—सोरठा—
अकृत्रिम जिनधाम, अतुलविभव को कह सके।
प्रणमूँ आठों याम, गुणमणिमाला कंठ धर।।१।।
—चाल-हे दीनबंधु……….
जय जयतु जंबूवृक्ष के शाश्वत जिनालया।
जय जयतु शाल्मलीतरु के जैन आलया।।
जय जयतु धातकी तरू के जैनधाम दो।
जय जयतु शाल्मली तरू के जैनधाम दो।।२।।
जय जयतु जय पुष्कर तरू के दो जिनालया।
जय जयतु शाल्मली तरू के दो जिनालया।।
जय जयतु दशों वृक्ष के जिनधाम अनादी।
जय जयतु जैनमूर्तियां मणिरत्नमयादी।।३।।
इन दस के परिवार तरू के जैनगृह नमूं।
इनके सभी व्यंतरगृहों के जैनगृह नमूँ।।
जय जय अनादि अरु अनंत जैन मूर्तियां।
मैं नित्य नमूं भक्ति से ये रत्न मूर्तियां।।४।।
हे चित्स्वरूप जैनिंबब! मैं तुम्हें नमूँ।
हे आदि अंत शून्य! प्रकृतिरूप में नमूँ।।
तुम हो अनादि परमब्रह्म ज्योतिस्वरूपी।
चैतन्य चिदानंद सहज रूप अरूपी।।५।।
हो शुद्ध बुद्ध परम विश्वनाथ महेशा।
आनन्द कंद श्रीजिनंद नमत सुरेशा।।
खेचर सुरों की टोलियाँ आ भक्ति भाव से।
हे नाथ! तुम्हें पूजती है नित्य चाव से।।६।।
हो ऋद्धि सहित साधुवृंद या हो खगेशा।
विद्याधरों के कुल में जन्म लेके नरेशा।।
या भूमिगोचरी मनुष्य गगन में चलें।
विद्या के बल से ढाई द्वीप में अधर चलें।।७।।
जो भव्य वृक्ष मंदिरों की वन्दना करें।
संचित अनंत पाप कर्म खण्डना करें।।
साधु भी समयसाररूप निज को करें हैं।
संसार विषम वार्धि से भी शीघ्र तिरे हैं।८।।
जिनिंबब एक सौ सुआठ सर्व भवन में।
वे रत्न मणिमयी अनादि जैन भवन में।।
रत्नों के िंसहविष्टरों१ पे राजते सदा।
पद्मासनों से पूर्ण अचल भासते सदा।।९।।
है वीतराग सौम्य छवि चित्त मोहनी।
नासाग्र दृष्टि ध्यान मग्न शांत सोहनी।।
मणि मोतियों के छत्र फिरे ढुर रहे चंवर।
नित भक्ति करे आन वहां अप्सरा अमर।।१०।।
संसार विपिन के लिये पावक प्रचंड हो।
हे नाथ! भव समुद्र हेतु तुम तुरंड हो।।
चैतन्य सुधाकर के लिये चंद्रमा तुम्हीं।
मोहाधंकार नाश हेतु अर्यमा२ तुम्ही।।११।।
मैंने भी मनुज योनि में ही जन्म लिया है।
सम्यक्त्व रत्न पाय जनम धन्य किया है।।
हे नाथ! निधी गिर न जाय भवसमुद्र में।
करके कृपा रक्षा करो िंचता न हो हमें।।१२।।
त्रैलोक्य नाथ! आज तेरी शरण में आया।
करुणा करो हे देव! मैं मोहारि सताया।।
अब दीन बंधु! शीघ्र ही सहाय कीजिये।
बस आपके ही पास में बुलाय लीजिये।।१३।।
—दोहा—
जय जय प्रभु त्रैलोक्यपति, आश्रित के प्रतिपाल।
‘ज्ञानमती’ निज संपदा, देकर करो खुशाल।।१४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालयतत्परिवारजिनालय- जिनबिंबेभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
जो अकृत्रिम वृक्षजिनालय, पूजा करते रुचि से।
अकृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमा, वंदन करते मुद से।।
वे अकृत्रिम शाश्वत अनुपम, शिवसुख प्राप्त करेंगे।
केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी सह, गुण आनन्त्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।