—गीता छंद—
तीर्थंकरों की सभाभूमी, धनपती रचना करें।
है समवसरण सुनाम उसका, वह अतुलवैभव धरे।।
जो घातिया को घातते, वैâवल्यज्ञान विकासते।
वे इस सभा के मध्य अधर, सुगंधकुटि पर राजते।।१।।
—दोहा—
अनंत चतुष्टय के धनी, तीर्थंकर चौबीस।
मन-वच-तन त्रयशुद्धि से, नमूँ-नमूँ नत शीश।।२।।
—गीता छंद—
सब रत्नमय यह पीठ सुंदर, देवनिर्मित तीसरा।
श्री आदिनाथ जिनेश का, यह शोभता अतिशय भरा।।
वर ज्ञान आदिक क्षायिकी, मिल जांय केवल लब्धियां।
जिन गंधकुटि को मैं नमूं, मिल जांय आतम सिद्धियाँ।।१।।
श्री अजित जिनके समवसृति में, सर्व रत्नसु पीठ पे।
जिन गंधकुटि चामर ध्वजाओं, से भरी अतिशय दिपे।।वर.।।२।।
वर पीठ तीजे में चतुर्दिश, आठ आठहिं सीढ़ियाँ।
उस पर सुशोभे गंधकुटि, जहं नाचतीं ध्वजपंक्तियाँ।।वर.।।३।।
जिननाथ जिसमें राजते, यह गंधकुटि सुर वंद्य है।
नित करें स्तुति वंदना, शिर नावते मुनि वृंद हैं।।वर.।।४।।
श्री सुमति जिन अज्ञान हरते, ज्ञान भरते भक्त में।
मुनिमन कमल विकसावते, प्रभु सूर्य अनुपम जगत में।।वर.।।५।।
जिन पद्मप्रभु की गंधकुटि में, सर्वदिश रचना दिखे।
प्रत्येक मंगल द्रव्य इक सौ आठ चारों दिश रखें।।।वर.।।६।।
वर धूप घट मणिरत्न दीपक, मोतियों के हार हैं।
मणि पीठ तीजा सोहता, जो पुण्य का भंडार है।।वर.।।७।।
चंदाप्रभू के समवसृति में, सर्वजन प्रीती भरें।
जिनपाद पंकज सेवते, मन में अतुल भक्ती धरें।।
वर ज्ञान आदिक क्षायिकी, मिल जांय केवल लब्धियां।
जिन गंधकुटि को मैं नमूं, मिल जांय आतम सिद्धियाँ।।८।।
स्वर्णिम रजतमाला कुसुम—माला सुरभि पैâलावतीं।
जिन नाथ का हि प्रभाव सोने में सुगंधी आवती।।वर.।।९।।
शीतल जिनेश्वर वचन सारे, विश्व को शीतल करें।
जो उन वचन पीयूष पीते, वे अमर पद को धरें।।वर.।।१०।।
श्रेयांस जिन जग में सभी को, क्षेम मंगल कर रहें।
जो नाथ के प्रतिकूल हैं, वो दुर्गती में पड़ रहे।।वर.।।११।।
जो आप का संस्तव करें, वे सर्व सुख संपति लहें।
निंदा करें वे दुख लहें, प्रभु वीतरागी ही रहें।।वर.।।१२।।
श्री विमल जिनके पाद पंकज, मन पवित्र बनावते।
जो आप शरणे आ गये, वो रिद्धि सिद्धी पावते।।वर.।।१३।।
बहिरात्मता को छोड़कर, मैं अंतरात्मा हो गया।
परमात्मपद वैâसे मिले, यह भान मुझको हो गया।।वर.।।१४।।
श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र दश्विध, धर्म के दातार हैं।
जो पूजते उनके चरण वे, शीघ्र भवदधिपार हैं।।वर.।।१५।।
श्रीशांतिनाथ जिनेश शाश्वत, शांति के दाता तुम्हीं।
प्रभु शांति ऐसी दीजिये, फिर हो कभी वांछा नहीं।।वर.।।१६।।
श्री कुंथु जिनके समवसृति में, भव्य सम्यग्दृष्टि हैं।
जो उन चरण को पूजते, उनको मिले भवमुक्ति है।।वर.।।१७।।
अरनाथ मोहारी विजेता, घातिया को घात के।
निज धाम को पाकर बने, भगवान जग आधार वे।।वर.।।१८।।
श्री मल्लि जिनवर द्रव्य मल, अरु भाव मल को धोयंगे।
जो भव्य उन पूजा करें, वो पूर्ण पावन होयंगे।।।वर.।।१९।।
भगवान मुनिसुव्रत निजातम, शांति रस में लीन हैं।
उनकी करें जो वंदना, वे धन्य हैं स्वाधीन हैं।।वर.।।२०।।
यह आत्मा रस गंध वर्ण, स्पर्श गुण से शून्य है।
जो ध्यावते झट पावते, निज के अखिल गुणपूर्ण वे।।वर.।।२१।।
श्री नेमिनाथ जगत् पिता, श्रीकृष्ण के लघु भ्रात भी।
जग सूर्य करुणा सिंधुवर्धन, हेतु अनुपम चंद भी।।वर.।।२२।।
प्रभु पार्श्वनाथ त्रिलोक शेखर, शिखामणि विख्यात हैं।
पद्मावती धरणेन्द्र भी, नित प्रति नमाते माथ हैं।।वर.।।२३।।
महावीर प्रभु का आज भी, शासन जगत में छा रहा।
जो हैं अहिंसा प्रिय उन्हों के, चित्त को अति भा रहा।।वर.।।२४।।
चौबीस जिनके समवसृति, में रत्ननिर्मित पीठ पे।
शुभगंधकुटि अतिशायि मंगल—द्रव्य माला से दिपे।।वर.।।२५।।
—दोहा—
विविध सुगंधी से भरी, गंधकुटी अभिराम।
मन वच तन से नित्य ही, शत शत करूँ प्रणाम।।२६।।
—शंभु छंद—
जय जय श्रीजिनवर गंधकुटी, चहुंदिश रत्नों की मालायें।
जय जय श्रीजिनवर गंधकुटी, चहुंदिश फूलों की मालायें।।
जय गंधकुटी के शिखरों पर, फहरायें कोटि पताकायें।
चहुं ओर लटकते मोती के, झालर अरु वंदन मालायें।।२७।।
स्वर्गों पर है सर्वार्थसिद्धि, मेरु पर दिपे चूलिका है।
वैसे ही समवसरण मस्तक पर, गंधकुटी सु कर्णिका है।।
मंगल द्रव्यों से मंगलमय, बहूधूप घटों से सुरभित है।
चहुं ओर जड़े बहु रत्नों की, कांती से चित्र विचित्रित है।।२८।।
इस गंधकुटी की शोभा को, सुरगुरु भी नहिं कह सकते हैं।
इस गध्ांकुटी की महिमा को, गणधर गाते नहिं थकते हैं।।
माँ सरस्वती कल्पांत काल तक, महिमा नहिं लिख सकती है।
फिर मुझमें बुद्धी अती तुच्छ, लव कहने की नहिं शक्ति है।।२९।।
सिंहासन स्वर्णमयी सुंदर, बहुविध रत्नों से जड़ा हुआ।
निज छवि से इंद्रधनुष शोभा, वह चारों दिश में करा रहा।।
इस सिंहासन पर तीर्थंकर, चतुरंगुल अधर विराज रहे।
ऐश्वर्य तीन जग अतिशायी, पाकर भी उससे पृथक् रहें।।३०।।
नभ से सुरगण नाना विध के, पुष्पों की वर्षा करते हैं।
वे पुष्प सुगंधित जहां तहां, डंठल नीचे कर पड़ते हैं।।
वे खिले पुष्प मानोें कहते, जो प्रभु के पग में पड़ते हैं।
उनके कर्मों के बंधन सब नीचे, होकर गिर पड़ते हैं।।३१।।
प्रभु के समीप तरुवर अशोक, वह पवन झकोरे से हिलता।
मरकतमणि के पत्ते चिकने, मूंगे के पुष्पों से खिलता।।
प्रभु शिर पर तीन छत्र उज्ज्वल, मोती की लरें लटकती हैं।
त्रिभुवन के ईश्वर हैं िजनवर, ऐसा कह खूब चमकती हैं।।३२।।
दोनों बाजू यक्षेंन्द्र खड़े, चौंसठ चंवरों को ढोरे हैं।
पय सागर लहरों सदृश दिखें, या झरने सम अति शोभें हैं।।
ढुरते ये चवंर उपरि जाते, मानो भव्यों से कहते हैं।
जो चवंर ढुराते जिनवर के, वे ऊर्ध्वगती ही लहते हैं।।३३।।
सुरगण मिल जिनको बजा रहें, ऐसी दुंदुभि वहां बजती हैं।
जो शंख नगाड़े पणव आदि की, ऊँची ध्वनि मन हरती है।।
प्रभु की तनु छवि से बना हुआ, भामंडल अद्भुत तेज धरें।
भविजन उसमें निज सातसात, भव देखें अतिशय मोद भरें।।३४।।
दिव्यध्वनि मेघ गर्जनासम, जिनमुख पंकज से खिरती है।
भव्यों के कानों में जाकर, सब भाषामय परिणमती है।।
ये आठ कहें हैं प्रातिहार्य, जिनको सुरगण मिल करते हैं।
इन वैभव के स्वामी जिनवर, वंदत अनंत दुख हरते हैं।।३५।।
जिन गंधकुटी त्रिभुवन वंदित, मुनिगण भी शिर से नमते हैं।
जो वंदे ध्यावें भक्ति करें, वे भव वारिधि से तरते हैं।।
जिनवर सन्निध पा गंधकुटी, सब जन से वंदन पाती है।
जो नाममात्र इसका लेते, उन्हें समकित रत्न दिलाती है।।३६।।
—दोहा—
त्रिभुवन की सब सुरभियुत, गंधकुटी जगश्रेष्ठ।
‘ज्ञानमती’ शिरनत नमूं, बनूं जगत में ज्येष्ठ।।३७।।
-शंभु छंद-
त्रिभुवन में धर्म वही उत्तम, जो श्रेष्ठ सुखों में धरता है।
सांसारिक सभी सौख्य देकर, मुक्ती पद तक पहुँचता है।।
इस रत्नत्रयमय धर्मतीर्थ के, कर्ता तीर्थंकर बनते।
इनको प्रणमूँ मैं बार बार, ये सर्व आधि व्याधी हरते।।१।।
श्री महावीर के शासन में, श्री कुंदकुंद आम्नाय प्रथित।
सरस्वतीगच्द गण बलात्कार से, जैन दिगम्बर धर्म विशद।।
इस परम्परा में सदी बीसवीं , के आचार्य प्रथम गुरुवर।
चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तीसागर सबके गुरु प्रवर।।२।।
इन प्रथमशिष्य पट्टाधिप श्री, गुरु वीरसागराचार्य हुए।
मुझको ये आर्यिका ज्ञानमती, करके अन्वर्थ नाम दिये।।
इन रत्नत्रय दाता गुरु, को, है मेरा वंदन बार बार।
माँ सरस्वती को नित्य नमूँ, जिनका मुझ पर है बहूपकार।।३।।
इस गंधकुटी की भक्ती से, स्तोत्र बनाया है मैंने।
प्रभु भक्ती से प्रभु गंधकुटी, दर्शन की आशा है मन में।।
इस दुषमकाल के अन्त समय तक, जैनधर्म जयवंत रहे।
इस हस्तिनागपुर में तब तक, यह जंबूद्वीप स्थायि रहे।।४।।
—दोहा—
जब तक जग में सौख्य प्रद, जिनशासन गुणवंत।
गंधकुटी स्तोत्र यह, तब तक दे शिवपंथ।।५।।
(इति श्रीसमवसरणगंधकुटीस्तोत्रं समाप्तं)
।।इति मंगलं भूयात्।।