ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय नम:
भगवान को केवलज्ञान प्रगट होते ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर अर्धनिमिष में समवसरण की रचना कर देता है। उस समय भगवान तीनों लोकों को और उनकी भूत, भावी, वर्तमान समस्त पर्यायों को युगपत् एक समय में जान लेते हैं।
भगवान शांतिनाथ का समवसरण पृथ्वी से ५००० धनुष (२०००० हाथ) ऊपर आकाश में अधर है। पृथ्वी से एक हाथ ऊपर से एक-एक हाथ ऊँची बीस हजार सीढ़ियाँ हैं। इनसे चढ़कर मनुष्य और तिर्यंच आदि सभी भव्य जीव-बाल, वृद्ध, अंधे, लूले, लंगड़े, रोगी आदि अंतर्मुहूर्त (४८ मिनट) में ऊपर पहुँच जाते हैं। भगवान ऋषभदेव का समवसरण १२ योजन (९६ मील) का है। आगे घटते-घटते महावीर स्वामी का समवसरण एक योजन (८ मील) का है।
इसमें चार परकोटे और पाँच वेदियाँ हैं। इनके आठ भूमियाँ हैं। चारों दिशाओं में बहुत ही विस्तृत वीथी बड़ी-बड़ी गलियाँ हैं।
इस समवसरण में क्रम से पहले धूलिसाल परकोटा, चैत्यप्रासाद भूमि, वेदी, खातिकाभूमि, वेदी, लताभूमि, परकोटा, उपवनभूमि, वेदी, ध्वजभूमि, परकोटा, कल्पभूमि, वेदी, भवनभूमि, परकोटा, श्रीमण्डपभूमि और वेदी है। आगे १६ सीढ़ी ऊपर चढ़कर पहली कटनी, ८ सीढ़ी चढ़कर दूसरी कटनी, पुन: ८ सीढ़ी चढ़कर तीसरी कटनी है। इसी पर भगवान विराजमान हैं।
प्रत्येक परकोटे और वेदियों में चारों दिशाओं में एक-एक गोपुर द्वार हैं। जिनमें से पूर्वदिशा में ‘‘विजय’’, दक्षिण में ‘‘वैजयंत’’ पश्चिम में ‘‘जयंत’’ और उत्तर में ‘‘अपराजित’’ ऐसे नाम हैं। इन चारों के उभय पार्श्व में दो-दो नाट्यशालाएं हैंं, जिनमें देवांगनाएं भगवान की भक्ति में विभोर हो नृत्य-गान करती रहती हैं। वहाँ द्वारों के दोनों और नवनिधि, मंगलघट और घूपघट आदि स्थित हैं। प्रत्येक परकोटे के द्वारों पर देवगण हाथ में दण्ड, मुद्गर आदि लेकर रक्षक बनकर खड़े हुए हैं।
२४ तीर्थंकरों के समवसरण का प्रमाण
१. भगवान ऋषभदेव का समवसरण १२ योजन (९६ मील)
२. भगवान अजितनाथ का समवसरण योजन (९२ मील)
३. भगवान संभवनाथ का समवसरण ११ योजन (८८ मील)
४. भगवान अभिनंदननाथ का समवसरण योजन (८४ मील)
५. भगवान सुमतिनाथ का समवसरण १० योजन (८० मील)
६. भगवान पद्मप्रभु का समवसरण योजन (७६ मील)
७. भगवान सुपार्श्वनाथ का समवसरण ९ योजन (७२ मील)
८. भगवान चंद्रप्रभ का समवसरण योजन (६८ मील)
९. भगवान पुष्पदंतनाथ का समवसनण ८ योजन (६४ मील)
१०. भगवान शीतलनाथ का समवसरण योजन (६० मील)
११. भगवान श्रेयांसनाथ का समवसरण ७ योजन (५६ मील)
१२. भगवान वासुपूज्यनाथ का समवसरण योजन (५२ मील)
१३. भगवान विमलनाथ का समवसरण ६ योजन (४८ मील)
१४. भगवान अनंतनाथ का समवसरण योजन (४४ मील)
१५. भगवान धर्मनाथ का समवसरण ५ योजन (४० मील)
१६. भगवान शांतिनाथ का समवसरण योजन (३६ मील)
१७. भगवान कुंथुनाथ का समवसरण ४ योजन (३२ मील)
१८. भगवान अरनाथ का समवसरण योजन (२८ मील)
१९. भगवान मल्लिनाथ का समवसरण ३ योजन (२४ मील)
२०. भगवान मुनिसुव्रतनाथ का समवसरण योजन (२० मील)
२१. भगवान नमिनाथ का समवसरण २ योजन (१६ मील)
२२. भगवान नेमिनाथ का समवसरण योजन (१२ मील)
२३. भगवान पार्श्वनाथ का समवसरण योजन (१० मील)
२४. भगवान महावीर स्वामी का समवसरण १ योजन (८ मील)
समवसरण में प्रवेश करते ही चारों गली में दिव्य रत्नमय मानस्तंभ हैं जो कि भगवान से बारहगुने ऊँचे हैं। जैसे कि-भगवान शांतिनाथ के शरीर की ऊँचाई १६० हाथ है अत: ये बारहगुणे अर्थात् १६०²१२·१९२० हाथ ऊँचे हैं। बीस योजन तक प्रकाश पैâलाते हैं। इनके दर्शन से मानी का मान गलित हो जाता है और वह भव्यात्मा सम्यग्दृष्टि बनकर अनंत संसार को सीमित कर लेता है।
केवली भगवान के प्रभाव से चारों तरफ चार सौ कोस तक सुभिक्षता, हिंसा और उपसर्गादि का अभाव, सभी जन्मजात शत्रु-सिंह, हिरण आदि का आपस में मैत्री भाव, छहों ऋतुओं के फल-फूलों का एक साथ आ जाना आदि अतिशय हो जाते हैं।
भगवान के श्रीविहार में आकाश में अधर, उनके चरण के नीचे देवगण स्वर्णमय सुगंधित दिव्य कमलों को रचते जाते हैं और अिंहसा धर्म के दिग्विजय को सूचित करता हुआ ‘धर्मचक्र’ भगवान के आगे-आगे चलता है एवं सरस्वती-लक्ष्मी देवी आजू-बाजू में चलती हैं। आकाशगामी ऋद्धिधारी साथ में चलते हैं, असंख्य देव-देवियाँ, इन्द्रादिगण पीछे-पीछे चलते हैं एवं साधारण मुनि, आर्यिकाएं, मनुष्य, पशु आदि नीचे-नीचे चलते हैं। जहाँ भगवान रुक जाते हैं वहाँ पुन: कुबेर समवसरण की रचना कर देता है।
समवसरण में आठ भूमि और तीन कटनी
१. पहली ‘‘चैत्यप्रासादभूमि’’ है, इसमें एक-एक जिनमंदिर के अंतराल में पांच-पांच प्रासाद हैं।
२. दूसरी ‘‘खातिकाभूमि’’ है, इसके स्वच्छ जल में हंस आदि कलरव कर रहे हैं और कमल आदि पुष्प खिले हैं।
३. तीसरी ‘‘लताभूमि’’ है, इसमें छहों ऋतुओं के पुष्प खिले हुए हैं।
४. चौथी ‘‘उपवनभूमि’’ है, इसमें पूर्व आदि दिशा में क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र के वन हैं। प्रत्येक वन में एक-एक चैत्यवृक्ष हैं जिनमें ४-४ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। प्रत्येक प्रतिमाओं के सामने एक-एक मानस्तंभ हैं।
५. पांचवी ‘‘ध्वजाभूमि’’ है, इसमें सिंह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र इन दस चिन्हों स्ो सहित महाध्वजाएं और उनके आश्रित लघुध्वजाएं १०८-१०८ हैं। सब मिलाकर ४,७०,८८० हैं।
६. छठी ‘‘कल्पभूमि’’ है, इसमें भूषणांग आदि दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं। चारों दिशा में क्रम से नमेरु, मंदार, संतानक और पारिजात ऐसे एक-एक सिद्धार्थवृक्ष हैं। इनमें चार-चार सिद्धप्रतिमाएं विराजमान हैं ।
७. सातवीं ‘‘भवनभूमि’’ में भवन बने हुए हैं। इस भूमि के पार्श्व भागों में अर्हंत और सिद्धप्रतिमाओं से सहित नौ-नौ स्तूप हैं।
८. आठवीं ‘‘श्रीमण्डपभूमि’’ है, इसमें १६ दीवालों के बीच में १२ कोठे हैं जिनमें १. गणधरादि मुनि, २. कल्पवासिनी देवी, ३. आर्यिका और श्राविका, ४. ज्योतिषी देवी, ५. व्यंतर देवी, ६. भवनवासिनी देवी, ७. भवनवासी देव,
८. व्यंतर देव, ९. ज्योतिष देव, १०. कल्पवासी देव, ११. चक्रवर्ती आदि मनुष्य और १२. सिंहादि तिर्यंच, ऐसे बारहगण के असंख्यातों भव्यजीव बैठकर धर्मोपदेश सुनते हैं। वहां पर रोग, शोक, जन्म, मरण, उपद्रव आदि बाधाएं नहीं हैं।
प्रथम कटनी पर पूजा द्रव्य एवं मंगल द्रव्य रखे हुए हैं। इसी प्रथम कटनी पर चारों दिशाओं में यक्षेन्द्र अपने मस्तक पर धर्मचक्र धारण किये हुए हैं।
द्वितीय कटनी पर सिंह, बैल, कमल, चक्र, माला, गरुड़ और हाथी इन आठ चिन्हों से युक्त महाध्वजाएं हैं तथा धूपघट, नवनिधियाँ, पूजन द्रव्य एवं मंगलद्रव्य स्थित हैं।
तृतीय कटनी पर गंधकुटी में सिंहासन पर लाल कमल की कर्णिका पर भगवान शांतिनाथ चार अंगुल अधर विराजमान हैं। इनका मुख एक तरफ होते हुए भी चारों तरफ दिखने से ये चतुर्मुखी ब्रह्मा कहलाते हैं। भगवान के पास अशोकवृक्ष, तीन छत्र, सिंहासन, भामंडल, चौंसठ चंवर, सुरपुष्पवृष्टि, दुंदुभि बाजे और हाथ जोड़े सभासद ये आठ महाप्रातिहार्य हैं। सभी समवसरण में उन-उन तीर्थंकर के शासन देव-देवी विद्यमान हैं। जैसे कि भगवान शांतिनाथ के समवसरण में गरुड़ यक्ष और महामानसी यक्षी विद्यमान हैं।
श्री शांतिनाथ भगवान को मेरा अनंतबार नमस्कार हो।
इस समवसरण का वर्णन तिलोयपण्णत्ति, हरिवंशपुराण और समवसरण स्तोत्र के आधार से हैं।
सप्तस्तोत्र का वर्णन-
१. ‘समवसरण मानस्तंभ स्तोत्र’ में चौबीसों तीर्थंकरों के समवसरण में प्रथम भूमि की वीथी में स्थित मानस्तंभों के जिनबिम्बों का स्तवन है।
२. ‘समवसरण चैत्यप्रासाद भूमि स्तोत्र’ में समवसरण में प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि है। इसमें स्थित जिनमंदिरों का स्तोत्र है।
३. ‘समवसरण चैत्यवृक्ष स्तोत्र’ में चौबीसों तीर्थंकरों के समवसरण में चौथी उपवन भूमि में स्थित चैत्यवृक्षों के जिनबिम्बों का स्तवन है।
४. ‘समवसरण सिद्धार्थवृक्ष स्तोत्र’ में चौबीसों तीर्थंकरों के समवसरण में छठी भूमि-कल्पभूमि में स्थित सिद्धार्थवृक्षों की सिद्धप्रतिमाओं का स्तवन है।
५. ‘समवसरण स्तूप स्तोत्र’ में चौबीसों तीर्थंकरों के समवसरण में सातवीं भूमि में स्थित नव—नव स्तूपों में विराजमान जिन और सिद्ध प्रतिमाओं का स्तवन है।
६. ‘तीर्थंकर धर्मचक्र स्तोत्र’ में चौबीसों तीर्थंकरों के समवसरण में आठ भूमि के बाद भगवान की गंधकुटी के नीचे प्रथम कटनी पर यक्षेंद्रों के मस्तक पर स्थित धर्मचक्र का स्तवन है।
७. ‘समवसरण गंधकुटी स्तोत्र’ में समवसरण में तृतीय कटनी पर गंधकुटी है इसी में तीर्थंकर भगवान विराजमान रहते हैं। यह उस गंधकुटी का स्तोत्र है।