स्वाहा।
इस मंत्र से १०८ बार जाप्य करें अर्थात् एक-एक बार मंत्र बोलते हुए मस्तक पर पीले पुष्प क्षेपण करें। अनंतर दीक्षार्थी की अंजलि में केशर, कर्पूर मिश्रित श्रीखंड से ‘श्रीकार’ लिखकर उसके चारों दिशाओं में-
रयणत्तयं च वंदे, चउवीसजिणं तहा वंदे।
पंचगुरूणं वंदे, चारणजुगलं तहा वंदे।।
यह गाथा पढ़ते हुए क्रम से ‘श्री:’ के पूर्व में अर्थात् सामने ३ का अंक लिखें, दक्षिण में २४ लिखें, पश्चिम में ५ लिखें व उत्तर-बायीं तरफ २ का अंक लिखें, पुन:-
‘‘सम्यग्दर्शनाय नम:, सम्यग्ज्ञानाय नम:, सम्यक्चारित्राय नम:।’’
मंत्र पढ़ते हुए दीक्षार्थी की अंजुलि में तंदुल-धुले हुए चावल भरकर ऊपर में नारियल और सुपाड़ी रख देवें और-
सिद्ध, चारित्र, योगिभक्ति ये तीन भक्तियाँ पढ़कर व्रतादि प्रदान करें।
प्रयोग विधि-
अथ वृहद्दीक्षायां व्रतदानक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् पृ. १४ से सामायिकदण्डक, ९ बार महामंत्र का जाप्य व थोस्सामि पढ़कर नीचे लिखी सिद्धभक्ति पढ़ें।) पुन:-
सिद्धानुद्धूतकर्मप्रकृतिसमुदयान्साधितात्मस्वभावान् ।
वंदे सिद्धिप्रसिद्ध्यै तदनुपमगुणप्रग्रहाकृष्टितुष्टः।।
सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः प्रगुणगुणगणोच्छादिदोषापहारात्।
योग्योपादानयुक्त्या दृषद इह यथा हेमभावोपलब्धिः।।१।।
नाभावः सिद्धिरिष्टा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिर्न युक्ते-
रस्त्यात्मानादिबद्धः स्वकृतजफलभुक् तत्क्षयान्मोक्षभागी।।
ज्ञाता द्रष्टा स्वदेहप्रमितिरूपसमाहारविस्तारधर्मा।
ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्यसिद्धिः।।२।।
स त्वन्तर्बाह्यहेतुप्रभवविमलसद्दर्शनज्ञानचर्या-
सम्पद्धेतिप्रघातक्षतदुरिततया व्यञ्जिताचिन्त्यसारैः।।
वैâवल्यज्ञानदृष्टिप्रवरसुखमहावीर्य-सम्यक्त्वलब्धि-
ज्योतिर्वातायनादिस्थिरपरमगुणैरद्भुतैर्भासमानः ।।३।।
जानन्पश्यन्समस्तं सममनुपरतं संप्रतृप्यन्वितन्वन्,
धुन्वन्ध्वान्तं नितान्तं निचितमनुसभं प्रीणयन्नीशभावम्।
कुर्वन्सर्वप्रजानामपरमभिभवन् ज्योतिरात्मानमात्मा।।
आत्मन्येवात्मनासौ क्षणमुपजनयन्सत्स्वयंभू प्रवृत्तः।।४।।
छिन्दन्शेषानशेषान्निगलबलकलींस्तैरनन्तस्वभावैः
सूक्ष्मत्वाग्र्यावगाहागुरुलघुकगुणैः क्षायिवैâः शोभमानः।
अन्यैश्चान्यव्यपोहप्रवणविषयसंप्राप्तिलब्धिप्रभावै-
रूर्ध्वंव्रज्यास्वभावात्समयमुपगतो धाम्नि संतिष्ठतेग्र्ये।।५।।
अन्याकाराप्तिहेतुर्न च भवति परो येन तेनाल्पहीनः
प्रागात्मोपात्तदेहप्रतिकृतिरुचिराकार एव ह्यमूर्तः।
क्षुत्तृष्णाश्वासकासज्वरमरणजरानिष्टयोगप्रमोह –
व्यापत्त्याद्युग्रदुःखप्रभवभवहतेः कोऽस्य सौख्यस्य माता।।६।।
आत्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवद्वीतबाधं विशालं।
वृद्धिह्रासव्यपेतं विषयविरहितं निष्प्रतिद्वन्द्वभावम् ।
अन्यद्रव्यानपेक्षं निरुपमममितं शाश्वतं सर्वकालं।
उत्कृष्टानन्तसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् ।।७।।
नार्थः क्षुत्तृट्विनाशाद्विविधरसयुतैरन्नपानैरशुच्या-
नास्पृष्टेर्गन्धमाल्यैर्नहि मृदुशयनैर्ग्लानिनिद्राद्यभावात् ।
आतंकार्तेरभावे तदुपशमनसद्भेषजानर्थतावद्
दीपानर्थक्यवद्वा व्यपगततिमिरे दृश्यमाने समस्ते।।८।।
तादृक्सम्पत्समेता विविधनयतपः संयमज्ञानदृष्टि-
चर्यासिद्धाः समन्तात्प्रविततयशसो विश्वदेवाधिदेवाः।
भूता भव्या भवन्तः सकलजगति ये स्तूयमाना विशिष्टैः
तान्सर्वान्नौम्यनंतान्निजिगमिषुररं तत्स्वरूपं त्रिसन्ध्यम् ।।९।।
-क्षेपक श्लोक-आर्या-
कृत्वा कायोत्सर्गं, चतुरष्टदोषविरहितं सुपरिशुद्धम् ।
अतिभक्ति-संप्रयुक्तो, यो वंदते स लघु लभते परमसुखम्।।
अंचलिका–इच्छामि भंत्ते! सिद्धभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचारित्तजुत्ताणं अट्ठविहकम्मविप्पमुक्काणं अट्ठगुणसंपण्णाणं उढ्ढलोयमत्थयम्मि पयट्ठियाणं तवसिद्धाणं-णयसिद्धाणं संजमसिद्धाणं-चरित्तसिद्धाणं अतीताणागदवट्टमाण-कालत्तयसिद्धाणं सव्वसिद्धाणं णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
अथ वृहद्दीक्षायां व्रतदानक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजा-वन्दनास्तवसमेतं चारित्रभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् सामायिक दण्डक, ९ बार महामंत्र जाप्य व थोस्सामि पढ़कर आगे लिखी चारित्रभक्ति पढ़ें)
येनेन्द्रान्भुवनत्रयस्य विलसत्केयूरहारांगदान्।
भास्वन्मौलिमणिप्रभाप्रविसरोत्तुङ्गोत्तमाङ्गान्नतान् ।।
स्वेषां पादपयोरुहेषु मुनयश्चक्रुः प्रकामं सदा।
वंदे पंचतयं तमद्य निगदन्नाचारमभ्यर्चितम् ।।१।।
अर्थव्यंजनतद्द्वयाविकलताकालोपधाप्रश्रयाः।
स्वाचार्याद्यनपन्हवो बहुमतिश्चेत्यष्टधा व्याहृतम्।।
श्रीमज्ज्ञातिकुलेन्दुना भगवता तीर्थस्य कर्त्रांऽजसा।
ज्ञानाचारमहं त्रिधा प्रणिपताम्युद्धूतये कर्मणाम् ।।२।।
शंकादृष्टिविमोहकांक्षणविधिव्यावृत्तिसन्नद्धतां।
वात्सल्यं विचिकित्सनादुपरतिं धर्मोपबृंहक्रियाम् ।।
शक्त्या शासनदीपनं हितपथाद्भ्रष्टस्य संस्थापनम्।
वंदे दर्शनगोचरं सुचरितं मूर्ध्ना नमन्नादरात् ।।३।।
एकान्ते शयनोपवेशनकृतिः संतापनं तानवम् ।
संख्यावृत्तिनिबन्धनामनशनं विष्वाणमर्द्धोदरम् ।।
त्यागं चेन्द्रियदन्तिनो मदयतः स्वादो रसस्यानिशम्।
षोढा बाह्यमहं स्तुवे शिवगतिप्राप्त्यभ्युपायं तपः।।४।।
स्वाध्याय: शुभकर्मणश्चयुतवतः संप्रत्यवस्थापनम् ।
ध्यानं व्यापृतिरामयाविनि गुरौ वृद्धे च बाले यतौ।।
कायोत्सर्जनसत्क्रिया विनय इत्येवं तपः षड्विधं।
वंदेऽभ्यंतरमन्तरंगबलवद्विद्वेषिविध्वंसनम् ।।५।।
सम्यग्ज्ञानविलोचनस्य दधतः श्रद्धानमर्हन्मते।
वीर्यस्याविनिगूहनेन तपसि स्वस्य प्रयत्नाद्यतेः।।
या वृत्तिस्तरणीव नौरविवरा लघ्वी भवोदन्वतो।
वीर्याचारमहं तमूर्जितगुणं वंदे सतामर्चितम् ।।६।।
तिस्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः।
पंचेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पंचव्रतानीत्यपि।।
चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्वं न दृष्टं परै-
राचारं परमेष्ठिनो जिनपतेर्वीरं नमामो वयम् ।।७।।
आचारं सहपंचभेदमुदितं तीर्थं परं मंगलं।
निर्ग्रन्थानपि सच्चरित्रमहतो वंदे समग्रान्यतीन् ।।
आत्माधीनसुखोदयामनुपमां लक्ष्मीमविध्वंसिनी-
मिच्छन्केवलदर्शनावगमनप्राज्यप्रकाशोज्वलाम् ।।८।।
अज्ञानाद्यदवीवृतं नियमिनोऽवर्तिष्यहं चान्यथा।
तस्मिन्नर्जितमस्यति प्रतिनवं चैनो निराकुर्वति।।
वृत्ते सप्ततयीं निधिं सुतपसामृद्धिं नयत्यद्भुतं।
तन्मिथ्या गुरु दुष्कृतं भवतु मे स्वं निंदतो निंदितम्।।९।।
संसारव्यसनाहतिप्रचलिता नित्योदयप्रार्थिनः।
प्रत्यासन्नविमुक्तयः सुुमतयः शांतैनसः प्राणिनः।।
मोक्षस्यैव कृतं विशालमतुलं सोपानमुच्चैस्तरा-
मारोहन्तु चारित्रमुत्तममिदं जैनेन्द्रमोजस्विनः।।१०।।
अथ वृहद्दीक्षायां व्रतदानक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजा-वन्दनास्तवसमेतं योगिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् सामायिकदण्डक, ९ बार जाप्य, थोस्सामि स्तव पढ़कर आगे लिखी योगिभक्ति पढ़ें)
-दुवई छंद-
जाति-जरोरु-रोगमरणा-तुरशोक-सहस्रदीपिताः।
दुःसह-नरक-पतन-सन्त्रस्त-धियः प्रतिबुध-चेतसः।।
जीवित-मंबुबिंदु-चपलं तडि-दभ्र-समा विभूतयः।
सकल-मिदं विचिन्त्य मुनयः प्रशमाय वनान्त-माश्रिताः।।१।।
-भद्रिका छंद-
व्रतसमिति-गुप्तसंयुताः शमसुख-माधाय मनसि वीतमोहाः।।
ध्यानाध्ययन-व्ाशंगताः, विशुद्धये कर्मणां तपश्चरन्ति।।२।।
दिनकर-किरण-निकर-संतप्त-शिला-निचयेषु निस्पृहाः।
मलपटला-वलिप्त-तनवः शिथिली-कृत-कर्मबंधनाः।।
व्यपगत-मदन-दर्परतिदोष-कषाय-विरक्त-मत्सराः।
गिरिशिखरेषु चंडकिरणा-भिमुख-स्थितयो दिगंबराः।।३।।
सज्ज्ञाना-मृत-पायिभिः क्षान्तिपयः सिच्यमान-पुण्यकायैः।
धृतसंतोष-च्छत्रवैâः, तापस्-तीव्रोऽपि सह्यते मुनीन्द्रैः।।४।।
शिखिगल-कज्जला-लिमलिनै-र्विबुधा-धिप-च पचित्रितैः।
भीमरवै-र्विसृष्ट-चण्डाशनि-शीतल-वायु-वृष्टिभिः।।
गगनतलं विलोक्य जलदैः स्थगितं सहसा तपोधनाः।
पुनरपि तरुतलेषु विषमासु निशासु विशंक-मासते।।५।।
जलधारा-शर-ताडिता न चलन्ति चरित्रतः सदा नृसिंहाः।
संसारदुःख-भीरवः परीषहा-राति-घातिन-प्रवीराः।।६।।
अविरत-बहल-तुहिन-कणवारिभि-रंघ्रिप-पत्रपातनैः
अनवरत-मुक्त-सीत्कार-रवैःपरुषैः-
रथानिलैः शोषित-गात्र-यष्टयः।
इह श्रमणा धृतिकंबला-वृता: शिशिर-निशां।
तुषार-विषमां गमयन्ति चतु:पथे स्थिताः।।७।।
इति योग-त्रय धारिण: सकल-तपः-शालिनः प्रवृद्ध-पुण्यकायाः।
परमानंद-सुखैषिणः समाधि-मग्रयं दिशंतु नो भदन्ताः।।८।।
गिम्हे गिरिसिहरत्था वरिसायाले रुक्खमूलरयणीसु।
सिसरे वाहिरसयणा ते साहू वंदिमो णिच्चं।।९।।
गिरिकंदरदुर्गेषु ये वसन्ति दिगम्बराः।
पाणिपात्रपुटाहारास्ते यांति परमां गतिं।।१०।।
अंचलिका-इच्छामि भंते! योगिभत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं अढ्ढाइज्ज-दीव-दो-समुद्देसु पण्णारस-कम्म-भूमिसु आदावण-रुक्ख-मूल-अब्भोवास-ठाण-मोण-वीरासणेक्क-पास-कुक्कुडासण-चउत्थ-पक्ख-खवणादियोग-जुत्ताणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
पहले गाथा पढ़ें पुन: समयानुसार उसका अर्थ दीक्षार्थी को व सभा में बतलावें।
अनंतर अट्ठाईस मूलगुण व्रत देवें। जिसकी विधि इस प्रकार है-
वदसमिदिंदिय रोधो लोचो आवासयमचेलमण्हाणं।
खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च।।
पंच महाव्रत पंचसमिति पंचेन्द्रियरोधषडावश्यकक्रियादयोऽष्टाविंशतिमूलगुणा उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि दशलाक्षणिको धर्म:, अष्टादशशीलसहस्राणि चतुरशीतिलक्षगुणास्त्रयोदशविधं चारित्रं द्वादशविधं तपश्चेति सकलं संपूर्णं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसाक्षिकं सम्यक्त्वपूर्वकं दृढव्रतं सुव्रतं समारूढं ते भवतु। (तीन बार बोलें)
इस पाठ को तीन बार बोलकर शिष्य को व्रतों को प्रदान करें। यहाँ पर अट्ठाईस मूलगुणों का स्पष्टीकरण कर सकते हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिरोध, केशलोंच, छह आवश्यक क्रियाएँ, आचेलक्य-सर्ववस्त्रत्याग, अस्नान, भूमि पर शयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन-खड़े होकर भोजन व एकभक्त-एक बार भोजन।
मूलाचार ग्रंथ या ‘दिगम्बर मुनि’ पुस्तक के आधार से इन व्रतों का स्पष्टीकरण करके प्रदान करें।
यदि समयाभाव है तो अट्ठाईस मूलगुणों के नाम बतलाकर व्रत दे देवें। अनंतर दीक्षा विधि के बाद अपने स्थान पर शिष्य को समझा देवें।
पुन: शांतिभक्ति का पाठ करें-
अथ वृहद्दीक्षायां व्रतदानक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं शांतिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पूर्ववत् सामायिकदण्डक, ९ जाप्य व थोस्सामि पढ़कर न स्नेहाच्छरणं…. आदि भक्ति पढ़ें)।
न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन् ! पादद्वयं ते प्रजाः।
हेतुस्तत्र विचित्रदुःखनिचयः, संसारघोरार्णवः।।
अत्यन्तस्फुरदुग्ररश्मिनिकर-व्याकीर्णभूमण्डलो।
ग्रैैष्मः कारयतीन्दुपादसलिल-च्छायानुरागं रविः।।१।।
क्रुद्धाशीर्विषदष्टदुर्जयविषज्वालावलीविक्रमो।
विद्याभेषजमन्त्रतोयहवनैर्याति प्रशांतिं यथा।।
तद्वत्ते चरणारुणांबुजयुग-स्तोत्रोन्मुखानां नृणाम्।
विघ्नाः कायविनायकाश्च सहसा, शाम्यन्त्यहो! विस्मयः।।२।।
संतप्तोत्तमकांचनक्षितिधरश्रीस्पर्द्धिगौरद्युते।
पुंसां त्वच्चरणप्रणामकरणात्, पीडाः प्रयान्ति क्षयं।।
उद्यद्भास्करविस्फुरत्करशतव्याघातनिष्कासिता।
नानादेहिविलोचनद्युतिहरा, शीघ्रं यथा शर्वरी।।३।।
त्रैलोक्येश्वरभंगलब्धविजयादत्यन्तरौद्रात्मकान् ।
नानाजन्मशतान्तरेषु पुरतो, जीवस्य संसारिणः।।
को वा प्रस्खलतीह केन विधिना, कालोग्रदावानला-
न्नस्याच्चेत्तव पादपद्मयुगलस्तुत्यापगावारणम्।।४।।
लोकालोकनिरन्तरप्रविततज्ञानैकमूर्ते! विभो!।
नानारत्नपिनद्धदंडरुचिरश्वेतातपत्रत्रय! ।।
त्वत्पादद्वयपूतगीतरवतः शीघ्रं द्रवन्त्यामयाः।
दर्पाध्मातमृगेन्द्रभीमनिनदाद्वन्या यथा कुञ्जराः।।५।।
दिव्यस्त्रीनयनाभिराम! विपुलश्रीमेरुचूडामणे!
भास्वद्बालदिवाकरद्युतिहरप्राणीष्टभामंडल!।।
अव्याबाधमचिन्त्यसारमतुलं, त्यक्तोपमं शाश्वतं।
सौख्यं त्वच्चरणारविंदयुगलस्तुत्यैव संप्राप्यते।।६।।
यावन्नोदयते प्रभापरिकरः, श्रीभास्करो भासयं-
स्तावद्-धारयतीह पंकजवनं, निद्रातिभारश्रमम् ।।
यावत्त्वच्चरणद्वयस्य भगवन्न स्यात्प्रसादोदय-
स्तावज्जीवनिकाय एष वहति प्रायेण पापं महत्।।७।।
शांतिं शान्तिजिनेन्द्र! शांतमनसस्त्वत्पादपद्माश्रयात्।
संप्राप्ताः पृथिवीतलेषु बहवः शांत्यर्थिनः प्राणिनः।।
कारुण्यान्मम भाक्तिकस्य च विभो! दृष्टिं प्रसन्नां कुरु।
त्वत्पादद्वयदैवतस्य गदतः शांत्यष्टकं भक्तितः।।८।।
शांतिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं, शीलगुणव्रतसंयमपात्रम्।
अष्टशतार्चितलक्षणगात्रं, नौमि जिनोत्तममम्बुजनेत्रम्।।९।।
पंचममीप्सितचक्रधराणां, पूजितमिंद्र-नरेन्द्रगणैश्च।
शांतिकरं गणशांतिमभीप्सुः षोडशतीर्थकरं प्रणमामि।।१०।।
दिव्यतरुः सुरपुष्पसुवृष्टिर्दुन्दुभिरासनयोजनघोषौ।
आतपवारणचामरयुग्मे, यस्य विभाति च मंडलतेजः।।११।।
तं जगदर्चितशांतिजिनेन्द्रं, शांतिकरं शिरसा प्रणमामि।
सर्वगणाय तु यच्छतु शांतिं, मह्यमरं पठते परमां च।।१२।।
येभ्यर्चिता मुकुटकुंडलहाररत्नैः।
शक्रादिभिः सुरगणैः स्तुतपादपद्माः।।
ते मे जिनाः प्रवरवंशजगत्प्रदीपाः।
तीर्थंकराः सततशांतिकरा भवंतु।।१३।।
संपूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्रसामान्यतपोधनानां।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः, करोतु शांतिं भगवान् जिनेन्द्रः।।१४।।
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान्धार्मिको भूमिपालः।
काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यांतु नाशं।।
दुर्भिक्षं चोरिमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके।
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं, सर्वसौख्यप्रदायि।।१५।।
तद्द्रव्यमव्ययमुदेतु शुभः स देशः, संतन्यतां प्रतपतां सततं स कालः।
भावः स नन्दतु सदा यदनुग्रहेण, रत्नत्रयं प्रतपतीह मुमुक्षवर्गे।।१६।।
प्रध्वस्तघातिकर्माणः, केवलज्ञानभास्कराः।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वराः।।१७।।
अंचलिका-इच्छामि भंते! संतिभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं पंचमहाकल्लाण-संपण्णाणं, अट्ठमहापाडिहेरसहियाणं, चउतीसाति-सयविशेषसंजुत्ताणं, बत्तीसदेवेंदमणिमयमउडमत्थयमहियाणं, बलदेववा-सुदेवचक्कहररिसिमुणिजइअणगारोवगूढाणं, थुइसयसहस्सणिलयाणं उसहाइवीरपच्छिममंगलमहापुरिसाणं, णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिनगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
इसके बाद आशीर्वाद श्लोक पढ़कर दीक्षार्थी के हाथ के नारियल, सुपारी, तंदुल को दाता को दिला देवें।
श्रीशांतिरस्तु शिवमस्तु जयोऽस्तु नित्य-
मारोग्यमस्तु तव पुष्टिसमृद्धिरस्तु।
कल्याणमस्त्वभिमतस्तव वृद्धिरस्तु,
दीर्घायुरस्तु कुलगोत्रधनं सदास्तु।।
(यहाँ पर दाता शब्द से जिन्होंने गणधरवलय विधान आदि कराकर मंगल स्नान आदि कराया है, उन्हें लिया है और उन्हीं को यह नारियल आदि शिष्य के अंजलि के चावल आदि दिलाते हैं। वर्तमान में माता-पिता बनाकर यह सब विधि उनसे कराते हैं, जिनके माता-पिता या परिवार के दंपत्ति कोई भी हैं उन्हें आगे करते हैं या नये किसी योग्य दंपत्ति को ऐसा सौभाग्य मिलता है।)
इसके बाद आचार्यदेव-गुरु सोलह संस्कार मंत्रों से शिष्य के मस्तक पर लवंग व पीले पुष्प क्षेपण करते हुए १६ संस्कारों का आरोपण करें-
१. अयं सम्यग्दर्शनसंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
२. अयं सम्यग्ज्ञानसंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
३. अयं सम्यक्चारित्रसंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
४. अयं बाह्याभ्यन्तरतप:संस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
५. अयं चतुरंगवीर्यसंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
६. अयं अष्टमातृमंडलसंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
७. अयं शुद्ध्यष्टकावष्टंभसंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
८. अयं अशेषपरीषहजयसंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
९. अयं त्रियोगासंगमनिवृत्तिशीलतासंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
१०. अयं त्रिकरणासंयमनिवृत्तिशीलतासंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
११. अयं दशासंयमनिवृत्तिशीलतासंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
१२. अयं चतु: संज्ञानिग्रहशीलतासंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
१३. अयं पंचेन्द्रियजयशीलतासंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
१४. अयं दशधर्मधारणशीलतासंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
१५. अयमष्टादशसहस्रशीलतासंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
१६. अयं चतुरशीतिलक्षगुणसंस्कार इह मुनौ स्फुरतु।
(‘णमो अरहंताणं’ इत्यादि ‘ॐ परमहंसाय इत्यादि मंत्रं पठित्वा ऋषिमस्तके न्यसेत्। अथ गुर्वावली पठित्वा अमुकस्य अमुकनामा त्वं शिष्य इति कथयित्वा संयमाद्युपकरणानि दद्यात्।)
पुन: गुरु- णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
‘‘ॐ परमहंसाय परमेष्ठिने हं स हं स हं हां ह्रं ह्रौं ह्रीं ह्रें ह्र: जिनाय नम: जिनं स्थापयामि संवौषट्’’ यह मंत्र पढ़कर मस्तक पर लवंग आदि क्षेपण करें।
अनंतर अपनी गुर्वावली पढ़कर अमुक के तुम अमुक नाम के शिष्य हो, ऐसा घोषित करके आगे कहे-मंत्र बोलकर गुरू अपने हाथ से ही पिच्छी, कमण्डलु देवें। यदि बोली होकर या पहले से दातार निर्धारित हों जो पिच्छी, शास्त्र, कमण्डलु देने वाले हों, वे गुरु के हाथ में ही देवें। दीक्षादाता गुरू ही सर्वप्रथम शिष्य को पिच्छी, शास्त्र, कमण्डलु देते हैं अनन्तर श्रावक कभी भी पिच्छी परिवर्तन आदि के समय पिच्छी देकर उनके हाथ की पुरानी पिच्छी ले लेते हैं। यह बात विशेष ध्यान देने की है कि प्रथम पिच्छी, शास्त्र व कमण्डलु गुरू ही देते हैं।
गुर्वावली-‘‘अथाद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे भारतदेशे………..प्रदेशे……… नगरे……………ग्रामे……………..तीर्थक्षेत्रे श्रीवीरनिर्वाणसंवत्सरे २५३९ तमे………..मासोत्तममासे……………..पक्षे………..तिथौ………..वासरे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यपरंपरायां प्रथमाचार्यश्रीशांति-सागरस्तस्य पट्टाचार्य: श्रीवीरसागर:……..तस्य शिष्योऽहं मम अमुक नामधेयस्त्वं शिष्योऽसि इत्यादि रूप से अपनी-अपनी परम्परा की गुर्वावली पढ़कर शिष्य का नया नाम घोषित कर देवें।
पुन: पिच्छिका प्रदान का मंत्र बोलते हुए शिष्य को दोनों हाथों में पिच्छिका देवें।
(पिच्छिका प्रदान)
णमो अरहंताणं भो अन्तेवासिन्! षड्जीवनिकायरक्षणाय मार्दवादि-गुणोपेतमिदं पिच्छिकोपकरणं गृहाण गृहाणेति।
ऐसे ही ग्रंथ प्रदान का मंत्र बोलकर ‘मुनिचर्या, मूलाचार’ आदि ग्रंथ देवें। शिष्य दोनों हाथों से शास्त्र ग्रहण करे।
(ग्रंथ प्रदान)
ॐ णमो अरहंताणं मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलज्ञानाय द्वादशांगश्रुताय नम: भो अन्तेवासिन््! इदं ज्ञानोपकरणं गृहाण गृहाणेति।
पुन: गुरु बाएँ हाथ से कमण्डलु उठाकर आगे का मंत्र बोलकर शिष्य को कमण्डलु देवें। शिष्य भी बाएँ हाथ से लेवे।
(कमण्डलु प्रदान)
ॐ णमो अरहंताणं रत्नत्रयपवित्रीकरणांगाय बाह्याभ्यन्तरमलशुद्धाय नम: भो अन्तेवासिन्! इदं शौचोपकरणं गृहाण गृहाणेति।
अनंतर-
वृहद्दीक्षाक्रियानिष्ठापनायां सिद्धभक्त्यादिकं कृत्वा तद्धीनाधिक दोष-विशुद्ध्यर्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् दण्डक आदि पढ़कर समाधिभक्ति पढ़ें )
अथेष्ट प्रार्थना-प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः
शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदार्यैः।
सद्वृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् ।।
सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे।
सम्पद्यन्तां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्गः।।१।।
तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वये लीनम्।
तिष्ठतु जिनेंद्र! तावद्यावन्निर्वाणसंप्राप्तिः।।२।।
अक्खरपयत्थहीणं मत्ताहीणं च जं मए भणियं
तं खमउ णाणदेवय! मज्झवि दुक्खक्खयं दिंतु।।३।।
अंचलिका–इच्छामि भंते! समाहिभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, रयणत्तयसरूवपरमप्पज्झाणलक्खणसमाहिभत्तीए, णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
(ततो नवदीक्षितो मुनिर्गुरुभक्त्या गुरुं प्रणम्य अन्यान् मुनीन् प्रणम्योपविशति यावद्व्रतारोपणं न भवति तावदन्ये मुनय: प्रतिवन्दनां न ददति, ततो दातृप्रमुखा जना उत्तमफलानि अग्रे निधाय तस्मै नमोऽस्त्विति प्रणामं कुर्वन्ति।)
अनंतर नवदीक्षित मुनि गुरुभक्तिपूर्वक गुरु को नमस्कार करके अन्य मुनियों को भी नमस्कार करके बैठे।
दाता आदि प्रमुखजन फलों को सन्मुख रखकर नमोऽस्तु कहकर नमस्कार करें।